जमानत के प्रावधान पर उचित कार्रवाई हो
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हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने इलाहबाद उच्च न्यायालय को निर्देश दिया है कि पहली बार अपराध करने के लिए 10 साल से जेल में बंद 1500 बंदियों को जमानत पर रिहा किया जाए। यह निर्देश भारत की न्यायप्रणाली की अस्वस्थता की ओर ध्यान आकर्षित करने वाला है।
इसे निम्न कुछ बिंदुओं में समझा जा सकता है –
- पूरे भारत के उच्च न्यायालयों में 50 लाख से अधिक मामले फंसे हुए हैं, जिनमें से 41% मामले पांच साल या उससे अधिक समय से लंबित हैं। 21% मामले 10 साल या उससे अधिक समय से लंबित हैं।
- आंध्रप्रदेश, तेलंगाना और कर्नाटक जैसे कुछ उच्च न्यायालयों में लंबित मामलों की दर तेजी से बढ़ रही है।
- इलाहाबाद उच्च न्यायालय, पेंडेसी चार्ट में सबसे ऊपर है, जबकि यह अपने बैकलॉग को कम करने के लिए लगातार काम करता है। यह न्यायालय अभी 1980 के दशक में दायर मामलों की सुनवाई कर रहा है। यहां यह संभावना नहीं थी कि जेल में बंद इन विचाराधीन कैदियों के मामलों को एक दशक से पहले उठाया जा सकता।
समाधान क्या हो ?
- उच्च पेंडेंसी दरों के कारणों की पहचान करने और समयबद्ध तरीके से मामलों के समाधान को सुनिश्चित करने के लिए न्यायालयों को पूरी तरह से ऑडिट करने की आवश्यकता है।
- जिन मामलों में जमानत का प्रावधान है, वहाँ जमानत देना डिफॉल्ट होना चाहिए।
- पीठ में रिक्तियों को भरा जाना चाहिए।
- छोटे-छोटे मामलों के लिए अधीनस्थ न्यायालयों को दरकिनार करके, वादियों और वकीलों द्वारा उसे बड़े न्यायालयों में ले जाने की प्रवृत्ति पर लगाम कसी जानी चाहिए।
- कानून की अज्ञानता और कानूनी सेवाओं तक पहुँच की कमी के कारण बड़ी संख्या में आरोपित जमानत लेने में असमर्थ होते हैं। इसे सुगम बनाया जाना चाहिए।
इन संदर्भो में शीर्ष न्यायालय का कदम मानवीय है। लेकिन यह ऐसा बैंड एड है, जिसे पहले भी लगाया जा चुका है।
‘इकॉनॉमिक टाइम्स’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 13 मई, 2022
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