धार्मिक विश्वास और स्वतंत्रता को कैसे बचाया जाए
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हाल ही में जबरन धर्मांतरण रोकने के नाम पर होने वाली मुकदमेबाजी में न्यायालयों का बहुत सा समय व्यर्थ हो रहा है। पिछले कुछ समय से ऐसी अनेक जनहित याचिकांए दाखिल की जा रही हैं। ऐसे मामले न केवल व्यक्त्गित स्तर पर बल्कि राज्य सरकारों के द्वारा भी न्यायालय में लाए जा रहे हैं।
गुजरात का मामला –
हाल ही में राज्य सरकार अपने धर्मांतरण विरोधी कानून के उस प्रावधान पर लगी रोक को हटाने की मांग कर रही है, जिसके लिए ‘’प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से’’ किए गए किसी भी धर्मांतरण के लिए जिला मजिस्ट्रेट से पूर्व अनुमति की आवश्यकता होती है। यह कानून की धारा 5 है।
उच्चतम न्यायालय का आदेश रहा है कि विवाह और विश्वास एक व्यक्तिगत मामला है। अतः इसके लिए जिला मजिस्ट्रेट से पूर्व अनुमति का प्रावधान गलत है। गुजरात उच्च न्यायालय ने भी यही फैसला दिया था।
समाधान क्या हो ?
धर्म की स्वतंत्रता की रक्षा तभी हो सकती है, जब अंतर-धार्मिक विवाह को लेकर कोई सवाल न उठाए जाएं, और न ही जिला मजिस्ट्रेट से पूर्व अनुमति लेने जैसे कानून लागू किए जाएं। किसी कानून के द्वारा किसी को अपने धार्मिक विश्वास में बदलाव की मंशा को उजागर करने के लिए बाध्य किया जाना गलत है। यह अंतरात्मा की स्वतंत्रता और निजता के अधिकार के विरूद्ध है।
दूसरी ओर, धर्मांतरण की समस्या से इंकार नहीं किया जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ ने भी लालच या परोपकार के एजेंडा की आड़ में धर्मांतरण किए जाने को गंभीर समस्या बताया है। लेकिन फिर भी क्या छल से किए जाने वाले धर्मांतरणों के अतिशयोक्तिपूर्ण आरोपों में उच्चतम न्यायालय को उलझाया जाना चाहिए या इसे राज्यों पर छोड़ दिया जाना चाहिए? इस पर विचार करके कोई ऐसा रास्ता निकाला जाना चाहिए कि धार्मिक स्वतंत्रता और साम्प्रदायिक सौहार्द्र बना रह सके।
‘द हिंदू’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 6 दिसंबर 2022