दिल्ली के राजनीतिक अखाड़े से

Afeias
19 Apr 2021
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Date:19-04-21

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हाल ही में, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र अधिनियम, 1991 में संशोधन को प्रस्तावित करते हुए 2018 के उच्चतम न्यायालय की संवैधानिक पीठ के निर्णय का हवाला दिया गया है। ऐसा करते हुए विधेयक में, दिल्ली राज्य सरकार और उसकी मंत्रिपरिषद् के कार्यकलापों पर अनेक प्रकार के प्रतिबंध लगा दिए गए हैं। अपने निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने दिल्ली राज्य एवं अन्य केंद्र शासित प्रदेशों के लिए की गई संवैधानिक व्यवस्था का उल्लेख किया था।

ज्ञातव्य है कि 1991 को पारित किए गए 69वें संविधान संशोधन के जरिए अनुच्छेद 239 एए को संविधान में जोड़ा गया था। इस संशोधन के द्वारा दिल्ली प्रशासन, जो सीधे दिल्ली के उपराज्यपाल को रिपोर्ट करता थी, को प्रतिनिधि सरकार का दर्जा दे दिया गया था। इससे पहले दिल्ली प्रशासन में मंत्री नहीं होते थे, और जन भागीदारी भी न्यूनतम हुआ करती थी।

अनुच्छेद 239 एए के द्वारा दिल्ली विधानसभा को संविधान की राज्य व समवर्ती सूची में दिए गए विषयों पर विधान बनाने का अधिकार प्राप्त हो गया। केवल पुलिस, सार्वजनिक व्यवस्था और भूमि जैसे तीनों विषयों का नियंत्रण उपराज्यपाल के माध्यम से केंद्र को सौंपा गया। इन विषयों पर दिल्ली सरकार से मतभेद की स्थिति में उपराज्यपाल मंत्रियों की सलाह और सहायता से निर्णय ले सकता था। उपराजयपाल को स्वतंत्र रूप से कोई भी निर्णय लेने का अधिकार नहीं था। उसके पास अंतिम रास्ते के रूप में राष्ट्रपति के आदेश का पालन करना मात्र था, जिसे अपवाद की तरह इस्तेमाल में लाया जा सकता था।

अब अगर हम संविधान के प्रावधानों और उच्चतम न्यायालय के आदेशों से परे वास्तविक स्तर पर दिल्ली सरकार के पिछले कामकाज को देखें, तो उन्हें वाकई कल्याणकारी और प्रशंसनीय कहा जा सकता है। दिल्ली मेट्रो सेवा की शुरूआत, दिल्ली परिवहन सेवाओं का सीएनजी में बदलाव, संपत्ति कर संग्रहण के लिए यूनिट एरिया प्रक्रिया, दिल्ली कॉपरेटिव सोसायटी अधिनियम, धूम्रपान अधिनियम जैसे अनेक यादगार काम किए गए हैं, जिन्होंने दिल्ली की जनता को बेहतर जीवन प्रदान किया है। भ्रष्टाचार के विरूद्ध अनेक कठोर कदम उठाए गए हैं। इन सब से प्रभावित दिल्ली की जनता के जनादेश को देखते हुए शायद केंद्र सरकार ने दिल्ली सरकार के पर कतरने का मन बना लिया है।

यह संशोधन, अपनी कार्यवाही के संचालन के लिए नियमों को बनाने के विधायिका के अंतर्निहित अधिकार का विरोध करता है। इसके द्वारा अब दिल्ली सरकार को किसी भी फैसले पर उपराज्यपाल की राय लेनी जरूरी हो गई है।

वस्तुतः भारत की राजधानी के लिए एक साझा दृष्टिकोण और ऐसी परिपक्वता की आवश्यकता है, जिसमें भारत के संविधान को बदलने की नहीं, बल्कि बनाए रखने की इच्छाशक्ति हो। यह देखा जाना बाकी है कि कानून न्यायिक समीक्षा का पालन करेगा या नहीं।

‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित शैलजा चंद्रा के लेख पर आधारित। 25 मार्च, 2021

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