चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति पर सवाल
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किसी भी देश की स्वच्छ और निष्पक्ष चुनाव की प्रक्रिया, उसके लोकतंत्र का आधार होती है। हाल ही में देश के निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति को लेकर उच्चतम न्यायालय ने अहम् टिप्पणी की है। एक याचिका की सुनवाई करते हुए न्यायालय ने कहा है कि संविधान ने मुख्य निर्वाचन आयुक्त और दो अन्य निर्वाचन आयुक्तों पर बहुत महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपी हैं। अतः इनकी निष्पक्ष नियुक्ति के लिए मुख्य न्यायाधीश को भी शामिल किया जाना चाहिए। आखिर न्यायालय ऐसा क्यों चाहता है –
(1) चुनाव आयुक्त का कार्यकाल सामान्यतः छः वर्ष का होता है।
(2) सन् 1991 के कानून में प्रावधान है कि अगर आयुक्त छह साल पूरे होने के पहले 65 साल का हो जाता है, तो उसका कार्यकाल खत्म हो जाएगा। लिहाजा सरकार ऐसे व्यक्ति को नियुक्त करती है, जो कार्यकाल पूरा होने से पहले ही 65 का हो जाए, ताकि वह नया चुनाव आयुक्त नियुक्त कर सके। इससे आयुक्त दबाव में रहते हैं।
(3) आखिर क्यों सरकारें नैतिक रूप से मजबूत और निष्पक्ष आयुक्त नहीं चुन पाती? संविधान पीठ की चिंता का विषय यही है कि ऐसा चुनाव आयुक्त कैसे नियुक्त किया जा सके, जिसे सरकार भयभीत न कर सकें। पीठ में मौजूद न्यायमूर्ति जोसेफ ने यहां तक कहा कि हमें ऐसे मुख्य चुनाव आयुक्त की जरूरत है, जो प्रधानमंत्री के खिलाफ शिकायत मिलने पर भी कार्रवाई कर सके।
इस संदर्भ में नब्बे के दशक में रहे चुनाव आयुक्त टी.एन. शेषन को उनके दृढ़ व्यक्तित्व और ठोस निर्णयों के लिए याद भी किया गया।
चुनाव आयुक्तों को चुनने संबंधी सवाल पर संविधान की चुप्पी का सभी राजनीतिक दलों ने सत्ता में रहते हुए लाभ उठाया है। सरकार को चाहिए कि इसे निष्पक्ष बनाने के लिए एक कानून लाने पर विचार करे, क्योंकि चुनाव आयोग ही नहीं, सभी संविधानिक पदों पर किसी भी नियुक्ति के लिए तटस्थ और योग्य चयन समिति समय की मांग है।
समाचार पत्रों पर आधारित। 24 नवबंर 2022