भारत-मालदीव के वर्तमान संबंधों पर एक नजर
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मालदीव के राष्ट्रपति मुइज्जू ने अपनी संसद में दो-तिहाई बहुमत प्राप्त कर लिया है। इससे दोनों देशों के संबंध और भी जटिल हो सकते हैं। मुइज्जू ने गत वर्ष पदभार संभालने के बाद से ही अपने भारत विरोधी और चीन समर्थक रुख के बारे में कोई छिपाव नहीं रखा है। हालांकि, भारत और चीन के बीच तालमेल बैठाने की मालदीव की यह कोशिश पहले की सरकारों ने भी की है।
अतीत में उतार-चढाव – भौगोलिक दृष्टि से भारत मालदीव के लिए सबसे पहले जवाब देने वाला देश रहा है। 1988 में ऑपरेशन कैक्टस से लेकर 2014 में मालदीव के जल संकट तक, भारत ने हमेशा मालदीव के अनुरोध पर तुरंत मदद की है। 1990 के दशक में मालदीव में बढ़ते लोकतांत्रिक आंदोलन के जवाब में भारत पर चीन का लाभ उठाने का दांवपेच शुरू हुआ था, जो आज भी किसी न किसी रूप में चलता चला जा रहा है।
विभाजित राजनीति – मालदीव की राजनीति आज उन लोगों के बीच विभाजित है, जो भारत के साथ बेहतर संबंधों के पक्षधर हैं, और जो अधिक चीनी सहायता चाहते हैं। इसमें से बहुत कुछ राजनीतिक दिखावा हो सकता है; जैसा कि मुइज्जू ने ‘इंडिया आउट’ करके चीनी जासूसी पोत को द्वीप में घुसने की अनुमति दी है।
खतरनाक रणनीति – मालदीव का बचाव और पुनर्वास मिशन पर लगे भारतीय सैनिकों को वापस भेजना एक बात है। लेकिन चीनी जासूसी पोत को मालदीव में रुकने की अनुमति देना भारत की सुरक्षा के लिए भी खतरनाक हो सकता है। चीन तो रणनीतिक रूप से भारत को घेरना चाहता ही है। मालदीव को इसमें शामिल नहीं होना चाहिए। चीन अंततः मालदीव की संप्रभुता को कमजोर करेगा, या इसे कर्ज के जाल में फंसा देगा। कंबोडिया और श्रीलंका इसी के उदाहरण हैं।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 23 अप्रैल, 2024