भारत में नागरिक समाज की स्थिति सोचनीय है

Afeias
11 May 2023
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नागरिक समाज या सिविल सोसायटी ऐसे समुदाय या समूह होते हैं, जो कुछ लोगों या मुद्दों के समर्थन के लिए सरकार के बाहर काम करते हैं। वर्तमान समय में इन्हें एनजीओ या गैर सरकारी संगठन के तौर पर जाना जाता है। भारतीय जनता पार्टी की सरकार के पिछले नौ वर्षों में इन संगठनों को बहुत दबा दिया गया है। न तो नीतियों को बनाने में इनकी कहीं कोई भूमिका रह गई है, और न ही उनके क्रियान्वयन में। सरकार ने विदेशी अंशदान (विनियमन) अधिनियम या फॉरेन कांट्रीब्यूशन (रेग्यूलेशन) एक्ट के द्वारा इनके संसाधनों पर रोक लगा दी है।

12ए/80-जी लाइसेंस रद्द करके पहले के करों को लागू कर दिया है। समाजसेवियों और निजी कंपनियों को अपना धन दूसरी ओर लगाने के लिए निर्देशित किया जा रहा है। केवल संघ से जुड़े समाजसेवी संगठनों को फलने-फूलने की गुंजाइश छोड़ी गई है। नागरिक समाज पर पड़ रहे नकारात्मक प्रभाव को तीन बिंदुओं में समझा जा सकता है –

1) वित्तीय और संरचानात्मक बाधाएं खड़ी की गई हैं।

2) निरंतर समर्थन की कमी से वे जनता और राष्ट्र पर ठोस प्रभाव नहीं डाल पा रहे हैं।

3) सरकार की दमनात्मक नीति के कारण नीति-निर्माण में उनकी कोई भूमिका नहीं रह गई है।

भारत में नागरिक समाजों के पुनर्गठन का क्या तरीका हो सकता है?

युवा वर्ग को राजनीति में सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए। वे पार्टी संगठन के भीतर अपनी जगह बनाएं या एक गठबंधन निकाय के रूप में काम करें। इससे राजनीतिक दलों पर संगठनात्मक नैतिक दबाव पड़ेगा, जो नैतिक एवं मानव अधिकारों के साथ चुनावी परिदृश्य को संतुलित कर सकता है। इससे कठिन मुद्दों पर पार्टियों को एक प्रणालीगत (सिस्टेमिक) दृष्टिकोण मिल सकेगा। अगर एक नागरिक समाज दलित और महिला अत्याचार, सांप्रदायिक हिंसा जैसे संवेदनशील मुद्दों को पार्टी के अंदर और बाहर उठाता है, तो राजनीतिक दलों के लिए समुदायों की वास्तविकत समस्याओं से जुड़े रहना संभव हो सकेगा। हमारे इतिहास में तो इसका उदाहरण भी है। कांग्रेस में गांधी द्वारा चालाए गए रचनात्मक आंदोलन ने हमेशा ही कांग्रेस को परिपूर्णता दी है।

वर्तमान स्थितियों में सामाजिक संगठनों को एक-दूसरे और राजनीतिक दलों के प्रति अपने विरोध को छोड़ते हुए प्रगतिशील हितधारकों के साथ तत्काल सहयोग करने की आवश्यकता है।

‘द हिंदू’ में प्रकाशित पुष्पराज देशपांडे के लेख पर आधारित। 19 अप्रैल, 2023