भारत-म्यांमार की सीमाओं की बाड़बंदी कितनी उचित?
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एक राष्ट्र की पहचान उसकी सीमाओं से नहीं, बल्कि उसमें रहने वाले लोगों से होती है। यह सिर्फ एक कहावत नहीं है, बल्कि उपनिवेशवाद से बाहर निकले के लिए राष्ट्र-निर्माण और भरण-पोषण राष्ट्रों संबंधी एक दृष्टि भी है। उपनिवेशवाद के बाद पड़ोसी देशों से संबंध और सीमाओं का विचार केवल राष्ट्रहित से ही नहीं, बल्कि सीमावर्ती क्षेत्र के लोगों के हितों से भी जुड़ा था।
हाल ही में गृहमंत्री अमित शाह ने भारत-म्यांमार सीमाओं के “फ्री मूवमेंट रेजीम” को हटाने और सीमाओं की बाड़बंदी करके पड़ोसी संबंधों के व्यापक दृष्टिकोण को नकार दिया है। इसका कारण यह है कि खुली सीमा ने भारत के विद्रोही समूहों की मदद करने के अलावा, नशीले पदार्थों के आवागमन के माध्यम के रूप में काम किया है।
लेकिन ये कारण अपने आप में ठोस नहीं हैं। पूर्वोत्तर भारत में काम कर रहे अधिकांश विद्रोही समूह अब कमजोर हो चुके हैं। भारत की विभिन्न सरकारों ने कभी बल प्रयोग और कभी शांति प्रयासों के सहारे इन्हें नियंत्रण में रखा है। जहाँ तक मादक पदार्थों की तस्करी का प्रश्न है, तो वह केवल सीमाओं के बंद होने से नहीं, बल्कि स्थानीय लोगों के सहयोग पर आधारित कड़े कानूनों के प्रवर्तन से रोकी जा सकती है।
फ्री मूवमेंट रेजीम को खत्म करने की मांग मणिपुर के एक संघर्ष वाले क्षेत्र से आई है। नगालैण्ड और मिजोरम ने इसका विरोध किया है। म्यांमार इस समय गृह युद्ध की चपेट में है। यहाँ के कुछ राज्यों के शरणार्थी मिजोरम और मणिपुर में आ रहे हैं। मणिुपर की जनता अपना संबंध म्यांमार के चिन समुदाय से मानते हैं, और वे उनकी मदद करना चाहते हैं। फ्री मूवमेंट की व्यवस्था भारत की एक्ट ईस्ट नीति की सहायक थी। इसे हटाकर उबड़-खाबड़ पहाड़ों और जंगलों में बाड़ लगाने के निर्णय पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए।
‘द हिंदू’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 19 फरवरी, 2024