अमेरिकी आयात शुल्क : एक अवसर पर हमारी वास्तविकताएँ

Afeias
06 Sep 2025
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1853 में कमोडोर मैथ्यू पेरी दो भाप इंजन वाले जहाजों और दो पाल वाली नाव लेकर नागासाकी बंदरगाह पर गया और जापानी अधिकारियों को अमेरिकी राष्ट्रपति का संदेश देकर उन पर दबाव बनाया। इसके कारण जापान को अपना व्यापार खोलना पडा। ईंधन भरने तथा अन्य रियायतें भी देनी पड़ी। इन सबसे जापान ने तकनीकि श्रेष्ठता को समझा तथा युवा सम्राट मेइजी के नेतृत्व में आमूलचूल सुधारों की घोषणा की गई। इससे भविष्य में वह रूस तथा चीन जैसे देशों का सामना करने के योग्य बन सका।

भारत को भी अमेरिकी आयात शुल्क को अक्सर मानकर ऐसा ही कुछ करने की आवश्यकता है।

हम ट्रंप के सामने वैसे नहीं खड़े हो सकते, जैसे कि चीन खड़ा है। इसीलिए हमें तर्क में नहीं, बल्कि आर्थिक- युद्ध में जीतने की आवश्यकता है।

हमारी अर्थव्यवस्था की वास्तविकताएँ –

  • हमारी तेल रिफाइनरियों ने रूसी तेल खरीदकर अधिक लाभ कमाया। पर यह लाभ खुदरा उपभोक्ताओं को नहीं मिला।
  • हमारे आयात शुल्क गलत दिशा में रहे हैं। इसीलिए ट्रंप भारत को ‘टैरिफ किंग’ कहते हैं।
  • हमने एशिया के क्षेत्रीय व्यापार समझौतों का हिस्सा बनने में कोई रुचि नहीं दिखाई।
  • तीन दशकों से 6% से ज्यादा वृद्धि दर तथा प्रति व्यक्ति आय में 4 गुना सुधार के बावजूद 90% रोजगार अभी भी असंगठित क्षेत्र में हैं। इससे उत्पादकता व तकनीकि प्रगति; दोनों प्रभावित होती है।
  • हम बहुध्रुवीय विश्व की बात करते हैं। पर वास्तविकता में अभी भी दुनिया द्विध्रुवीय है। रूस हमें सैन्य आपूर्तियों तथा अन्य मामलें में तंग करता है। ऐसे में अमेरिका से शत्रुता करना ठीक नहीं है। हमें चीन की तरह अमेरिका का भी हल निकालना होगा।
  • अमेरिका हमारी वस्तुओं और सेवाओं का सबसे बड़ा निर्यात बाजार है। और विदेशी मुद्रा का सबसे बड़ा स्रोत भी है।
  • हमारे इंजीनियरों की तकनीकि क्षमता के कारण अमेरिका भारत में क्षमता केंद्र स्थापित करता है और बड़े पैमाने पर गुणवत्तापूर्ण रोजगार देता है।
  • 50 लाख भारतीय अमेरिका में रहते हैं। एच1 बी वीजा के हम सबसे बड़े लाभार्थी हैं। विदेश मे पढ़ने जाने वाले छात्रों के लिए अमेरिका पहली पसंद है। इसलिए भारत का अमेरिका से हमारे नागरिकों के माध्यम से भी रिश्ता है।
  • भारत सरकार ने बुनियादी वस्तुओं तथा आर्थिक अवसंरचना में तथा डिजिटल अवसंरचना के लिए बहुत अच्छा काम किया है। पर 1991 के बाद दूसरी पीढ़ी के जो सुधार अधूरे थे, उनके लिए ये प्रयास अपर्याप्त सिद्ध हुए हैं। जैसे कि हम पूछ सकते हैं कि चीन उर्वरक-आयातक से निर्यातक बन गया। लेकिन हम अभी तक उर्वरक आयातक क्यों हैं? हमारी कृषि को 40% शुल्क दर का आवरण क्यों चाहिए?
  • हम व्यापार मोर्चे पर अब भी संरक्षणवादी ही हैं और हमारी शुल्क दरें कम होने के बजाय बढ़ी ही हैं।
  • 5 साल बाद भी नई शिक्षा नीति पर समुचित प्रगति नहीं हुई है।
  • विनिर्माण का केंद्र बनने संबंधी हमारी कोशिशें सिर्फ मोबाइल असेंबलिंग तक सिमट गई हैं।
  • कारोबार कुछ घरानों तक केंद्रित हो गया है।
  • भारतीय कंपनियां विदेशों में अपनी छाप नहीं छोड़ पाई हैं।

मनमोहन सिंह ने एक बार कहा था कि अगर आप अमेरिका के पक्ष में नजर आते हो, तो दुनिया आपके पक्ष में नजर आती है। इसीलिए हमें इस समय जापान के जैसे ही इस मुश्किल का सामना करना होगा।

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