अल्पसंख्यक दर्जे का पेचीदा मामला

Afeias
29 Aug 2022
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हाल ही में उच्चतम न्यायालय की टिप्पणी आई है कि धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यक का दर्जा राज्यवार तय किया जाना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय का यह भी कहना है कि यह कानून में एक स्थापित स्थिति है। इसी के अनुसार इसे तय किया जाना चाहिए।

केंद्र का मत –

केंद्र का कहना है कि उसके पास अल्पसंख्यकों को अधिसूचित करने की शक्ति है। लेकिन यह निर्दिष्ट नहीं करता है कि ऐसा राज्यों की सहमति से किया जाएगा या नहीं।

अधिनियम के अनुसार –

राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम के तहत मुस्लिम, ईसाई, सिख, पारसी, बौद्ध और जैन को राष्ट्रीय स्तर पर अल्पसंख्यक समुदायों के रूप में अधिसूचित किया गया है।

लेकिन उत्तर और पूर्वोत्तर में ऐसे राज्य हैं, जहां इनमें से कुछ धार्मिक अल्पसंख्यक, बहुसंख्यक हैं।

समस्याएं और भी हैं –

  • भारत के लगभग हर राज्य में भाषाई अल्पसंख्यक हो सकते हैं। इसलिए यह भी तर्क दिया जाता है कि राज्यों को अल्पसंख्यकों के प्रश्न का निर्णय स्वयं करने के लिए छोड़ दिया जाए।
  • इसके साथ ही आरक्षण नीति की तरह ही राज्यवार मतभेद हो सकते हैं। केंद्रीय ओबीसी सूची में प्रत्येक समुदाय को सभी राज्यों में मान्यता नहीं दी जा सकती है।
  • यदि अल्पसंख्यक का दर्जा राज्य का निर्णय होगा, तो क्या केंद्रीय रूप से अल्पसंख्यक माने गए समुदायों को उन राज्यों में अपना दर्जा खो देना चाहिएए जहां वे बहुसंख्यक हैं ?

मुख्य बात यही है कि मामला पेचीदा है। समुदायों को पिछड़े या अल्पसंख्यक के रूप में जोड़ना या हटाना केवल सतही प्रभाव वाले राजनीतिक निर्णय हैं। वास्तविक कार्य, सार्वजनिक और निजी क्षेत्र में अधिक गुणवत्तापूर्ण शिक्षण संस्थान बनाना है। अल्पसंख्यक दर्जे के साथ ही कई शिक्षण संस्थानों को स्वायत्तता अधिक मिल जाती है। इसी लालसा में इसकी मांग ज्यादा की जा रही है। मुख्य ध्येय गुणवत्तापूर्ण शिक्षा होना चाहिए। इसी के परिणामस्वरूप ऐसे कौशल पैदा होंगे, जिनकी बाजार को जरूरत है।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 20 जुलाई, 2022