अच्छे रोजगार की कमी
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भारत में अच्छी गुणवत्ता वाले रोजगार की बहुत कमी है। इसका कारण हमारे पास समय पर उपलब्ध होने वाले विश्वनीय डेटा का अभाव है। अगर इसके विस्तार में जाएं, तो हमें बड़े पैमाने पर दो डेटासेट मिलते हैं।
(1) एक तो सरकार द्वारा प्रदत्त त्रैमासिक शहरी आवधिक श्रमबल सर्वेक्षण और (2) दूसरा सेंटर फॉर मॉनिटरिंग द इंडियन इकॉनमीज़ कंज्यूमर पिरामिड्स हाउसहोल्ड सर्वे है। इनसे मिले आंकड़ों पर आधारित कुछ बिंदु –
- सितंबर और नवंबर 2022 में बेरोजगारी दर क्रमशः 7.2% और 8% थी। इसका अर्थ है कि कामकाजी जनसंख्या के 3.5-3.9 करोड़ लोगों को सही रोजगार नहीं मिल पाया है।
- इसमें 24.35 आयुवर्ग के वे लोग शामिल नहीं हैं, जो इच्छित रोजगार पाने की तैयारी में लगे हैं या उम्मीद छोड़ चुके हैं। अगर उन बेरोजगारों को शामिल किया जाता है, तो आंकड़ा कहीं बहुत ऊपर चला जाएगा।
- इसके अलावा ये डेटासेट रोजगार की गुणवत्ता और उनकी उत्पादकता को बताते ही नहीं है।
- भारत में श्रमबल की भागीदारी लगभग 46% है। मतलब कामकाजी आयुवर्ग के प्रत्येक 100 भारतीयों में से 54 तो श्रमबल में भागीदार ही नहीं है।
- अन्य देशों की श्रमबल भागीदारी पर एक नजर (2021 में) –
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- ब्राजील में 58%
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- इंडोनेशिया में 68%
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- सभी ओईसीडी देशों में 60%
- भारत के श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी 19% है, जो कि सउदी अरब से भी कम है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार 2019 में उच्च शिक्षा प्राप्त महिलाओं की भी श्रम भागीदारी पुरूषों के 81% की तुलना में मात्र 30% थी। इस प्रकार के वातावरण से उत्पादकता का नुकसान होता है। साथ ही कार्यस्थलों पर विविधता से उत्पन्न नए और खुले विचारों वाला वातावरण भी नहीं बन पाता है।
- युवा बेरोजगारी का प्रतिशत निरंतर बढ़ता जा रहा है। 2010 के 18% की तुलना में 2021 में यह 28% हो गया है।
- यदि कृषि श्रम में भागीदारी देखें, तो यह 2019 के 42.5% से बढ़कर वर्तमान में 46.5% हो गई है। इसमें महामारी का कोई प्रभाव नहीं है।
- नियमित वेतनभोगी कर्मचारियों का प्रतिशत भी 2018-19 के 24% की तुलना में गिरकर 21% हो गया है।
सरकार की अग्निपथ सैनिक भर्ती योजना में आए आवेदनों की भरमार से पता चलता है कि भारत का युवा अच्छे रोजगार को पाने के लिए कितना उत्सुक और बेचैन है। अतः सरकार, निजी क्षेत्र और नागरिक समाज को आगे बढ़कर कोई धारणीय तरीका खोजना चाहिए। इस मामले में भारत को अन्य राष्ट्रों से कदमताल करके चलना होगा।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित रघुराम राजन, रोहित लांबा और राहुल चौहान के लेख पर आधारित। 7 दिसंबर, 2022