आतंक का सफेदपोश पैटर्न
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हाल ही में लाल किले के पास हुए विस्फोट से आंतक का एक नया पैटर्न उभरकर सामने आया है। यह आतंक के व्हाइट-कॉलर टेररिज्म को दिखाता है। यह पैटर्न पहले भी कुछ देशों में देखने को मिला है –
- 1970 के दशक में जर्मनी में कट्टर वामपंथ रेड आर्मी फैशन की स्थापना और नेतृत्व बुद्धिजीवियों, यूनिवर्सिटी के छात्रों और पत्रकारों ने की थी।
- पेशे से मेडिकल डॉक्टर अल्लाह नजर बलूच लिबरेशन फ्रंट के हेड हैं।
- खालिस्तान मूवमेंट के चीफ पन्नू पेशे से वकील हैं।
- अमेरिका में राइट-विंग एक्सट्रीमिस्ट नेटवर्क के मास्टरमाइंड रॉबर्ट मैथ्यूज एक ट्रेन्ड इंजीनियर हैं।
अलग-अलग विचारधाराओं में यह पैटर्न हमें रेडिकलाइजेशन के पारंपरिक और आर्थिक मॉडल से आगे देखने को मजबूर करता है। इस प्रकार के प्रोफेशनल्स के लिए शायद ‘मकसद‘, ‘आइडियोलॉजी‘ और ‘पावर‘ आकर्षण का केंद्र होता है।
दूसरी तरफ इसे एक अकादमिक फ्रेम के जरिए समझा जा सकता है। पहली थ्योरी, रिलेटिव डेप्रिवेशन की है। इसके अनुसार कोई भी समुदाय या व्यक्ति जरूरी नहीं कि गरीबी के कारण अतिवादी बने। वह अपने आपको साबित करने के लिए भी ऐसा कर सकता है। दूसरे, सामाजिक पहचान की ही थ्योरी बताती है शिकायतों को साथ लेकर चलने वाली पहचान की तलाश में एक प्रोफेशनल पहचान या रैंक के साथ अतिवादी या आतंकी मानसिकता को कैसे छुपाकर रखा जा सकता है।
कैसे निपटा जा सकता है –
व्हाइट – कॉलर आतंकवाद की पारिस्थितिकी को समझने के लिए उन चैनलों की जांच करने की जरूरत है, जिनके जरिए इसे बनाया और बनाए रखा जाता है। ये चैनल एन्क्रिप्टेड डिजिटल स्पेस में मौजूद हैं। इसके चलते काउंटरटेररिज्म रिस्पॉन्स को पारंपरिक फ्रेमवर्क से आगे बढ़ाना होगा।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित अक्षिता सोनवाने के लेख पर आधारित। 13 नवंबर, 2025