स्वच्छ भारत मिशन की कठिन डगर

Afeias
11 Apr 2018
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Date:11-04-18

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स्वच्छ भारत मिशन की शुरुआत के साथ ही सरकार और जनता का पूरा ध्यान शौचालयों की तरफ चला गया। इस कार्यक्रम के चलते 4.9 करोड़ शौचालयों का निर्माण हुआ भी। फिर भी शहरों और गाँवों में कचरे के ढेर में कोई कमी नहीं आई है। अभी भी नदियाँ गंदी हैं। गाय पॉलीथीन खाती रहती हैं। इस गंदगी से ऊपजी स्वास्थ्य समस्याएं भी वैसी ही हैं। यह सब देखकर लगता है कि केवल शौचालयों का निर्माण पर्याप्त नहीं है।

सरकारी आंकड़े कहते हैं कि स्वच्छ भारत मिशन के कारण शौचालय बनाने वाले 2.45 लाख गांवों में से 1.5 लाख को पाइप लाइन से पानी की आपूर्ति की जा रही है। 80 प्रतिशत ग्रामीण जनता को पेयजल की आपूर्ति होने लगी है। लेकिन इन सबके साथ यह भी सत्य है कि मात्र 6.4 प्रतिशत ग्रामीण जनता निर्धारित स्थानों पर कूड़ा फेंकती है।

इन सबके पीछे, भारतीय जनमानस की धारणा एक बहुत बड़ा कारण है। सदियों से लोग यही सोचते आ रहे हैं कि गंदगी साफ करना समाज के नीचे तबके का काम है। अगर हमें स्वच्छ भारत को वाकई सफल बनाना है, तो इसके लिए पश्चिमी देशों से बहुत कुछ सीखा जा सकता है।

  • यूरोपीय देशों के लोगों की धारणा है कि शरीर से निकली गंदगी को साफ करने की जिम्मेदारी स्वयं व्यक्ति की है। इसके लिए किसी अन्य पर आश्रित रहने की उनकी कोई भावना नहीं होती।
  • इंसानों द्वारा की जाने वाली नालों आदि की सफाई के लिए वहाँ बहुत अच्छा मूल्य दिया जाता है। इस काम को वहाँ कभी निकृष्ट नहीं माना गया। उल्टे वहाँ कम समय में धनी बनने का यह एक अच्छा तरीका माना जाता रहा है।
  • 19वीं शताब्दी में लुई पाश्चर जैसे वैज्ञानिकों ने कीटाणुओं से बीमारी के संबंध को ढूंढ लिया था। अतः यूरोप के लोगों ने सफाई के महत्व को जल्दी समझ लिया। सन् 1871 में ब्रिटेन में एक अलग सफाई विभाग की स्थापना की जा चुकी थी।

                         भारतीय आयुर्वेद में दूषित वातावरण को कभी बीमारी से नहीं जोड़ा गया। इसमें तो प्रत्येक रोग कफ, पित्त और वात के असंतुलन से जनित माने जाते हैं।

  • लुई पाश्चर से पहले भी यूरोप में प्रदूषित हवा या तेज बदबू को बुखार का कारण माना जाता था। भारतीयों में ऐसी कोई धारणा नहीं है।

जब तक हम जगह-जगह बने कूड़े के ढेर से आने वाली बदबू को हानिकारक नहीं समझेंगे, तब तक स्वच्छ भारत का लक्ष्य दूर ही दिखाई देता रहेगा। इस धारणा को विकसित करने के लिए जन-जागृति के साथ-साथ कानून के दंड की भी आवश्यकता है। साथ ही हमें स्वच्छता को जाति-व्यवस्था से बाहर निकालकर इसे प्रत्येक व्यक्ति से जोड़ना होगा। तभी यह मिशन जन-कार्यक्रम बन सकेगा।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित दीपांकर गुप्ता के लेख पर आधारित।