विश्व का बदलता परिदृश्य अवैश्वीकरण (De-Gobalisation) और भारत की स्थिति (भाग-एक)
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हाल ही में अमेरिका में विश्व की एक बड़ी कंपनी के मालिक मैक्स टिलरसर को स्टेट सचिव नियुक्त किया गया है। भारत के संदर्भ में अगर हम ऐसा सोचें, तो यह बहुत दूर की बात लगती है। भारत में अभी तक सरकार चलाने के मामलों में व्यावसायिकों को सामान्यतः अलग रखा जाता है। हमारे देश में आम धारणा है कि अगर व्यापारी वर्ग को राष्ट्रीय सरकार से जोड़ लिया जाए, तो वे अपने व्यापार से जुडे़ हितों को ही सर्वोपरि रखेंगे। वे सार्वजनिक हितों को शायद नज़रंदाज कर दें।
हालांकि ग्रेट ब्रिटेन के शासन में व्यापारी वर्ग इतना अधिक सम्मिलित था कि उसे ‘नेशन ऑफ शॉपकीपर्स‘ कहा जाता था। परंतु अपने उपनिवेशों का शासन चलाने में ब्रिटेन ने प्रशासनिक अधिकारियों का सहारा लिया और व्यापारियों को अलग रखा। शायद इसी परंपरा को निभाते हुए हमारी नौकरशाही ने सरकारी कामकाज में व्यापारियों जैसे ‘विदेशियों‘ के दखल को रोकने के लिए हमेशा सावधानी बरती।समय के साथ-साथ वित्त मंत्रालय ने कुछ टैक्नोक्रैट की सहायता लेना शुरू किया। विदेश, रक्षा एवं गृह मंत्रालय फिर भी इन तथाकथित ‘बाहरी‘ लोगों से अछूते ही रहे।
इन सबसे अलग अमेरिका में तो निजी क्षेत्र के लोगों को सरकार का हिस्सा बनाने की परंपरा सी रही है। जॉन एफ कैनेडी ने फोर्ड मोटर कंपनी के प्रमुख को राष्ट्रीय सुरक्षा स्थापित करने में सहायक बनाया। इसके बाद भी वहाँ के प्रशासन में निजी क्षेत्र के लोग आते और जाते रहे। बावजूद इसके टिलरसन की नियुक्ति के दौरान रूस से उनके व्यापारिक संबंधों को लेकर अनेक प्रश्न उठाए गए थे। पिछली दो शताब्दियों से अमेरिका ने मध्यम एवं वरिष्ठ स्तरीय नौकरशाही में व्यावसायिकों को साथ लेकर चलने की नीति रखी है।भारत के एक पूर्व प्रधानमंत्री ने भी नौकरशाही के सुरक्षा घेरे को तोड़ते हुए अरूण सिंह एवं अरूण नेहरू जैसे निजी क्षेत्र के लोगों को रक्षा एवं गृह मंत्रालय का कार्यभार दिया था। ये मात्र अपवाद ही साबित हुए।
विश्व के बदलते परिवेश में भारत को क्या करना चाहिए ?
निजी क्षेत्र के लोगों या स्पष्ट तौर पर कहें तो व्यापारियों को केंद्रीय शासन से जोड़ने से पहले यह देखने की आवश्यकता है कि यह गठजोड़ देश के हित में कितना होगा ? सन् 1990 से शुरू हुए आर्थिक उदारीकरण के दौर से ही राजनीति को व्यापारियों के साथ कदम ताल मिलाकर चलाने के प्रयास निरंतर होते रहे हैं। विदेशी निवेश बढ़ाने, नई तकनीकों की जानकारी और विश्व में नए बाज़ार ढूढ़ने के दबाव ने आर्थिक कूटनीति को बढ़ावा दिया है। हमारे दूतावासों को आगे बढ़कर व्यावसायिक कार्यों से जोड़ने की नीति अपनाई जाने लगी है। कूटनीतिक गतिविधियों में बिज़नेस चैंबर्स को शामिल कर लिया गया है। वर्तमान प्रधानमंत्री इस बात पर काफी जोर देते हैं कि हमारे राजनयिक देश के आर्थिक हितों को साथ लेकर काम करे।
समस्याएं बहुत सी हैं। उधर बीजिंग ने दक्षिण चीन सागर और हिंद महासागर में नए द्वीप और बंदरगाह बना-बनाकर नाक में दम कर रखा है। परंतु हमारी सरकार और व्यापारिक केंद्र मुंबई कभी भी अपनी सीमाओं से आगे बढ़कर कोई ढांचा खड़ा नहीं कर पाया है। इसके दो कारण हैं। पहला, हमारा व्यापारिक समुदाय इस प्रकार के खतरों से दूर रहना चाहता है। दूसरे, उन्हें सरकार का वरदहस्त प्राप्त नहीं होता। इसका उदाहरण मालदीव में हवाई अड्डे के निर्माण संधि में देखने को मिलता है। जब मालदीव ने 2012 में जी एम आर समूह से हवाई अड्डा निर्माण की संधि खत्म करके इसे चीन को सौप दिया, तब हमारी सरकार कुछ नहीं कर पाई।
पिछले दशकों से अलग भारत के सामने अवैश्वीकरण से जुड़ी कुछ नई चुनौतियां मुँह बाए खड़ी हैं। वैश्वीकरण एवं उदारीकरण के प्रति पश्चिमी देशों का रुख एवं चैथी औद्योगिक क्रांति इन चुनौतियों के दो रूप हैं। विश्व के राजनीतिक आर्थिक परिदृश्य में अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप जिस प्रकार की आंधी चला रहे हैं, उसका प्रभाव भारत पर पड़ने से पहले ही हमें सचेत हो जाना होगा। पिछले पच्चीस वर्षों से हमारी सरकारें और व्यापारिक समुदाय यही सोचते रहे हैं कि आर्थिक वैश्वीकरण के पिच पर उन्हें अपने तरीके से खेलने की आज़ादी हासिल है। अब समय बदल गया है। अवैश्वीकरण की यह आंधी कमजोर को उड़ा ले जाएगी।
दूसरी चुनौती के रूप में रोबाटिक्स कृत्रिम बुद्धि और कृत्रिम जीवविज्ञान ऐसी शाखाएं हैं, जो विश्व में एक तरह से चैथी औद्योगिक क्रांति लाने वाली हैं। यह क्रांति बहुत से आर्थिक उपक्रमों को बंद करने का कारण बन सकती है। हमारे देश और हमारी सरकार को विज्ञान केंद्रों का विस्तार करना होगा। अभी तक सरकार विज्ञान के विस्तार, नई तकनीकों के व्यावसायिक प्रयोग और विज्ञान एवं तकनीक से संबंधित अंतरराष्ट्रीय समझौतों पर विज्ञान के कुछ गिने-चुने महारथियों और कुछ वरिष्ठ नौकरशाहों पर ही निर्भर रही है। हमारा व्यापारिक वर्ग इस ओर बहुत उदासीन है। वह नई तकनीकों के इस्तेमाल में बहुत पीछे रहता है। आधुनिक तकनीकों का पूरा दारोमदार बंगलुरू तक ही सीमित है। इससे बात नहीं बनेगी।अब समय है, जब भारत को गंभीरता एवं तत्परता से राजनीति, व्यापार और विज्ञान को साथ लेकर चलना होगा। वर्ना अवैश्वीकरण और तकनीकी रूपांतरण के इस दौर में भारत का कोई अता-पता नहीं चलेगा।
‘द इंडियन एक्सप्रेस‘ में प्रकाशित सी. राजा मोहन के लेख पर आधारित।