यौन अपराधियों का पंजीकरण क्या यौन अपराधों को रोक पाएगा ?

Afeias
01 Mar 2017
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Date:01-03-17

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हाल ही में महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने एक बार फिर से यौन अपराधियों के लिए राष्ट्रीय पंजीकरण नीति बनाए जाने की बात कही है।ऐसी प्रक्रिया अमेरिका, आस्ट्रेलिया, कनाडा और यूनाइटेड किंगडम एवं अन्य देशों में लगभग एक दशक से प्रचलित है।इस तरह के पंजीकरण के बाद पुलिस का काम होता है कि वह समय-समय पर यौन अपराधी के निवास स्थान, कार्यस्थल एवं अन्य गतितिधियों की जानकारी लेती रहे। इतना ही नहीं, इस तरह के कानून के द्वारा यौन अपराधियों को निवास-स्थान चुनने और काम पाने में भी काफी बाधाओं का सामना करना पड़ता है। उन पर इस प्रकार के नियंत्रण का उद्देश्य उनको कानून की पकड़ में रखना होता है। अमेरिका और दक्षिण कोरिया में तो आम जनता को भी यौन अपराधियों के बारे में जानकारी प्राप्त करने का पूरा अधिकार है। इन देशों में कुछ वेबसाइट के जरिए यौन अपराधियों की पूरी जानकारी मिल जाती है। इससे आम जनता को इन अपराधियों के प्रति सतर्क रहने में मदद मिलती है। अब मेनका गांधी भारत में भी यही पद्धति अपनाते हुए इसे आम जनता की पहुंच में रखना चाहती हैं।

  • यौन अपराधों  को कम करने में कितनी मदद मिलेगी ?

अगर अमेरिका का उदाहरण लें, तो इस प्रकार की व्यवस्था वहाँ लगभग 30 वर्षों से चल रही है। लेकिन यौन अपराधों की संख्या में न के बराबर कमी आई है। पंजीकरण से न तो यौन अपराधों में कमी आई और न ही पंजीकृत अपराधियों को पुनः अपराध करने से रोका जा सका। उल्टे इस प्रकार की व्यवस्था को अंजाम देने में अच्छा खासा खर्च हो गया।

दूसरी ओर, एक बार यौन अपराध कर चुके व्यक्ति को इसके बहुत से नकारात्मक परिणाम भुगतने पड़े। उन्हें न तो अच्छा रोज़गार मिल सका और न ही रहने की ठीक जगह। समय-समय पर आम जनता से उन्हें धमकियां, यातनाएं मिलीं। हिंसा का भी सामना करना पड़ा। उनके एक बार किए गए अपराध का भुगतान उन्हें पूरी जिंदगी करना पड़ा।

मेनका गांधी तो यौन अपराधियों के पंजीकरण में नाबालिग अपराधियों एवं अंडरट्रायल को भी जोड़ने की मांग कर रही हैं। यहाँ इस बात पर गौर किया जाना चाहिए कि अंडरट्रायल अपराधी को इस दायरे में लाना उसके नागरिक अधिकारों का उल्लंघन करना होगा। दूसरे, नाबालिगों का पंजीकरण कराने से हमारे संधिधान में दिए गए बाल-अधिकारों के साथ-साथ यू एन कन्वेंशन फॉर द राइट्स ऑफ द चाइल्ड (UNCRC) के आदर्शों का भी हनन होगा।

  • एक नज़र  भारत  के  यौन  अपराधों की  प्रकृति  पर

यौन अपराधों से बाल सुरक्षा अधिनियम 2012, अवयस्कों से या दो अवयस्कों के बीच यौन संबंधों को अपराध की श्रेणी में रखता है। अवयस्कों को आपसी सहमति से यौन-संबंध बनाने पर भी कम-से-कम सात वर्ष की कैद हो सकती है। इस अधिनियम के अंतर्गत अभी तक पंजीकृत मामलों पर अगर एक नज़र डालें, तो पता चलता है कि अधिकतर मामलों में अवयस्कों के अभिभावकों ने अधिनियम की आड़ में अपने बच्चों के प्रेम-संबंधों के कारण उन्हें दोषी ठहराया है।

अगर हम आपसी प्रेम संबंधों के कारण दोषी बनाए गए अवयस्कों को यौन अपराधियों की श्रेणी में पंजीकृत करने लगेंगे, तो उनके जीवन पर गंभीर असर पड़ेगा ।

  • यौन अपराधों के लिए वर्तमान व्यवस्था को सुधारना जरूरी है

यौन अपराध की घटनाओं को रोकने में हमारी संस्थागत नाकामी को सबसे पहले दूर किया जाना चाहिए। इस प्रकार के अपराध में अपराध सिद्ध होने का प्रतिशत मात्र 29 है। इससे भी खराब स्थिति बलात्कार के अनिर्णित मामलों की है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार 2015 में बलात्कार के 86% मामले अधर में लटके हुए थे। बाल कानून केंद्र के 2016 के एक अध्ययन के अनुसार बाल न्यायालयों में दर्ज मुकदमों में से 67.5% मामलो में मुजरिमों के खिलाफ गवाही ही नहीं ली गई थी। दिल्ली में बाल यौन शोषण में केवल 16% दोषियों को ही अपराधी सिद्ध किया जा सका है।

अपराध सिद्ध होने की इस खराब गति और अधर में लटके बलात्कार के इतने मामलों के साथ इनका पंजीकरण कैसे संभव हो सकेगा ? हाल ही में दिल्ली में पकड़े गए एक यौन अपराधी का यह कबूल करना कि वह लगभग दस वर्षों से कई सौ लड़कियों को अपनी हवस का शिकार बनाता रहा है, हमारी जांच-पड़ताल ऐजंसियों के कामकाज पर बड़ा प्रश्नचिन्ह लगाता है। अगर हम यह मानकर चलें कि इन दस वर्षों में उस अपराधी के शिकार कुछ लोगों ने ही शिकायत कराई हो, तो उन शिकायतों पर आखि़र कोई कार्यवाही क्यों नहीं की गई ? ऐसे अपराधी को पकड़ने में आखि़र दस वर्ष क्यों लगे ?इतनी कमजोर जांच-पड़ताल और हमारी संस्थागत मशीनरी की पृष्ठभूमि में हम यौन अपराधियों के पंजीकरण से उन्हें नियंत्रित करने की कल्पना नहीं कर सकते। हमारे तंत्र में बहुत सी दरारें हैं, जिनका भरा जाना बेहद जरूरी है।

हिंदू में प्रकाशित श्रुति रामकृष्णन के लेख पर आधारित।