महिला उद्यमिता को सशक्त करने की ओर कदम

Afeias
13 Mar 2019
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Date:13-03-19

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किसी भी देश की अर्थव्यवस्था में महिलाओं की अहम् भूमिका होती है। हमारा देश अभी इस मामले में पीछे है, और यहाँ महज 27 प्रतिशत महिलाएं ही कामकाजी हैं। अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ाना, देश में लंबे समय से चली आ रही प्राथमिकता है। धारणीय विकास के लक्ष्यों को प्राप्त करने की दिशा में भी यह एक आवश्यक कदम होना चाहिए।

हाल ही के वर्षों में, ग्रामीण क्षेत्र की महिलाओं के लिए स्वउद्यमिता का तेजी से विकास हुआ है। अपने अतिरिक्त समय में वे छोटे-छोटे व्यवसायों के माध्यम से आय प्राप्त करने में सक्षम हो रही हैं। इसको बढ़ावा देने के लिए अनेक कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने ”स्टार्ट एण्ड इम्प्रूव योर बिजनेस कार्यक्रम” और हमारी सरकार की ओर से ”ट्रेड रिलेटेड इन्टर प्रेन्योरशिप असिस्टेंस एण्ड डेवलपमेंट कार्यक्रम” चलाया जा रहा है। अनेक प्रकार की सहायता के बावजूद भारत की कुल उद्यमिता में महिलाओं की भागीदारी मात्र 14 प्रतिशत है। आखिर महिलाओं के पिछड़ेपन के क्या कारण हैं?

  • ग्रामीण भारत की सामाजिक संरचना पितृसत्तात्मक है। किसी भी प्रकार के उद्यम में संलग्न होने से पहले उन्हें परिवार की बंदिशों से बाहर निकलना ही मुश्किल होता है।
  • सरकारी कार्यक्रमों, उद्यमिता की शुरुआत के लिए अवसरों तथा ऋण आदि की सुविधा के बारे में महिलाओं को जानकारी ही नहीं मिल पाती है। इन महिलाओं में प्रबंधन- कौशल की भी कमी होती है।
  • अगर जानकारी प्राप्त भी हो जाए, तो ग्रामीण महिलाओं को सही मार्गदर्शन नहीं मिल पाता।

“दिशा प्रोजेक्ट” एक ऐसा कार्यक्रम है, जिसके माध्यम से बिज सखी तैयार की जा रही हैं। ये सखियां ग्रामीण समुदाय से ही होती हैं, और ये उद्यमिता की शुरुआत के लिए इच्छुक महिलाओं का दिशा-निर्देशन करती हैं।

  • महिलाओं को प्रशिक्षण मिलने के बाद वित्त की व्यवस्था करना एक मुश्किल काम होता है। ऐसे में, ये महिलाएं अपनी जमा-पूंजी के अलावा पारिवारिक सदस्यों से ही उधार लेती हैं।

इस मुश्किल से निकलने में बिज सखियां ही सहयोग करती हैं। बैंक से ऋण प्राप्त करवाने और विभिन्न सरकारी वित्तीय सहयोग योजनाओं की जानकारी देकर नव-उद्यमी महिलाओं की मदद की जाती है। उन्हें बिजनेस मॉडल, बाजार की मांग तथा संपर्क-साधन आदि के बारे में बताया जाता है।

बिज़ सखियां, ग्रामीण महिलाओं की भावनात्मक व मनोवैज्ञानिक सहायता भी करती हैं। इससे ग्रामीण महिलाओं में आगे बढ़ने के प्रति दृढ़ता और आत्म-विश्वास जागृत होता जा रहा है।

ग्रामीण महिलाओं को छोटे व्यवसायियों के साथ मिलकर काम करने का भी मौका दिया जा रहा है। इससे उनकी संवाद क्षमता बढ़ती है, अनुभव मिलता है, और प्रबंधन-कौशल भी जागृत होता है।

भारत जैसे देश की अधिकांश जनता अभी भी ग्रामों में निवास करती है। गांवों में कृषि ही अभी तक आजीविका का मुख्य साधन रहा है। अगर इन क्षेत्रों की महिलाओं को स्व-उद्यमी बनाकर खड़ा किया जा सके, तो उनके सशक्तिकरण के साथ-साथ कृषि संकट से भी कुछ राहत मिल सकेगी। आय के एक से अधिक स्रोत होने से ग्रामीण जीवन सुगम हो सकेगा और उसका विकास भी अवश्य हो सकेगा।

‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित क्लीमेंट शौवेट के लेख पर आधारित। 21 फरवरी 2019

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