प्लास्टिक कचरा प्रबंधन की खामियां
Date:06-07-20 To Download Click Here.
भारत में पर्यावरण से जुड़े अधिकांश कानून प्रशासन के शीर्ष से नीचे की ओर लागू किए जाते हैं। इससे कानून को धरातलीय वास्तविकता से बिना जोड़े ही निर्मित और लागू कर दिया जाता है। कार्यान्वयन की विफलता इसी दोषपूर्ण प्रक्रिया का परिणाम है। वन , पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा हाल ही में प्लास्टिक कचरे पर दिशानिर्देश के लिए तैयार किया गया मसौदा , सरकार के इस दोषपूर्ण रवैये का प्रत्यक्ष प्रमाण है।
एक्सटेंडेड प्रोड्यूसर रेस्पॉन्सिबिलिटी (ईपीआर) एक ऐसा नियमन है , जिस पर एक दशक पहले 2011 में प्लास्टिक (मैनेजमेंट एण्ड हैण्डलिंग) कानून बनाया गया था। इस कानून में उत्पादकों के आर्थिक सहयोग से स्थानीय निकायों को वेस्ट कलैक्शन सेंटर तैयार करने थे। कानून में बहुत से दोष थे , और पाँच वर्षों में ही यह ध्वस्त हो गया। इस कानून को 2016 के प्लास्टिक वेस्ट मैंनेजमेंट नियम से प्रतिस्थापित किया गया। इस कानून में कंपनियों को ढ़ाई वर्ष के भीतर ही अपने साधनों से पूरा कचरा इकट्ठा करना था। कानून के चार वर्ष बाद भी इस दिशा में कोई विशेष काम नहीं किया गया है। इसके कुछ कारण हैं –
- कानून में भारी अस्पष्टता है। कंपनियों को कचरा एकत्र करने का ढांचा ठीक से उपलब्ध नहीं कराया गया। कुछ कंपनियों ने तीसरी पार्टी पर यह भार डाल दिया। लेकिन म्यूनिसिपल और उनके जनसंपर्क अधिकारियों के बीच तालमेल नहीं बैठ पाया , और यह विफल हो गया।
- नियम-कानूनों का भार बहुत ज्यादा था। कई राज्यों में व्यापार करने वाली कंपनियों को अलग-अलग राज्यों के ई पी आर का पालन करना पड़ता था , और उसके लिए पंजीकरण भी कराना पड़ता था। इससे कंपनियों को बेचे गए हर किलोग्राम प्लास्टिक का रिकार्ड रखकर उसे वापस इकट्ठा करना पड़ता था।
- इन सभी कामों के लिए ढ़ाई वर्ष का समय बहुत कम था।
इन मामलों में मंत्रालय की पहुँच सही नहीं रही। हर एक किलोग्राम प्लास्टिक का रिकार्ड रखने के लिए इतने सर्टिफिकेट और थर्ड पाटी ऑडिट करना व्यावहारिक नहीं था। यह सब देखते हुए मसौदे में प्ला्स्टिक कचरा प्रबंधन के विश्वव्यापी अनेक मॉडल का विकल्प खुला रखा गया है। अत: इसकी सफलता पर संदेह है।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित चंद्र भूषण के लेख पर आधारित 27 जून , 2020