प्रवास में छिपी आर्थिक उन्नति

Afeias
27 Jul 2020
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Date:27-07-20

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भारत में गरीबी हटाओ को लेकर न जाने कितने अभियान चले , कितनी नीतियां और योजनाएं बनाई गईं। इस दिशा में मनरेगा कार्यक्रम काफी जोर-शोर से चलाया जा रहा है। परन्तु कोविड-19 के चलते होने वाले मजदूरों के अपने गाँव पलायन ने कुछ और ही आकड़े प्रस्तुत किए हैं। विडंबना यह है कि इस लॉकडाउन ने प्रवासी मजदूरों के दम पर चलने वाली प्रगति और घटती गरीबी के सारे आकड़ों पर पानी फेर दिया है।

प्रवासी श्रमिक डेटा पर एक नजर

जनगणना के डेटा से पता चलता है कि 2001 में 3 करोड़ श्रमिकों का पलायन , 2011 में बढ़कर 4.1 करोड़ हो गया था। यही वह समय था , जब भारत का सकल घरेलू उत्पाद बढ़कर 8% पर पहुँच गया था और गरीबी में तेजी से कमी आई थी। एक प्रवासी श्रमिक ने परिवार में पीछे छोड़े चार अन्‍य लोगों के जीवन स्तर को ऊँचा उठाया। इस प्रकार कुल 16.4 करोड़ लोग लाभान्वित हुए।

अगर प्रवास में इसी दर से बढ़ोतरी का अनुमान लगाया जाए , तो 2010 के दशक में 2020 तक यह संख्या 5.6 करोड़ पहुँच चुकी होगी। इनके माध्यम से लाभान्वित लोगों की संख्या 22.4 करोड़ होने का अनुमान है। 2011 की जनगणना से पता चलता है कि 6.5 करोड़ परिवारों ने पलायन किया था , जिसके अब 10 करोड़ हो जाने का अनुमान है।

इसके अलावा अनेक श्रमिक खाड़ी देशों में पलायन कर गए। इनका कोई रिकॉर्ड जनगणना में नहीं मिलता। अनुमान है कि लाखों श्रमिकों ने विदेश पलायन किया है। इनके व्दारा आने वाली विदेशी मुद्रा से इनकी संख्या का कुछ अनुमान लगाया जा सकता है।

मनरेगा और प्रवास से बदलती आर्थिक स्थिति की तुलना –

2020-21 में 3.7 करोड़ परिवारों को मनरेगा से लाभ प्राप्त होगा। संघीय सरकार ने गत वर्ष इस योजना पर साठ हजार करोड़ खर्च किए हैं। चालू वित्ता वर्ष में इस पर एक लाख करोड़ खर्च करने की योजना है। इसकी तुलना में प्रवास से श्रमिकों को अधिक आर्थिक लाभ हुआ है।

मनरेगा की शुरूआत का मुख्य लक्ष्य , गाँव से पलायन को रोकना था। परन्तु मनरेगा में एक तो 100 दिन के काम की ही गारंटी होती है। उस पर भी अनेक राज्यों  में आधा लक्ष्य  ही पूरा हो पाता है।

कल्याणकारी योजनाओं का यथार्थ –

मनरेगा या सार्वजनिक वितरण प्रणाली जैसे कल्याणकारी कार्यक्रमों से श्रमिकों की सरकार पर निर्भरता ही बढ़ती है। जबकि एक प्रवासी श्रमिक अधिक आत्मनिर्भर होता है। उदाहरण के लिए , बिहार की कोई महिला श्रमिक अगर पटना जाकर काम करे , तो वह मनरेगा से दोगुना कमा सकती है। इसी प्रकार पुरूष श्रमिक की आमदनी में भी बहुत अंतर आता है।

प्रवास के लाभ –

  1. प्रवासी श्रमिकों और उनके परिवार के जीवन स्तर का ऊपर उठना।
  1. पंजाब के अनेक क्षेत्रों में पहुंचे प्रवासी श्रमिकों के ज्ञान और अनुभव से फसलों को लाभ।
  1. उनके अतिरिक्त लाभ से गाँव के परिवारों के लिए नए अवसरों का खुलना।
  1. गंतव्य स्थान पर श्रमिकों की पूर्ति होने से उत्पादकता में वृध्दि।

प्रवासियों की कोई नहीं सोचता , क्यों ?

देश की सरकार वोट बैंक की राजनीति पर चलती है। दुर्भाग्यवश , इनमें प्रवासी श्रमिक कहीं नहीं ठहरते , क्योंकि अक्सर तो वोटर लिस्ट में इनका नाम ही नहीं होगा। पाँच राज्यों के सर्वेक्षण से पता चलता है कि पिछले आम चुनावों में 60% प्रवासी और 83% दूरगामी प्रवासी मतदान नहीं कर पाए थे। यही कारण है कि कोई भी राजनीतिक दल इनका संज्ञान नहीं लेता। ये प्रवासी मजदूर शहरों की मतदाता सूची में पंजीकृत होने की जद्दोजहद में नहीं पड़ते , और सरकार की नजरों से अनदेखे ही रह जाते हैं।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारे देश की अर्थव्यवस्था प्रवासियों पर भी आधारित है। गुजरात में रह चुके उत्तर प्रदेश के मजदूरों ने ही अप्रत्यक्ष रूप से वहाँ मोदी के “सबका विकास’’ नारे को लोकप्रिय बनाया , जिसने अंतत: उन्हें जीतने में मदद की थी। इनको नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित नीरज कौशल के लेख पर आधारित। 9 जुलाई, 2020 

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