नदी-जल विवादों के लिए स्थायी ट्रिब्यूनल
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लगातार बढ़ते जा रहे नदी-जल-विवादों को देखते हुए केन्द्रीय कैबिनेट ने एक स्थायी ट्रिब्यूनल बनाने का सुझाव दिया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि ऐसा स्थायी ट्रिब्यूनल अभी तक काम कर रहे अस्थायी ट्रिब्यूनल्स की तुलना में ज्यादा सक्षम होगा। इसके होने से नदी जल विवादों को जल्दी सुलझाया जा सकेगा।
स्थायी ट्रिब्यूनल की स्थापना का एक अन्य सकारात्मक पक्ष यह भी है कि इसके अधीन एक विशेषज्ञ एजेंसी काम करेगी, जो बारिश, सिंचाई और भूजल-स्तर से संबंधित आंकडे इकट्ठा करेगी। होता यह है कि दो अलग-अलग राज्य अपने-अपने आंकड़ों को बड़े दावे कि साथ प्रस्तुत करते हैं, और उस पर ही अड़े रहते हैं। अब, जब इन राज्यों से अलग कोई एजेंसी आंकड़े इकट्ठे करेगी, तो सही न्याय हो सकेगा।
- किन्तु ट्रिब्यूनल से जुड़े कुछ भ्रम भी व्याप्त हैं , जैसे –
- इस ट्रिब्यूनल की कुछ बेंच होंगी , जो नदी-जल-विवाद पैदा होने पर उस मामले को देखेंगी। यह स्पष्ट नहीं है कि ये बेंच वर्तमान ट्रिब्यूनल की तरह ही काम करेंगी या किसी और तरह से काम करेंगी ?
- दूसरे, राज्यों के बीच में नदी-जल-विवादों की संख्या को देखते हुए यह कहना मुश्किल लगता है कि उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत न्यायधीश के नेतृत्व में चलने वाला एकमात्र ट्रिब्यूनल इतने मामलों को तीन वर्ष की सीमित अवधि में सुलझा पाएगा।
- तीसरे, ट्रिब्यूनल के फैसले को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी जा सकेगी। इसी माह उच्चतम न्यायालय ने ऐसे ही एक नदी-जल-विवाद पर याचिका की सुनवाई के दौरान यह स्पष्ट किया था कि उसे संविधान के अनुच्छेद 136 के अंतर्गत ऐसे विवाद पर सुनवाई का अनियंत्रित अधिकार है। यह भी कि भले ही किसी नदी-जल-विवाद की प्राथमिक शिकायत न्यायालय में नहीं की जा सकती है, परंतु ट्रिब्यूनल के निर्णय के विरोध में दायर किसी याचिका की सुनवाई से उसे कोई नहीं रोक सकता।
इससे यही लगता है कि स्थायी ट्रिब्यूनल का प्रस्ताव भ्रांतिजनक है। साथ ही विवाद सुलझाने के लिए किसी विशेषज्ञ समिति का विचार भी निरर्थक सा ही लगता है।
नदी-जल विवाद का मामला केवल नदी तट पर अधिकार से संबंधित नहीं है। इस विवाद में उलझे राज्यों के किसानों के भविष्य भी इसमें दांव पर लगे रहते हैं। कुछ भी हो, मगर नदी-जल-विवादों का समाधान नेताओं की दलीलों पर नहीं बल्कि उस क्षेत्र में अकाल और बाढ़ की मार झेल रही जनता की जरूरतों के अनुसार किया जाना चाहिए।
‘द हिंदू‘ के संपादकीय पर आधारित।