जैव विविधता के साथ खिलवाड़

Afeias
27 Mar 2020
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Date:27-03-20

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मानव जीवन में जैव विविधता का बहुत महत्व है। यही वह तत्व है, जो धरती को समृद्ध और जीवन योग्य बनाता है। मानवीय गतिविधियों ने इसके अस्तित्व को संकट में डाल दिया है। अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर जारी की जाने वाली रिपोर्ट बताती हैं कि किस प्रकार पिछले एक दशक में भारत के पशु-पक्षियों की अनेक प्रजातियां लुप्तप्राय श्रेणी में जुड़ चुकी हैं। भारत में इस समय लगभग नौ सौ प्रजातियां ऐसी हैं, जो खतरे में हैं। विश्व धरोहर को गवाने वाले दुनिया भर के देशों की सूची में भारत का स्थान सातवां है।

  • कश्मीर में पाए जाने वाले हांगलू की संख्या मात्र दो सौ रह गई है।

बारहसिंगा तथा हिरण मध्य भारत के कुछ वनों तक सीमित रह गया है।

इसी प्रकार एशियाई शेर केवल गुजरात के गिर वन तक सीमित रह गया है।

इनके अलावा भी अनेक प्रजातियां हैं, जो लुप्त होने के कगार पर हैं।

  • भारत में समुद्री जीवों में बीस हजार से ज्यादा प्रजातियां पाई जाती हैं। इनमें से 1200 प्रजातियों को संकटग्रस्त और संरक्षित सूची में डालने का आग्रह है।

 उत्तराखंड की नदियों में मिलने वाली अनेक मछलियों की ढाई सौ प्रजातियों का अस्तित्व खतरे में है।

  • प्रदूषण के दुष्प्रभाव से पक्षियों की अनेक प्रजातियां या तो लुप्त हो चुकी हैं, या लुप्त होने के कगार पर हैं या फिर पलायन कर रही हैं।

ठंड के मौसम में प्रवासी पक्षी हजारों किलोमीटर दूर से दिल्ली सहित उत्तरी भारत के अनेक हिस्सों में आते रहे हैं। परन्तु बढ़ते प्रदूषण के कारण इनमें दिल्ली से पलायन की प्रवृत्ति देखी जा रही है।

मधुमक्खियां, सिल्क वर्ग और तितलियों को भी प्रदूषण से बहुत नुकसान पहुंच रहा है।

कारण

  • पशुओं का अवैध शिकार, पेड़ों की कटाई, वन भूमि पर कब्जा, रिहायशी इलाकों का वनों तक प्रसार तथा अवैध खनन आदि वन्य जीवों की कमी का कारण बन रहे हैं।
  • नदियों में रेत का अवैध खनन, लगातार निर्माण कार्य, भू-स्खलन और गलत तरीके से शिकार के कारण मछलियों के भोजन स्रोत उनके छिपने और प्रजनन की परिस्थितियां विपरीत होती जा रही हैं।

भू-स्खलन के कारण नदियों की गाद बहुत बढ़ गई है। जल-स्रोतों में जमा होते कचरे और प्लास्टिक के कारण अनेक प्रजातियां खत्म होती जा रही हैं।

  • पर्यावरण वैज्ञानिकों का कहना है कि चूंकि पक्षी आसमान में ज्यादा समय तक रहते हैं, और ज्यादा तेज सांस लेते हैं, इसलिए उन पर प्रदूषण का दुष्प्रभाव ज्यादा पड़ता है। वायु में घुले प्रदूषित कणों के उनके शरीर में प्रवेश करने की संभावना बहुत ज्यादा रहती है।
  • हवा में घुली सल्फर डाइ ऑक्साइड, नाइट्रोजन और ओजोन की अधिक मात्रा के चलते पेड़-पौधों की पत्तियां जल्दी टूट रही हैं।

कानून एवं अन्य प्रयास

  • वन्य जीवों को विलुप्त होने से बचाने के लिए पहला कानून 1872 में ‘वाइल्ड एलीफेंट प्रोटेक्शन एक्ट’ बनाया गया था।
  • 1927 में ‘भारतीय वन अधिनियम’ बनाकर वन्य जीवों के शिकार और वनों की अवैध कटाई को अपराध की श्रेणी में रखते हुए दंड का प्रावधान किया गया। 1956 में वह कानून एक बार फिर से पारित किया गया।
  • 1983 में ‘राष्ट्रीय वन्य जीव योजना’ के तहत राष्ट्रीय उद्यान और वन्य प्राणी अभ्यारण्य बनाए गए।

हालांकि राष्ट्रीय उद्यान का काम 1905 में ही प्रारंभ हो गया था, परन्तु इनकी संख्या 1983 के बाद ही तेजी से बढ़ी है। बाघ अभ्यारण्य भी स्थापित किए गए हैं।

  • स्वतंत्रता के पश्चात् देश में वन्य जीवों के संरक्षण के लिए कई परियोजनाएं चलाई गईं। इनमें ‘प्रोजेक्ट टाइगर, गिर सिंह परियोजना, कछुआ, गेंडा और हाथी संरक्षण परियोजना, गिद्ध संरक्षण परियोजना आदि शामिल हैं।

विडंबना यह है कि इस तरह के अनेक प्रयासों के बाद भी शेर, बाघ, हाथी, गेंडा आदि अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। पर्यावरण वैज्ञानिकों का मानना है कि प्रदूषण और स्मॉग भरे वातावरण में कीड़े-मकोड़े सुस्त पड़ जाते हैं। अगर इस ओर जल्दी ध्यान नहीं दिया गया, तो आने वाले समय में स्थितियां इतनी बिगड़ सकती हैं कि जीव-जंतुओं की अधिकांश प्रजातियां विलुप्त हो जाएंगी।

समाचार पत्र व अन्य स्रोतों पर आधारित।

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