जल संकट के लिए दूरदर्शिता की आवश्यकता
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कावेरी नदी-जल विवाद ने नदियों के विवाद के माध्यम से भारत में बढ़ते जा रहे जल संकट पर फिर से सबका ध्यान आकर्षित किया है। आंकड़े बताते हैं कि विश्व में से सत्रह प्रतिशत जनसंख्या भारत में रहती है, जबकि भारत के पास जल-स्त्रोत मात्र चार प्रतिशत है।
वर्तमान में उपलब्ध जल का 84 प्रतिशत भाग सिंचाई में लग जाता है। ब्राजील, चीन और अमेरीका की तुलना में भारत की फसलें चार गुना अधिक पानी लेती हैं।भूजल के लगातार दोहन से जलस्तर बहुत गिर गया है। केन्द्रीय भूजल बोर्ड ने बताया है कि 62.2 प्रतिशत ब्लॉक, मंडल वगैरह के साथ-साथ पंजाब, राजस्थान, दिल्ली आदि राज्यों में भूजल का जबर्दस्त दोहन किया जा रहा है, और अगर यही स्थिति बनी रही, तो अगले दस सालों में भूजल ही समाप्त हो जाएगा।
जल संकट से बचने के लिए सुनियोजित प्रबंधन की आवश्यकता होगी। इसके लिए कुछ निम्न उपाय हो सकते हैं –
- भूजल उपयोग में नियमितता बरतने की बहुत आवश्यकता है। इसके लिए मांग और पूर्ति के बीच तादात्म्य बैठाना तथा कृषि क्षेत्र में पानी की बढ़ती हुई आवश्यकता को पूरा करना प्रमुख हैं। जल की अधिकता वाले क्षेत्र में किसानों की भागीदारी से भूजल का प्रबंधन करना होगा।
- जल संकट से ग्रस्त क्षेत्रों में जलस्त्रोतों की बहाली, उनके कायाकल्प एवं नवीनीकरण को प्राथमिकता देनी होगी। भू-मैपिंग के जरिए गाँवों एवं उसके आसपास के क्षेत्रों में जलस्त्रोतों की खोज करनी होगी। ये जलस्त्रोत जल भंडारण के काम आने के साथ-साथ वर्षा के दिनों में अतिरिक्त जल को भूमि के अंदर पहुँचाने का भी काम करेंगे।
- कृषि एवं अन्य उपयोग के लिए पावर फीडर्स को पृथक करके एवं उनकी अलग-अलग कीमतें तय करके भूजल दोहन में नियमितता लाई जा सकती है। साथ ही सौर ऊर्जा आधारित पम्प के प्रयोग को बढ़ाने की बहुत आवश्यकता है।
- उत्तरप्रदेश की तराई, महाराष्ट्र में बजादस, हरियाणा में अरावली एवं मृद, दलदल, बाढ़ मैदानों एवं वैटलैण्ड्स जैसे भूजल पुनर्भरण क्षेत्रों को बचाना बहुत जरूरी है। इन क्षेत्रों को पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्र घोषित किया जाना चाहिए।
- हमें अपनी सिंचाई प्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन की भी जरूरत है। ड्रिप और छिड़काव (sprinkler) वाली ऐसी तकनीकी का प्रयोग बढ़ाना होगा, जो पानी का संयमित उपयोग करे। पानी को बचाने के लिए बेड प्लांटिंग, सबसर्फेस सिंचाई एवं सूक्ष्म-कृषि (precision farming) को अपनाना होगा। कृषकों को दाल, रागी एवं जौ जैसी कम जल अवशोषित करने वाली फसलों की अधिक पैदावार करनी होगी।
हाल ही में प्रधानमंत्री के साथ हुए राज्यों के मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में उम्मीद की झलक देखने को मिली है। राजस्थान में मुख्यमंत्री जल स्वावलम्बन अभियान के अंतर्गत उपलब्ध स्त्रोतों के अभिसरण पर कार्यक्रम चलाया जा रहा है। साथ ही मनरेगा एवं राज्य की नीतियों के द्वाराप्रत्येक जल संरचना की विस्तृत मैपिंग एवं जांच क जरिए उन्हें पुनर्जीवित करने का काम किया जा रहा है। इसी प्रकार झारखंड में ‘मेरा गाँव मेरी योजना’ के द्वारा जलस्त्रोतों के संरक्षण का कार्यक्रम प्रारंभ किया गया है।
आंध्रप्रदेश में तो पिछले दो वर्षों में 55,000 फार्म तालाबों को विकसित किया गया है। मनरेगा के द्वारा लगभग 10 करोड़ हैक्टेयर भूमि की सिंचाई को भू टेग किया गया। मध्यप्रदेश सरकार ने नहर के छोर के किसानों को पहले पानी देने की नीति बनाकर जल का सही बंटवारा किया है। महाराष्ट्र अपने किसानों को कम जल अवशोषित करने वाली फसलें लगाने को बढ़ावा दे रहा है। गुजरात में चैकडैम की मदद से समस्त राज्य को सूखे से बचाया जा सका है।
नीति आयोग ने भी जल प्रबंधन के लिए राज्यों के जल स्त्रोतों के लिए नीति बनाई है। इसके साथ भारत को जल पुनर्चक्रण एवं पुनः उपयोग पर भी काम करना होगा। तटीय क्षेत्रों में पानी के खारेपन को दूर करने की तकनीकों को लाना होगा।जल प्रबंधन में सिंगापुर से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। वहाँ अपशिष्ट जल एवं ड्रेनेज जल को अलग-अलग इकट्ठा करने के बाद उनका पुनर्चक्रण करके उसे शहरी जल वितरण के काम में लिया जाता है। वहाँ जल की खपत के अनुसार जल-प्रभार लगाया जाता है। इससे पानी की खपत में बहुत कमी आई है।जल प्रबंधन एवं शासन द्वारा ही अब भारत का भविष्य निश्चित होना तय है। इसके लिए जल संचय, जल सिंचन एवं जल संरक्षण की त्रिपक्षीय रणनीति अपनानी होगी।
‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया में अमिताभ कांत के लेख पर आधारित’