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घरेलू स्तर पर विज्ञान-तकनीक का बेहतर उपयोग
Date:21-04-20 To Download Click Here.
कोरोना वायरस के ताडंव से निपटने के बाद सभी देशों की अर्थव्यवस्थाओं को सुधारने के उपाय ढूंढे जाएंगे। इस परिप्रेक्ष्य में भारत के पास भी ऐसे अवसर हैं, जब वह विज्ञान और तकनीक को आधार बनाकर, एक सम्पन्न राष्ट्र के रूप में स्वयं को स्थापित कर सकता है।
ग्लोबल सप्लाई चेन के अवरोधों से स्वयं को बचाने के साथ ही हमें बड़े पैमाने के आयात प्रावधान पर ध्यान देना चाहिए, जिससे सूक्ष्म एवं लघु और मझोले उद्यमों की रीढ़ सुदृढ़ हो सके। इसके लिए समय पर ऋण की उपलब्धता, व्यापार की सुगमता एवं नई तकनीकों के इस्तेमाल को लेकर महत्वपूर्ण सुधार करने होंगे।
अर्थव्यवस्था में उत्थान हेतु विनिर्माण क्षमता को केवल मांग तक सीमित न रखा जाए। कंपनियों को अपने पांच ऐसे वैश्विक बाजारों में फैलाने की राह दी जाए, जिससे निर्यात को खासा बढ़ावा मिल सके। नीति आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष अरविंद पन्गढ़िया ने भी निर्यात बाजार में भारत की भागीदारी 4-5 प्रतिशत तक बढ़ाने पर जोर दिया है। 5 प्रतिशत हिस्सेदार का अर्थ भारत के वर्तमान सकल घरेलू उत्पाद के 25 प्रतिशत से थोड़ा अधिक होगा।
अर्थव्यवस्था के ऐसे स्तर पर पहुंचने के लिए भारत को वैज्ञानिक इंजीनियरिंग और सॉफ्टवेयर कौशल के अनुभव का उपयोग करना चाहिए। सन् 2000 के वाय 2के बग या मिलेनियम बग के दौरान समस्या को समझने, उसका समाधान ढूंढने तथा इसके समाधान के लिए लोगों को तुरंत प्रशिक्षित करने के बाद भारत एक ग्लोबल सॉफ्टवेयर हब की तरह उभर चुका है। भारत के पास अब बायो-मेडिकल क्षेत्र में अपने अन्वेषण, उच्च-स्तर और वैश्विक मापदंड पर खरा उतरने की क्षमता को दिखाने का अवसर है। हमारे पास दुनिया की सबसे बड़ी वैज्ञानिक शक्तियों के बराबर ज्ञान और कौशल का आधार है। बस, हमारे पास स्वयं को एक विज्ञान और तकनीक का पावर हाउस बना पाने का आत्मविश्वास नहीं है।
सर्वप्रथम, हमें अपने वैज्ञानिकों को अपनी बौद्धिक संपदा को विकसित करके उसे बेचने के अवसर देने होंगे। इस अभियान में वैज्ञानिक उद्यमिता बहुत अधिक मायने रखती है। इसका उदाहरण हमें कोविड-19 से निपटने में पूना की मायलेब के प्रयासों में मिलता है कि कैसे उसने छः सप्ताह के भीतर इसकी जांच के लिए एक अत्याधुनिक सस्ती और स्वदेशी किट तैयार कर ली। इसी प्रकार मैसूर के स्केनरे टैक्नॉलॉजी तथा सिंजिन आदि शोध संस्थान हैं, जो झंडे गाड़ रहे हैं।
हमारे स्टार्टअप के पास सृजनात्मक सोच रखने और विश्वस्तरीय बायो मेडिकल उत्पाद तैयार करने की उत्तम तकनीकें हैं। इनके लिए निवेशक नहीं मिल पाते हैं। जो स्टार्टअप व्यवसायीकरण की ओर थोड़ा-बहुत बढ़ भी जाते हैं, तो उन्हें अपने ही देश में इसे अपनाने वाले नहीं मिलते। इस कारण हमारे उभरते वैज्ञानिकों को अपने को स्थापित करने के लिए विदेशों से मदद लेनी पड़ती है। अगर हम अमेरिका के फूड एण्ड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन या यूरोपीयन यूनियन के सीई मार्क को ही गुणवत्ता का पैमाना मानते रहे, तो अपने विज्ञान-तकनीक आधारित उद्योगों को कभी पनपा नहीं सकेंगे।
दूसरे, हमें ‘मेक इन इंडिया, इनोवेट इन इंडिया’ और ‘बाय इन इंडिया’ जैसे अभियानों की गति को तेज करने वाली नीतियां चाहिए। 1990 तक हमारे दवा उद्योग के पास एंटीबायोटिक्स और अन्य दवाएं बनाने के समस्त साधन थे। धीरे-धीरे हम कच्चे माल के लिए चीन पर निर्भर होते गए, क्योंकि भारतीय दवा निर्माता कंपनियों को अपनी सरकार से वे लाभ नहीं मिल पाए, जो चीन की कंपनियों को वहां की सरकार देती है।
समाधान – हमें कटोच समिति की सिफारिशों को जल्द स्वीकृत करते हुए ए पी आई (एप्लीकेशन प्रोग्राम इंटरफेस) निर्माताओं को प्रोत्साहन देना शुरू कर देना चाहिए।
दूसरे, सरकार को चाहिए कि वह इस हेतु एक आर्थिक, विधायी और नियमन संबंधी बुनियादी ढांचें का निर्माण करे।
तीसरे, शोध संस्थानों को संसाधनों और कौशल के लिए उद्योगों से जुझना चाहिए। इससे बायो-मेडिकल रिसर्च का आधार व्यावहारिक होगा।
चौथे, सार्वजनिक संस्थानों और निजी एंटरप्राइसेस को भी इन शोधों में बढ़-चढ़कर भाग लेना चाहिए। इससे भारत की स्थति बहुत मजबूत रहेगी।
पांचवें, इन शोधों और उनके व्यवसायिक उपयोग के लिए हमें वेन्चर पूंजीवादियों को आगे लाना होगा। इससे निवेश को बढ़ावा मिलेगा। निजी क्षेत्र को चाहिए कि वे विद्यमान बुनियादी ढांचे को यथावत बनाए रखने के लिए अनिवार्य विनिर्माण क्षमता को बनाए रखें।
बायो-मेडिकल क्षेत्र के इस विकास ढांचे को अन्य क्षेत्रों में भी उतारा जाना चाहिए। इससे अर्थव्यवस्था को निश्चित रूप से ठोस आधार प्राप्त हो सकेगा।
‘द इकॉनॉमिक टाइम्स’ में प्रकाशित किरण मजूमदार शॉ के लेख पर आधारित। 7 अप्रैल, 2020