गरीबी के उन्मूलन की दिशा में कदम
Date:06-05-19 To Download Click Here.
‘गरीबी हटाओ’ अभियान की शुरुआत लगभग 50 वर्ष पहले इंदिरा गांधी ने की थी। उन्होंने इसे सबसे पहले चुनावी मुद्दा बनाया था। वे इस दिशा में देश को कुछ दूर लेकर भी चलीं। उनके प्रयासों से गरीबी खत्म तो नहीं हुई, परन्तु 1980 के आखिरी तक यह कम अवश्य हो गई थी। उनमें नेतृत्व की क्षमता अद्भुत थी, और भारतीय होने का गौरव भी था। इस नाते वह अपने लोगों की आय के साधन बढ़ाने पर भी ध्यान दे रही थीं, और इस माध्यम से लोगों की आर्थिक दशा सुधारने का प्रयास करती थीं।
अब सवाल उठता है कि 50 वर्षों से गरीबी उन्मूलन के अथक प्रयास के बावजूद अभी तक गरीबी दूर क्यों नहीं हो सकी है ? इसका कारण है कि गरीबी हटाने के लिए बनाई जाने वाली सार्वजनिक नीतियों का उद्देश्य शमन करने वाला रहा, न कि उन्मूलन करने वाला। समस्त योजनाएं समस्या की जड़ तक पहुँच ही नहीं पाईं। इन नीतियों ने लोगों की कमाने की क्षमता को जरा भी प्रोत्साहित नहीं किया। आय दर में कमी का प्रकटीकरण है, और आय में कमी पर विशेष रूप से ध्यान केन्द्रित करना लक्षण को संबोधित कर सकता है।
चुनावों के इस दौर में कांग्रेस और भाजपा, दोनो ही दल, गरीबों के लिए नकद हस्तांतरण से आय बढ़ाने की घोषणा कर रहे हैं। भाजपा की पीएम किसान योजना के द्वारा गरीबों को 6,000 रुपये वार्षिक रूप से दिए जा रहे हैं। इस प्रकार से जनसंख्या के केवल एक वर्ग के लिए आय बढ़ाने की योजना बनाना घोर असमानता है। गरीब किसानों की तरह ही मजदूरी करने वाले कृषक और शहरी फुटपाथों पर जीवन बिताने वाले लोग भी उतने ही गरीब हैं। फिलहाल यह सहायता किसानों को खाद्यान्न सब्सिडी के रूप में दी जा रही है।
दूसरी ओर, नैतिकता की दृष्टि से कोई भी कल्याणकारी योजना इसके अधिकारी लोगों को वंचित नहीं कर सकती। भाजपा ने अपनी योजना की जल्दबाजी के साथ राजकोषीय घाटे के लक्ष्य की निगरानी भी की। साथ ही यह सुझाव भी दिया कि उपभोग के लिए उधार लेना एक गलत तरीका है। हालांकि पीएम योजना को काँग्रेस की 20 प्रतिशत गरीबों को 72,000 वार्षिक देने की योजना ने बौना बना दिया है। काँग्रेस की योजना में असमानता नहीं है। परन्तु इसके अंतर्गत लाभार्थियों की पहचान करना एक कठिन काम होगा। राजकोषीय घाटे के हिसाब से तो दोनों ही योजनाओं, विशेषकर काँग्रेस की योजना, की आलोचना की जा रही है। ये दोनों ही योजनाएं गरीबी के उन्मूलन के स्थान पर मात्र उसका शमन करने वाली है।
काँग्रेस की न्यूनतम आय गारंटी योजना का खर्च 2019-20 के केन्द्रीय बजट का 13 प्रतिशत बैठता है। अगर केन्द्र सरकार अपनी सभी कल्याणकारी योजनाओं को बंद कर दे और सब्सिडी में कटौती कर दे, तो इस योजना का खर्च उठाया जा सकता है। यह योजना शिक्षा और स्वास्थ्य पर होने वाले सरकारी व्यय का दुगुना खर्च मांगती है। शिक्षा और स्वास्थ्य, दोनों ही ऐसे सार्वजनिक क्षेत्र हैं, जिनका गरीबी से सीधा संबंध है। इस योजना की चर्चा के साथ ही, देश में सामाजिक और भौतिक बुनियादी ढांचे की भारी कमी को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।
क्या किया जाना चाहिए ?
सार्वजनिक रूप से वित्तपोषित यूनिवर्सल बेसिक इंकम के सार्वजनिक रूप से कार्यान्वयन के लिए, सार्वजनिक स्रोतों से सार्वभौमिक बुनियादी सेवाओं की आवश्यकता है। जरूरी नहीं कि गरीबी को खत्म करने के लिए चलाया जाने वाला यह कार्यक्रम बजट के माध्यम से सम्पन्न किया जाए।
यू बी आई की अवधारणा यूरोपीय अर्थशास्त्रियों की देन है। वहाँ पर सार्वजनिक बुनियादी सेवाओं की भरमार है। कुछ देशों की सरकारें भी पर्याप्त धनी हैं। इसलिए वहाँ जनता के कर से प्राप्त राशि से अगर कुछ भाग यूबीआई की तरह उपयोग में लाया जाए, तो कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। भारत में इस प्रकार के कोई गंभीर प्रयास अब तक नहीं किए गए हैं।
यह भी समझा जाना चाहिए कि यूबीआई के द्वारा गरीबी उन्मूलन के प्रयास से ज्यादा महत्व अच्छे स्वास्थ्य, शिक्षा और सार्वजनिक सेवाओं का है। इनके बेहतर होने से गरीबी के उत्थान में अपने आप ही मदद मिलती है।
भारत के अलग-अलग राज्यों में प्रतिव्यक्ति आय भिन्न है। दक्षिण और पश्चिमी भारत की तुलना में उत्तरी, मध्य और पूर्वी भारत में गरीबी अधिक है। इसका सीधा संबंध मानव विकास से है। यह सूचकांक प्रतिव्यक्ति आय की बजाय शिक्षा और बेहतर स्वास्थ्य मुहैया कराने पर आधारित है। इसका अर्थ आय को बढ़ाने से है।
केन्द्र सरकार तो एक ही है, लेकिन यह भिन्नता राज्य सरकारों की सार्वजनिक नीतियों की पहल पर है। ऐसी स्थिति में न्यूनतम आय की राशि का दिया जाना, सार्वजनिक क्षेत्र में बुरा प्रदर्शन करने वाले राज्यों को पारितोषिक दिए जाने के समान होगा।
क्षमता के अभाव से जन्मी गरीबी को हटाने में उत्पादक और उपभोक्ता, दोनों की ही सेवाओं की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती है। जैसे कि इन सेवाओं को हमेशा बाजार में खरीदा नहीं जा सकता, उसी प्रकार आय की मददगार राशि देने से ही केवल बात नहीं बन सकती। यही कारण है कि गरीबी को कम करने के लिए अब वैश्विक सोच बदल रही है। इसका केन्द्र अब बहु-आयामी विकास पर आ चुका है। इसके माध्यम से वंचित तबके को एक उत्पादक और गरिमामयी जीवन प्रदान किया जा सकता है। इसके लिए सार्वजनिक सेवाओं को शिक्षा और स्वास्थ्य से स्वच्छ जल, स्वच्छता और आवास सुविधाओं तक विस्तृत किया जा सकता है। एक अनुमान के अनुसार अगर भारत में इन जन सुविधाओं को हटा दिया जाए, तो गरीबी कहीं बहुत अधिक होगी।
यदि हम गरीबी को इस प्रकार से खत्म करना चाहते हैं, तो सार्वजनिक सेवाओं के निहितार्थ बजटीय आकलन करना शुरू करना होगा। इससे हमें गरीबी को प्रभावी तरीके से समाप्त करने की चुनौती का मूल्यांकन और राजनीतिक दलों द्वारा प्रस्तावित आय समर्थन योजनाओं की क्षमता का आकलन करने की अनुमति मिलती है।
गरीबी हटाओ अभियान के लिए कोई शार्ट-कट नहीं है। लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं कि यह दुर्गम है।
‘द हिन्दू’ में प्रकाशित पुलाररे बालकृष्णन् के लेख पर आधारित। 15 अप्रैल, 2019