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अधीनस्थ न्यायालयों पर ध्यान दिया जाए
Date:21-12-17
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- हमारा निर्धन वर्ग न्याय के लिए न्यायालय के दरवाजे खटखटाने से परहेज करता है, क्योंकि मुकदमों की अवधि बहुत लंबी होती है, और इसमें अच्छी खासी रकम खर्च हो जाती है। वहीं अमीर वर्ग विवादों पर स्थगन का लाभ उठाने के लिए न्यायालय की ओर रुख करता रहता है।
- न्यायिक नीतियों पर किए गए अध्ययन से पता चलता है कि 2011-2015 के बीच 91 प्रतिशत मुकदमों पर स्थगन आदेश दिया गया।यद्यपि सिविल प्रक्रिया कोड ने एक मुकदमें के स्थगन आदेश को तीन बार तक सीमित कर रखा है परन्तु दिल्ली उच्च न्यायालय ने ही 70 प्रतिशत से अधिक मामलों में इस सीमा को तोड़ा है। यही कारण है कि राष्ट्रपति कोविंद आम जनता को न्याय दिलाने के लिए स्थगनादेश का विरोध करते हैं।
- अधीनस्थ न्यायालयों के न्यायाधीशों की निर्णय क्षमता को बढ़ाना एवं उनके दिए निर्णयों में लोगों के विश्वास को जगाए जाने की आवश्यकता है। ऐसा नहीं कि भारत में ही यह समस्या है। वैश्विक स्तर पर व्याप्त होने के बावजूद इसे दूर करने के लिए किए गए प्रयास बहुत ही ऊपरी रहे हैं।
- निचली अदालतों के निर्णयों को ऊपरी अदालतों में संशय की नजर से देखा जाता है। उच्च एवं उच्चतम न्यायालय निरंतर निचली अदालतों के मामलों को स्वीकृत करते जा रहे हैं। इसके कारण एक तो उनके पास मुकदमों का अंबार लगता जा रहा है और दूसरे निचली अदालतों में लोगों का विश्वास भी नहीं जम पा रहा है।
- निचली अदालतों में बुनियादी स्तर पर कुछ परिवर्तन लाए जाने चाहिए। विधि आयोग की रिपोर्ट से पता चलता है कि डिस्ट्रिक जज एवं सिविल जज बनने के लिए तीन स्तरीय परीक्षा प्रणाली में पूरा एक वर्ष लग जाता है। इस प्रकार से योग्य आवेदक पीछे छूट जाते हैं। निचली अदालतों के न्यायाधीशों के कैरियर में प्रगति को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। वर्तमान में उच्च न्यायालय के अधिकांश न्यायाधीश अधीनस्थ न्यायालयों के बजाय बार एसोसिएशन से चुने जाते हैं।
निचली अदालतों के न्यायाधीशों की न्यायिक शिक्षा में निरंतरता की कमी रहती है।संवैधानिक प्रजातंत्र में न्यायालयों को जनता का विश्वास तभी प्राप्त हो सकता है, जब देश के सबसे निर्धन व्यक्ति को आसानी से न्याय मिल सकेगा।
‘द इकॉनॉमिक टाइम्स’ में प्रकाशित अघ्र्य सेनगुप्ता और नितिका खेतान के लेख पर आधारित।