लिंग-भेद की समाप्ति में जेन्डर बजटिंग की भूमिका
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सन् 2014 के चुनावों में पहली बार नारी सुरक्षा और सशक्तीकरण एक चुनावी एजेंडा बना। इससे एक बात तो स्पष्ट हुई कि हमारे राजनेता और मतदाता दोनों ही नारियों के लिए कुछ सोचने-विचारने लगे हैं। तब से हमारी नीतियाँ और जन विचारधारा इस ओर मुड़ती दिखाई दे रही है।सन् 2015 में भारत ने जिस धारणीय विकास के लक्ष्यों को अपनाया है, उसके ‘विश्व में परिवर्तन‘ लाने के 17 लक्ष्यों में लिंग-भेद को दूर करना भी एक लक्ष्य है।सन् 2016 में भारत ने पेरिस समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं। उसके अंतर्गत गरीबी उन्मूलन, उत्पादकता में बढ़ोतरी, मौसम परिवर्तन का सामना करने जैसे लक्ष्यों का सीधा संबंध नारी सशक्तीकरण से है।
पिछले वर्ष वल्र्ड इकॉनॉमिक फोरम की विश्व लिंग भेद पर वार्षिक रिपोर्ट में भारत को 87वें स्थान पर रखा गया। इसके पीछे श्रम क्षेत्र, सांसद लिंगानुपात एवं महिलाओं के प्रति घरेलू हिंसा ऐसे कारण रहे, जो भारत को पीछे ढकेल देते हैं।भारत ने 2005 में जेन्डर रेस्पोन्सिव बजटिंग (GRB) की शुरूाआत की थी। जेन्डर बज़टिंग का उदेश्य आर्थिक नीतियों और प्रशासन में महिलाओं के प्रति चल रही असमानता को दूर करना रहा है। तब से आज तक वार्षिक बजट महिलाओं संबंधी ऐसे मुद्दों को शामिल करता है, जिसे निम्न दो भागों में बाँटा जाता है।
- ‘महिलाओं के लिए विशेष योजनाएं‘, जिसमें 100% विनियोजन महिलाओं के लिए किया जाता है।
- ‘महिलाओं के पक्ष में योजनाएँ‘, जिसमें कम-से-कम 30% विनियोजन महिलाओं के लिए किया जाता है।
2005 से शुरू हुए जेन्डर बजटिंग के कारण आज केंद्र और लगभग 16 राज्य इस विचार को सफलतापूर्वक अपना चुके हैं। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के एक ताजा अध्ययन में यह बात सामने आई है कि जेन्डर बजटिंग अपना चुके राज्यों के स्कूलों में बालिकाओं की संख्या बढ़ी है।
- वास्ततिक धरातल पर
छोटी-मोटी सफलताओं के बावजूद अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। नीतियों का निर्धारण और कार्यन्वयन इस प्रकार हो कि उसका लाभ दूर-दराज क्षेत्रों की महिलाओं को भी मिल सके।हाल के वर्षों में जेन्डर बजटिंग के आवंटन में सुस्ती और गिरावट दोनों ही देखने में आई है। 2016-17 के बजट में घरेलू हिंसा अधिनियम के अंतर्गत चलने वाली योजनाओं को कोई राशि नहीं दी गई। इसके अलावा जेन्डर विभागों में भी कमी कर दी गई है। बजट में जेन्डर बजटिंग के विकेन्द्रीकरण की व्यवस्था की गई है। इसके अनुसार केंद्र सरकार ही राज्य सरकारों को इसके लिए राशि देगी। इसमें एक ओर राज्य सरकारें महिलाओं के लिए योजनाओं को आगे बढ़ा सकेंगी, लेकिन दूसरी ओर राज्य सरकारें अपने बजट में इसके लिए कोई स्थान नहीं रखेंगी, यह भी तय है। इस प्रकार व्यावहारिक धरातल पर लिंग-भेद मिटाने और महिलाओं को समानता पर लाने का जो देशव्यापी अभियान चल रहा है, उसकी सफलता में संदेह होने लगता है क्योंकि वही राज्य महिलाओं की योजनाओं को प्राथमिकता पर चलाएंगे, जिन्हें इसके लिए केंद्र से राशि मिल रही है।
क्या किया जाना चाहिए ?
जेन्डर बजटिंग को कारगर बनाने के लिए इसे महिला-मोर्चा संभालने वाली महिलाओं के लिए एक खिलौने की तरह काम में न लाकर एक अनिवार्यता की तरह लागू करना होगा।
- अभी तक जेन्डर बजटिंग को महिलाओं के लिए विशेष योजनाओं तक केंद्रित रखा गया है। लेकिन अब इसका विस्तार सभी जन कल्याण योजनाओं तक करने की आवश्यकता है।
- ऊर्जा, शहरी विकास, खाद्य सुरक्षा, जल आपूर्ति और सफाई ऐसे विभाग हैं, जो महिलाओं से भी गहरे रूप से जुड़े हुए हैं। इन क्षेत्रों की नीतियों का पुरूष और महिलाओं पर अलग-अलग प्रभाव पड़ता है। इसलिए अब हर क्षेत्र के बजट में लिंग-भेद को समाप्त करने का लक्ष्य रखते हुए हमें आगे बढ़ना होगा।
- लिंग-भेद को दूर करने के लिए केवल जेन्डर बजटिंग से पूर्ण सफलता नहीं मिल सकती। इसके लिए सबसे पहले बजट में स्त्री-पुरूष समानता को ध्यान में रखते हुए उसे विस्तृत आयाम देना होगा।
- राशि का आवंटन सही तरीके से करना होगा।
- नीतियों के कार्यान्वयन के लिए उचित निगरानी और मूल्यांकन की व्यवस्था बहुत जरूरी है।
- लाभ प्राप्त करने वाले लोगों से समय-समय पर पूछताछ करके उनकी आवश्यकताओं के अनुरूप नीतियों में बदलाव करने से ही हम लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में आगे बढ़ सकेंगे। अन्यथा वहीं गोल-गोल घूमते रहेंगे।
- केंद्र सरकार चाहे तो राज्य सरकारों को जेन्डर बजटिंग को प्राथमिकता देने के लिए कई प्रकार से प्रेरणा दे सकती है।
- उम्मीद की जा सकती है कि आगामी बजट में सरकार इन बातों को ध्यान में रखते हुए जेन्डर बजटिंग को आगे बढ़ायेगी।
‘द हिंदू‘ में प्रियंका चतुर्वेदी और विदिशा मिश्रा के लेख पर आधारित।