डेरा के बहाने कुछ सवाल
Date:15-09-17
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हाल ही में हुए डेरा सच्चा सौदा प्रकरण के बाद हमारी सरकार और समाज के सामने अनेक प्रश्न उठ खड़े हुए हैं। आखिर क्या हैं ये डेरे ? क्या ये व्यक्ति की आध्यात्मिकता और शांति की खोज का ठिकाना हैं या फिर कुछ और? वर्तमान में इतनी बड़ी संख्या में लोग इनके लिए समर्पित क्यों हैं? अपने गुरू की धृष्टता प्रमाणित होने के बावजूद वे उसकी रक्षा में क्यों लगे हुए हैं? आज के आधुनिक डेरे हमारे समाज के मध्य वर्ग के स्वप्नों का दर्पण हैं, जो आधुनिकता के भोंडे रुप का प्रदर्शन करके आम जन को अपनी ओर आकर्षित करते रहते हैं। ये सब धर्मों को समान समझने का दिखावा करते हैं। इस तरह अपने को एक धर्म निरपेक्ष प्रतिष्ठान के रूप में स्थापित करने में सफल हो जाते हैं।दरअसल, वर्तमान में धर्म निरपेक्षता की विचारधारा बहुत शुष्क हो चली है। इसका लाभ उठाते हुए डेरा जैसे धार्मिक संस्थान सामान्य जन को आधुनिक तकनीकों का मायाजाल बिछाकर अपनी ओर खींच लेते हैं। ऐसा दौर हमें 17वीं शताब्दी के भक्ति आंदोलन की याद दिलाता है।इन सबसे एक बात स्पष्ट होती है कि प्रजातंत्र और आधुनिकीकरण समाज में समानता की स्थापना में विफल रहे हैं। समाज के पिछड़े एवं शोषित वर्ग को समाजवाद और माक्र्सवाद के शुष्क सिद्धांतों के अलावा भी जीवन में रस चाहिए होता है। उनके लिए डेरे की मिश्रित संस्कृति ही रस का आधार बन जाती है। यहाँ उन्हें समुदाय की भावना का एहसास होता है। इस प्रकार मिथ्या और आस्था का यह संगम चलता चला जाता है।
इस प्रकार के समूह वृहद् स्तर पर काम कर रहे हैं। हरियाणा, पंजाब, राजस्थान तथा बिहार आदि राज्यों में ये मजे से फल-फूल रहे हैं। क्या कभी हमारे प्रगतिशील विचारकों ने यह सोचने का कष्ट उठाया कि आखिर ये तथाकथित धर्मगुरू समाज से उपेक्षित विधवाओं और वेश्याओं के जीवन पर इतना विचार क्यों कर रहे हैं? ऐसे स्थानों पर उपेक्षित समूहों के लिए उत्तम व्यवस्था और सहानुभूति रखी जाती है। शायद बदले में इनका शोषण भी किया जाता है। लेकिन आप सेवा, सहानुभूति और शोषण के लिए अलग-अलग रिपोर्ट कार्ड कैसे तैयार कर सकते हैं? इन आश्रमों के सामाजिक कार्यों की तुलना सरकार द्वारा किए गए कार्यों से करके देखने पर इन आश्रमों की उत्कृष्टता स्पष्ट हो जाती है। इसे नकारा नहीं जा सकता।धार्मिक या आध्यात्मिक समूहों और वोट की राजनीति का संबंध एक कड़वा सच है। इन गुरूओं के समर्थकों की बड़ी संख्या राजनेताओं के लिए वोट बैंक का काम करती है। यही कारण है कि ये इन्हें जमीन या अन्य सुविधाएं महैया कराते रहते हैं। इनके दुष्कर्मों के प्रति आँखें मूंदे बैठे रहते हैं।
आज चुनौती इस बात की है कि हम लोगों की आकांक्षाओं और आस्थाओं से कैसे निपटें? पश्चिम के उन लोगों को; जो पूर्व में भारत को धर्म गुरूओं का देश समझते हैं, कैसे ये बताएं कि हमारे यहाँ भी लालसा और दिखावे में जीने वाले धर्मगुरु हैं। अपने धर्मगुरूओं को सुधारक, सेवक, भक्त, धोखेबाज या बलात्कारी जैसा कौन सा दर्जा दें?
समाजविज्ञानी दृष्टि से देखने पर ऐसे सभी आश्रम हमारे लिए चिंता के विषय होने चाहिए। आखिर छोटे-मोटे कस्बों में पनपे ये आश्रम कैसे सम्पूर्ण विश्व में फैलते जाते हैं? कैसे ये इतने हथियार इकट्ठे कर लेते हैं? क्या कानून-व्यवस्था की नजर इन पर नहीं पड़ती है?
ऐसा लगता है कि गैर-सरकारी संगठनों का विचार पुराना पड़ चुका है। अब ये आश्रम ही सही मायने में छोटी-मोटी बहुराष्ट्रीय कंपनी जैसे समूह बन गए हैं, जिन्हें सरकार से जुड़ने की आवश्यकता नहीं है। ये ऐसे हैं, जो समय पड़ने पर सरकार को भी चुनौती दे सकते हैं। ये समूह में भविष्य का ऐसा दर्पण दिखा रहे हैं, जिसे दिखाने में हमारा धर्म-निरपेक्ष संविधान असफल रहा है।अब हमारे पास दो ही रास्ते हैं। पहला, हम राम रहीम जैसे लोगों को कानून-व्यवस्था की समस्या मानकर भूल जाएं। दूसरा, बाहर निकलकर यह देखने और समझने का प्रयत्न करें कि आधुनिकता और वैश्वीकरण के दबाव में आज हमारी संस्कृति किस ओर बढ़ती जा रही है।
‘द हिन्दू’ में प्रकाशित शिव विश्वनाथन के लेख पर आधारित।