क्या हम नागरिक से प्रजा बनते जा रहे हैं?
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अचानक ही देश में कुछ परिवर्तन होने लगे हैं। इनमें राष्ट्रीयता और देशभक्ति के शिक्षण का प्रयास भी इसी परिवर्तन का हिस्सा लग रहा है। हमारे देश के लोगों ने या सही शब्दों में कहें तो नागरिकों ने युद्धों के दौरान और उसके बाद भी हमेशा ही देश के प्रति वफादारी और देश-प्रेम का प्रदर्शन किया है। फिर अचानक उन्हें इसकी शिक्षा देने की आवश्यकता क्यों पड़ गई, यह समझ से परे है।
प्रतिदिन कोई न कोई ऐसा जुमला छोड़ ही दिया जाता है, जिसमें राष्ट्रीयता और देश प्रेम को थोपने जैसी भावना होती है। नोटबंदी के कारण अगर आप बैंक और एटीएम की कतारों में खड़े हुए त्रस्त हो उठते हैं, तो आपको सरहद की रक्षा करते सैनिक का उदाहरण देकर देशप्रेम के वास्ते ऐसा करने को एक तरह से मजबूर किया जाता है। 26 नवम्बर को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने सभी शिक्षण संस्थानों में मौलिक कत्र्तव्यों का ज्ञान देने के लिए फतवा जारी कर दिया। अब उच्चतम न्यायालय ने इसी राष्ट्रीयता और देश प्रेम को जगाने का हवाला देते हुए सिनेमाघरों में राष्ट्रगान का आदेश जारी कर दिया।
हालांकि अन्य देशों में भी समय-समय पर राष्ट्रीयता और देश प्रेम थोपने की राजनीति चलती रही है, परन्तु इन सबका प्रभाव लगभग एक सा रहा है। हद तो इस बात की है कि भारत जैसे प्रजातंत्र में शीर्ष न्यायालय को अपने नागरिकों को राष्ट्रवाद और देशप्रेम की घुट्टी पिलाने की ऐसी क्या आवश्यकता पड़ गई?सिनेमाघरों में राष्ट्रगान का आदेश कोई नया नहीं है। समझ में यह नहीं आता कि न्यायालय को आदेश पालन की इतनी क्या जल्दी थी कि उसने फरवरी 2017 को इसकी अगली सुनवाई तक भी इंतजार करना ठीक नहीं समझा और अंतरिम आदेश जारी कर दिया। न्यायालय के इस आदेश के संबंध में तीन तरह की दलीलें दी जा सकती हैं।
पहला यह कि न्यायालय के इस आदेश ने राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रगान को लोकप्रियता का प्रतीक बनाने की बजाय शक्ति और सत्ता के रूढ़िवादी प्रतीक के रूप में थोप दिया है। न्यायालय का कहना है कि राष्ट्रगान का नाटकीयकरण (Dramatisation) किसी भी तरह से स्वीकार्य नहीं है। जो लोग इसका उपयोग करते हैं, उन्हें राष्ट्रगान से किसी तरह का लाभ-व्यापार करने के बारे में सोचना भी नहीं चाहिए। न्यायालय की इस सोच और सिनेमाघरों में इसे बजाने की बाध्यता से केवल मतभेद ही बढ़ेंगे। प्रेम और गर्व के प्रतीक को कानूनी आदेश के द्वारा लादने का आखिर क्या औचित्य है? यह आदेश प्रेम को भय में परिवर्तित करने जैसा है।
इस प्रकार के दण्डात्मक विचारधारा वाले राष्ट्रवाद का अंत अक्सर अनियंत्रित सत्ता के रूप में होता है। यह दुख की बात है कि लोकप्रिय प्रतीकों का इस्तेमाल नागरिकों को डराने और अनुशासित करने के लिए किया जा रहा है।दूसरे, आदर-सम्मान के दिखावे को थोपने में न्यायालय के संविधान के भाग प्टए के मौलिक अधिकारों को चुनना संविधान की व्याख्या के दृष्टिकोण से कुछ प्रतिकूल लगता है। अभी तक मौलिक अधिकार ही संविधान के केन्द्र में थे। लेकिन अब बदलाव आ गया है। ऐसा लगता है, जैसे कि न्यायालय ने अधिकारों के विरूद्ध कत्र्तव्यों को उतार दिया है। क्या आदेश के द्वारा न्यायालय यह बताना चाहता है कि अधिकारों की तुलना में कत्र्तव्य अधिक पावन है और क्या अब हमें अपने अधिकारों को प्राप्त करने के लिए कुछ नैतिक दायित्व निभाने होंगे? इसका अर्थ क्या यह माना जाए कि नागरिकों को अपने अधिकार शर्तों पर मिलेंगे? लगता है कि न्यायालय ने संविधान की व्याख्या के नए सोपान की शुरुआत कर दी है। अब शायद लोक-कल्याण और उदारता पर आधारित संविधान की व्याख्या सत्ता और देशभक्ति पर आधारित होगी।
तीसरे, न्यायालय के इस संक्षिप्त आदेश से संविधान में निहित देशभक्ति के विचार की बात बिल्कुल स्पष्ट नहीं होती। दरअसल, संंवैधानिक देशभक्ति का विचार वाकई प्रशंसनीय है। यह हमारे नागरिकों को एक प्रकार की उदार प्रजातांत्रिक नैतिकता के प्रति समर्पण का पाठ पढ़ाती है। अगर इसी विचार को दूसरी तरह से देखें, तो यह भाषाई, प्रजातीय और क्षेत्रीय भिन्नताओं में निष्ठा से ऊपर केवल एक राष्ट्रीय निष्ठा को सर्वोच्च मानने को बाध्य करता है। इस हिसाब से संवैधानिक देशभक्ति का अर्थ समरूप विचारों और जीने के तरीकों को प्रोत्साहित करना है। लेकिन पता नहीं क्यों ऐसा लगता है, जैसे कि यह ऐसी विचारधारा को बढ़ावा देने जैसा है, जिसको भारतीय राष्ट्रवाद और संवैधानिकता ने हमेशा दूर रखना चाहा। लगता है कि उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों ने संवैधानिक देशभक्ति की परिभाषा के दूसरे विचार को मानते हुए ऐसा आदेश दिया।सामान्यतः न्यायालयों के आदेश तत्कालीन राजनैतिक और नैतिक परिदृश्य के अनुकूल ही दिये जाते हैं। अतः इस आदेश के पीछे भी सरकार ने वर्तमान परिदृश्य को ही ध्यान में रखा होगा और तभी संविधान की ऐसी व्याख्या की होगी।
बहरहाल, न्यायालय के आदेश ने नागरिकता की परिभाषा को ही बदल दिया है। इसने नागरिकता की ऐसी नई परिभाषा गढ़ दी है, जिसमें नागरिकों के अधिकार उसकी पहचान नहीं है, बल्कि अब उसके कत्र्तव्य ही उसके देशभक्त होने की पहचान बन सकते हैं। न्यायाधीशों की इस तानाशाही ने हमसे हमारे देश और समाज के प्रति सहज प्रेम के अधिकार को छीन लिया है। हमें हमारी राष्ट्रवादिता और देशभक्ति से वंचित कर दिया है। एक ही झटके में हमारे अधिकारों को कानून के द्वारा लादे गए कत्र्तव्यों में बदल दिया है। ऐसा लग रहा है, जैसे इस लादी हुई राष्ट्रवादिता के साथ हम दयनीय स्थिति में आ गए हैं। यह खुलकर कहा जा सकता है कि भारतीय संविधान के इतिहास में तो क्या सामान्य रूप से किसी भी संविधान के इतिहास में ऐसा नहीं किया गया होगा।
संवैधानिकता का आविर्भाव तो अधिकारों के लिए आम जनता के संघर्ष के परिणामस्वरूप होता है। लेकिन जब सत्ता ही स्वयं राष्ट्रीयता की परिभाषा बनाने लगे और कत्र्तव्यों के पक्ष में नागरिकों के अधिकारों को दरकिनार करने लगे, तो इतिहास का चक्र उल्टा घूमता हुआ सा लगने लगता है। भारतीय राष्ट्रीयता ने हमें प्रजातंत्र देकर प्रजा से नागरिक बनने का गौरव प्रदान किया। लेकिन क्या हम वापस नागरिक से प्रजा बनते जा रहे हैं?
‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित सुहास पलसिकर के लेख पर आधारित।