क्या दक्षिणपंथी बुद्धिजीवियों का विकास हो पाएगा?
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हर देश में दो तरह का बुद्धिजीवी वर्ग होता है- वामपंथी और दक्षिणपंथी, जिसे क्रमशः लैफ्ट विंग इंटैलैक्चुयल्स और राइट विंग इंटैलैक्चुयल्स कहा जाता है। वामपंथियों को अधिक उन्नतिशील विचारधारा का माना जाता है। जबकि दक्षिणपंथियों को राष्ट्रवादी और परंपरावादी। भारत में भी दोनों तरह के बुद्धिजीवी हैं। परंतु दक्षिणपंथियों का अभाव है। भारतीय जनता दल दक्षिणपंथी विचारधारा की मानी जाती है। उसके सत्ता में होने का अर्थ यह नहीं लगाया जा सकता कि अब दक्षिणपंथी बुद्धिजीवियों की संख्या एकाएक बढ़ जाएगी। इसके कई कारण हैं-
- बुद्धिजीवियों के विकास में सरकारी संरक्षण बहुत महत्व रखता है। अभी तक की सरकारों ने वामपंथी विचारधारा का बहुत विकास किया और उससे जुड़े बुद्धिजीवियों का भी। अभी तक दक्षिणपंथी विचारधारा का विकास उस प्रकार से नहीं किया गया कि इस विचारधारा के बुद्धिजीवियों की जमात खड़ी दिखाई दे।
- धनाढ्य वर्ग तथा अन्य कार्पोरेशन्स से सहायता न मिल जाना भी दक्षिणपंथियों के अभाव का एक अन्य कारण है। अमेरिका में केटो एवं हैरिटेज जैसे संस्थानों को इस प्रकार की आर्थिक सहायता बहुत मिलती है। भारत में ऐसा नहीं हो पाया। यहाँ के याराना पूंजीवाद की राह पर चलने वाला अमीर वर्ग निवेश वहीं करता है, जहाँ उसे जल्दी लाभ मिलने की उम्मीद होती है। गिने-चुने धनाढ्य लोग अगर शोध एवं अनुसंधान पर धन लगाना भी चाहते हैं, तो वे स्टैनफोर्ड और हार्वर्ड में निवेश करते हैं, क्योंकि भारतीय संस्थानों में सरकारी हस्तक्षेप बहुत ज्यादा है।
- तीसरा कारण है धार्मिक संस्थानों का प्रबंधन। विदेशों में चर्च वगैरह के पास अगर धन की अधिकता होती है, तो वे उसे शैक्षणिक संस्थानों में तथा उनके वैचारिक विकास के लिए होने वाले शोध एवं अनुसंधान में लगा देते हैं। भारत के मंदिरों के पास भी अपार संपत्ति है। तिरूपति और पद्माभास्वामी जैसे मंदिरों की अकूत संपत्ति हजारों शैक्षणिक संस्थाओं के काम आ सकती है। परंतु समस्या यह है कि सारे मंदिरों में किसी न किसी रूप में राजनेताओं का बोलबाला है और ये नेता किसी भी स्थिति में ऐसा होने नहीं देंगे। जब तक स्थिति नहीं बदलती, हम सांस्कृतिक और धार्मिक संस्थानों की ओर से बुद्धिजीवियों के विकास में सहयोग की बात सोच भी नहीं सकते।
इन इसके बावजूद मीनाक्षी जैन की ‘राम और अयोध्या’ तथा संजीव सान्याल की ‘लैण्ड आॅफ सेवन रिवर्स’ जैसी कृतियां दक्षिणपंथी विचारधारा के विकसति होने की आस जगाए हुए हैं। इससे ऐसा लगता है कि जल्दी ही दक्षिणपंथियों का एक बड़ा समूह समाज में अपनी जगह बना लेगा। खुशी की बात यह होगी कि ये दक्षिणपंथी उदारवादी होंगे और गोमांस की राजनीति करने वालों से अलग होंगे।
‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ में प्रकाशित राघवन जगन्नाथन के लेख पर आधारित।