इंडिया बनाम भारत

Afeias
09 Apr 2020
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Date:09-04-20

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भारतीय मध्यवर्ग एक बहुत ही अजूबा प्राणी है। एक तरफ तो अति कुशल उद्यमी, अविष्कारी और लचीला है, परंतु दूसरी तरफ वह आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछडों के प्रति उदासीन है। कभी-कभी तो अपनी कुशलता के लिए खतरा बन सकने वालों के लिए प्रति वह शत्रु भाव भी रखने लगता है।

इनमें से कुछ लोगों का कोरोना से लड़ रहे स्वास्थ्यकर्मियों और विदेशों में अटके तमाम भारतीयों को देश वापस लाने वाले एयरलाइन वालों के प्रति व्यवहार देखकर क्या कहा जा सकता है। कुछ लोगों का स्वार्थी पागलपन इस हद तक है कि अनेक मकान मालिकों ने स्वास्थकर्मियों को घर खाली करने का नोटिस दे दिया और कुछ ने एयरलाइन से जुड़े लोगों को सार्वजनिक रूप से उत्पीड़ित किया। इन सबके पीछे उनकी उस भय से अपनी सुरक्षा ही एकमात्र उद्देश्य रही, जो वास्तव में है ही नहीं।

इनके इस व्यवहार के पीछे दो कारण समझ में आते है। पहला, मध्यवर्ग में अनेक लोग ऐसे हैं, जो इस वायरस से प्रभावशाली ढंग से निपटना चाहते हैं, परंतु वे इस युद्ध के मैदान में दूसरों को उतारना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि ऐसे सैनिक इस खतरनाक जंग में लड़ते रहें, परंतु उनसे दूर रहें। दूसरे, इस वर्ग के कुछ लोग ऐसा भी सोचते हैं कि वे अपने स्वयं की कोरोना अभेधता का कवच बना सकते हैं। उनके इस व्यक्तिगत क्षेत्र की पवित्रता को कोई प्रदूषित नहीं कर सकता। इसमें कुछ बाहरी लोगों को जरूरी प्रवेश मिल सकता है। आखिरकार, किसी को कचरा साफ तो करना है, फाटकों की रक्षा करनी है, घरेलू सहायता प्रदान करनी है, और कार ड्राइव करनी है। लेकिन ये बाहरी रोग पीड़ित हैं। ये तो अलिखित जनता का हिस्सा हैं, जिन्हें अच्छे रूप में नहीं देखा जाता है। लेकिन जिनकी सेवा के बिना रहा भी नहीं जा सकता।

ये ‘बाहरी लोग‘ आते कहां से हैं? इनमें से ज्यादातर तो शहरी बस्तियों और झुग्गियों से आते हैं। इनके मोहल्लों में सोशल डिस्टेंसिंग संभव नहीं है। बहुत लोग एक ही कमरे में रहते हैं। स्वच्छता के लिए पर्याप्त सुविधाएं नहीं हैं। सीवेज निपटान बहुत खराब है। इतना सब होते हुए भी इनके अस्तित्व को खत्म नहीं किया जा सकता।

इस लॉकडाउन ने इंडिया बनाम भारत विभाजन को बहुत बढ़ा दिया है। इंडिया के समृद्ध लोगों के लिए आत्म-अलगाव में रहना चिड़चिडापन पैदा करने वाला हो सकता है। परंतु यह सहन करने योग्य होता है। समृद्ध लोगों के लिए यह एक अनोखा अवसर है। इस अवसर का लाभ वे सोशल मीडिया के द्वारा योगा, स्पोर्ट देखते हुए आराम से उठा सकते हैं।

भारत में लाखों ऐसे हैं, जो असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे हैं। इनमें प्रवासी मजदूर, ठेला लगाने वाले और दिहाड़ी कमाने वाले अनेक लोग हैं, जिन्हें रात को खाने के लिए रोज काम पर निकलना जरूरी है। तो क्या, आत्म सीमित इंडिया का सेल्फ-आइसोलेशन, भारत के लाखों-करोड़ों के लिए कुछ विचार नहीं करता? क्या इंडिया का मध्यवर्ग, भारत के वंचित, गरीब वर्ग की परेशानियों से अवगत है ?

कोरोना वायरस महामारी के दौर में भारतीयों को यह नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय संस्कृति परोपकार की संस्कृति है। यह स्वार्थी या आत्म-सीमित नहीं है। इस युद्ध जैसे दौर से निपटने के लिए या तो इंडिया और भारत को एक साथ आना होगा या दोनों ही पराजित हो जाएंगे। आपदा की घड़ी में अनेक ऐसे समुदाय हैं, जिन्होंने सामुदायिक और व्यक्तिगत तौर पर समाज के हित के लिए लंगर लगवाए हैं, दान दिए हैं। निजी क्षेत्र ने वेंटीलेटर्स और टेस्टिंग किट के उत्पादन में सराहनीय योगदान दिया है।

इस पूरे अभियान में पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप की भूमिका अत्यावश्यक है। केरल और दिल्ली जैसे राज्यों ने वंचितों की मदद के द्वार खोल दिए हैं। प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना सही दिशा में उठाया गया कदम है। सूक्ष्म, लघु और मझोले उद्योगों को राहत और सहयोग की आवश्यकता है।

आत्म-केन्द्र्रित होना समस्या का हल नहीं है। सोशल डिस्टेसिंग का अर्थ सामाजिक वास्तविकताओं से दूर जाना कदापि नहीं है। अच्छे हाइजीन का अर्थ यह नहीं है कि हम खतरे में जी रहे लोगों के मामलों से हाथ धो लें। सामाजिक उत्तरदायित्व का अर्थ सामाजिक भय नहीं है। चिंता करने का अर्थ पक्षपात नहीं है। कोरोना वायरस की जरूरत व्यक्तिगत अनुशासन है, परंतु इस आपदा को सभी नागरिकों के प्रति दया और सहानुभुति से ही जीता जा सकता है।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित पवन कुमार के लेख पर आधारित। 28 मार्च, 2020