असंगठित निर्माण क्षेत्र की मुश्किलें
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हमारे देश का असंगठित निर्माण उद्योग दो भागों में विभाजित है – घरेलू उद्योग और गैर-घरेलू उद्योग। ये असंगठित क्षेत्र बहुत बड़ी संख्या में रोजगार उपलब्ध कराते हैं, जबकि आकार में ये बहुत छोटे हैं। इस क्षेत्र के कामगारों को अच्छा वेतन देने और गरीबों की स्थिति में सुधार के लिए इस क्षेत्र को आर्थिक रूप से और मजबूत बनाने की आवश्यकता है।ब्रिटिश अर्थशास्त्री ई.एफ. शूमाकर ने सन् 1973 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘द इकॉनॉमिस्ट‘ में लिखा था ‘स्मॉल इज़ ब्यूटीफुल‘। उनका इशारा इन छोटे असंगठित उद्योगों की ओर ही था, जो उनकी नजर में बेहतर प्रदर्शन करते हैं और रोजगार के सर्वाधिक अवसर उपलब्ध कराते हैं।
इन लघु उद्योगों या लद्यु ईकाईयों की तुलना बड़ी ईकाईयों से लगातार ही की जाती रही है। आखिर गरीबों की मसीहा होने के बावजूद ये छोटी ईकाईयां बड़ी ईकाईयों से कहाँ मात खाती हैं, यह जानने और समझने की जरूरत है।
- संगठित उद्योग बनाम असंगठित उद्योग –
तकनीकी क्षमता – इसको पैमाना बनाकर किसी उद्योग के निवेश को उत्पाद में परिवर्तित करने की क्षमता को आंका जा सकता है। संगठित और असंगठित क्षेत्रों की तकनीकी क्षमता पर सर्वेक्षण से पता चलता है कि इनमें अंतः क्षेत्रीय सामंजस्य और संगठन की भारी कमी है। असंगठित क्षेत्रों की तुलना में संगठित क्षेत्र का प्रदर्शन बहुत ऊंचे स्तर का है। आर्थिक विकास की दर में असंगठित क्षेत्र का योगदान नहीं के बराबर है।
उत्पाद की खपत – अगर उत्पाद की मांग की दृष्टि से देखा जाए, तो भी संगठित क्षेत्र बाजी मार ले जाते हैं। जिन क्षेत्रों में ये स्थापित हैं, वहाँ आसपास इनकी माल की खपत बहुत अच्छी होती है। असंगठित क्षेत्र की तुलना में इनके माल की गुणवत्ता का बेहतर होना भी एक कारण है। आय में वृद्धि के साथ ही मांग का रुख असंगठित क्षेत्र के उत्पाद की जगह संगठित क्षेत्र के बेहतर गुणवत्ता वाले माल की ओर हो जाता है। हांलाकि बढ़ते अनुषंगी उद्योगों से असंगठित उद्योगों को अंतःक्षेत्रीय सामंजस्य में मदद मिल रही। फिर भी इनकी स्थिति में कोई खास बढ़ोतरी नहीं हुई है।
बुनियादी ढांचा – असंगठित क्षेत्रों को बिजली, पानी जैसी आधारभूत सुविधाओं का बहुत अभाव है, जिससे ये पिछड़ जाते हैं। वहीं संगठित क्षेत्र के पास ये सुविधाएँ पर्याप्त हैं, और येही उनके मार्ग को प्रशस्त करती जाती हैं।कुल मिलाकर यह कि असंगठित क्षेत्र के उद्योग जीविका चलाने तक ही काम कर रहे हैं। खासतौर पर जो घरेलू स्तर पर काम कर रहे हैं, उनकी स्थिति तो और भी खराब है। घरेलू या असंगठित क्षेत्र के उद्योगों की माली हालत में सुधार किया जा सकता है। इसके लिए कुछ निम्न उठाने होंगे –
- असंगठित क्षेत्र में उत्पाद की गुणवत्ता में सुधार के लिए इस प्रकार की नीतियाँ बनाई जाएं, जिससे उनकी मांग में वृद्धि हो सके।
- असंगठित क्षेत्र में कई उद्योग ऐसे हैं, जो गांवों के अंदरूनी क्षेत्रों में काम कर रहे हैं। इन घरेलू उद्योगों को आधारभूत सुविधाएं उपलब्ध कराकर इन्हें विकसित किया जा सकता है।
- इस क्षेत्र के उद्योग अपने उत्पाद को स्थानीय बाजारों तक ही ले जा पाते हैं। बड़े बाजारों तक उनकी पहुंच को सुनिश्चित करना होगा।
- ऋण की सहायता इन उद्योगों के लिए जीवन-शक्ति का काम कर सकती है।
- अन्तक्र्षेत्रीय संपर्कों के अभाव के कारण यह क्षेत्र लेनदेन के मामलों में काफी पिछड़ा हुआ है। इसे बढ़ाने की आवश्यकता है।
- आमतौर पर यह देखा गया है कि शहरी क्षेत्र के लघु उद्योग ग्रामीण क्षेत्रों के लघु उद्योगों की तुलना में तेजी से विकसित हो जाते हैं। सरकार तो शहरीकरण को बढ़ावा दे ही रही है। 2011 की जनगणना में अनेक शहरों को चिन्ह्ति किया गया है, जहाँ अभी स्थानीय निकायों का अभाव है। इन शहरों को शहरी सुविधाएं मिलने के साथ ही इनमें चल रहे असंगठित क्षेत्र के उद्योगों को बहुत लाभ मिलेगा।
- असंगठित क्षेत्र में भी घरेलू स्तर पर चलाए जा रहे उद्योगों में केवल परिवार के लोग ही संलग्न रहते हैं। इसलिए स्वाभाविक रूप से गैर घरेलू स्तर वाले उद्योगों में रोजगार के अवसर अपेक्षाकृत अच्छे हैं। ये गैर-घरेलू उद्योग एक तरह से ‘प्रतिष्ठान‘ या ‘संस्थागत‘ तरीके से काम नही कर रहे हैं। क्या इन गैर-घरेलू स्तर पर चल रहे उद्योगों को इन संस्थागत या प्रतिष्ठान जैसे स्तर पर लाया जा सकता है? अगर ऐसा किया जा सके, तो इस क्षेत्र के लिए यह अच्छा अवसर होगा।
‘द हिंदू‘ में प्रकाशित विश्वनाथ गोल्दर एवं अरूप मित्रा के लेख पर आधारित।