सिविल सर्विस की तैयारी के लिए टाइम मैनेजमेंट-2

Afeias
12 Feb 2017
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पिछले अंक से आगे……

जब आप अपने समय के स्वरूप को सघन बना लेते हैं, तब स्वाभाविक रूप से आपके अन्दर पढ़ने की हड़बड़ी पैदा हो जाती है। और यह कतई न भूलें कि इसी हड़बड़ी में गड़बडियां होती हैं। यदि आप हड़बडी की इस मानसिकता से पढ़ाई करेंगे, तो वह पढ़ाई आपको भ्रम देने वाली होगी, ज्ञान देने वाली नहीं। हो सकता है कि यह हड़बड़ी दूसरी परीक्षाओं में काम आती हो। आती ही है। लेकिन सिविल सर्विस में ज्ञान के जिस रूप और जिस गहराई की जरूरत होती है, हड़बड़ी के माध्यम से वहाँ तक पहुँच पाना संभव है ही नहीं। उसके लिए इत्मीनान चाहिए और इत्मीनान के लिए चाहिए-एक लम्बी योजना।

आखिर कितनी लम्बी योजना? अटेम्प्ट की संख्या अब काफी है और अधिकतम उम्र भी बहुत कर दी गई है। तो क्या हम यह मान लें कि लम्बी योजना का मतलब है अंतिम अटेम्प्ट तक तथा उम्र की अधिकतम सीमा तक? यह बहुत खतरनाक बात होगी। इसका कारण यह है कि ऐसी स्थिति में हम लगातर अपनी तैयारी को स्थगित करते रहेंगे। मानसिक तौर पर हमें लगता रहेगा कि अभी तो काफी समय बाकी है, बाद में पढ़ लेगें। और दुर्भाग्य से यह ‘बाद’ कभी नहीं आएगा।

जहाँ तक मुझे लगता है, हमें अधिक से अधिक तीन अटेम्प्ट के बारे में प्लान करना चाहिए। ऐसा इसलिए, क्योंकि आपको इस परीक्षा के तीन स्तर पार करने पड़ते हैं। हालांकि होना तो यही चाहिए कि आप हर अटेम्प्ट में  एक स्तर को पार कर सकें। लेकिन अक्सर पहले अटेम्प्ट से यह उम्मीद करना कि प्री-क्वालिफाई हो जाएगा, थोड़ा मुश्किल लगता है। इसलिए पहले अटेम्प्ट को मैडन ओवर की तरह माना जा सकता है। लेकिन सेकेण्ड अटैम्प्ट ऐसा होना ही चाहिए कि आप प्री और मेन्स दोनों ही निकाल सकें। हो सकता है कि यही अटैम्प्ट आखिरी बन जाए। यदि ऐसा नहीं भी हुआ, तो कम से कम यहाँ तक का अनुभव तो आपको मिल ही गया। यह अनुभव आपको तीसरे अटैम्प्ट में सफलता तक पहुँचा देगा।

यहाँ एक बात यह भी कि यदि तीसरे अटेम्प्ट तक आप I.A.S. में नहीं आ पाए, तब आपको आगे के अटैम्प्ट ट्राई करने ही चाहिए। उनमें इसकी संभावना बढ़ जाती है और ऐसा अक्सर देखने में भी आया है। इस प्रकार आपको हड़बड़ी से बचने के साथ ही लापरवाही की जाल में फँसने से बचने के बीच एक संतुलन बनाना होगा।

यह केवल टाइम मैनेजमेंट की दृष्टि से ही नहीं, बल्कि सिविल सर्विस परीक्षा में सफलता की दृष्टि से भी जरूरी है कि आप अपने दिमाग में इस सच्चाई को बैठा लें कि सिविल सर्विस परीक्षा के लिए अधिक से अधिक किताबें पढ़नी कतई जरूरी नहीं होती। हम जितना ज्यादा पढ़ते हैं, यह धारणा गलत है कि उतना ही ज्यादा सीखते हैं। बल्कि सच तो यह है कि हम उतने ही ज्यादा उलझते हैं। फिर नतीजा यह होता है कि जब लिखने की बारी आती है, तब पता नहीं क्या-क्या ऐसा लिखकर आते हैं, जो परीक्षक की जरूरत को पूरा नहीं करते। मित्रो, मैं यहाँ यह नहीं कह रहा हूँ कि आपको पढ़ने की जरूरत ही नहीं है। मैं केवल यह कह रहा हूँ कि जो जरूरी है, सिर्फ उतना ही पढ़ने की जरूरत है।

सच पूछिए तो सिविल सर्विस में पढ़ने की कम और सोचने की ज्यादा जरूरत होती है। जब हम इस सिद्धान्त को लेकर चलते हैं, तो स्वाभाविक तौर पर समय का संकट अपने-आप खत्म हो जाता है। अब आपको पढ़ने के लिए कम समय चाहिए। और जहाँ तक सोचने के लिए समय की जरूरत है, वह तो कभी भी और कहीं भी किया जा सकता है। उसके लिए न तो हाथों में किताबों की जरूरत होती है, और न ही टेबल-कुर्सी की कि जहाँ इत्मीनान से बैठकर पढ़ाई की जा सके। यह मैं आपको बहलाने के लिए नहीं कह रहा हूँ। बहकाना मेरा उद्देश्य नहीं है। सिविल सेवा परीक्षा की जो सच्चाई है, उसे बताने के लिए कह रहा हूँ।

निश्चित रूप से अब यह बात आएगी कि पढ़ने के लिए क्या-क्या जरूरी हैं। इसके बारे में मैं अपनी पहली वाली किताब में बहुत विस्तार के साथ लिख चुका हूँ। इसलिए उन्हीं बातों को दुहराने से कोई फायदा नहीं होगा। फिर भी मैं यहाँ दो बातें दुहराना चाहूँगा –

पहला तो यह कि आपको एनसीईआरटी की किताबों के जरिए बेसिक्स पर अपनी पकड़ बहुत अच्छी बना लेनी चाहिए। आपको इन्हें पढ़ना नहीं है। इन्हें रटना भी नहीं है। इन्हें समझना है। और इस तरीके से समझना है जैसे कि आप गणित के सूत्र समझते हैं। गणित के सूत्र समझ में आने के बाद आप उस सूत्र के अनुसार उससे जुड़े गणित के सारे सवाल हल कर लेते हैं। ठीक यही जनरल स्टडीज पर भी लागू होता है।

यहाँ मैं इस बात पर जोर देना चाहूँगा कि आप एनसीईआरटी की इन किताबों को समझने में ज्यादा से ज्यादा समय लगाएं, उतना; जितने में आप इस पर अपनी अच्छी पकड़ बना सकें। इसे घंटे से न जोड़ें। बल्कि इस बात से जोड़ें कि ‘मुझे इस टॉपिक को बहुत अच्छे तरीके से समझना है।’ यह बात मैं इसलिए भी कह रहा हूँ, क्योंकि जो स्टूडेन्टस् खूब मेहनत करते हैं, लेकिन प्री भी क्वालिफाई नहीं कर पाते, या जो प्री-क्वालिफाई कर लेते हैं, लेकिन मेन्स नहीं निकाल पाते या फिर जो एक साल मेन्स तो निकाल लेते हैं, लेकिन अगले साल प्री में ही रह जाते हैं, दरअसल ये वे स्टूडेन्ट होते हैं, जिनकी अपने विषय पर अच्छी पकड़ नहीं होती है। यह एक बिरल संयोग ही होगा कि इसके बावजूद कुछ लोग सफल हो जाते हैं। लेकिन ये सफलता और असफलता की सीमा रेखा पर खड़े रहते हैं। किसी वजह से जरा भी नीचे खिसके नहीं कि लिस्ट से बाहर होना इनकी नियति होती है। अन्यथा यदि एक बार बेसिक्स पर किसी की अच्छी पकड़ बन जाए, तो फिर इसका कोई कारण नहीं है कि वह आगे के अटैम्प्टस में सफल न हो। हाँ, यह जरूर है कि शायद नम्बर उतने अधिक न आ पाये कि उसकी रेंकिंग उतनी ऊपर पहुँच सके, जो वह चाहता है। हाँ, रेंकिंग बढ़ाने के लिए कुछ अलग तरह की तैयारी करने की जरूरत होती है, जिसकी चर्चा आगे मैं करूँगा। लेकिन यहाँ यह जान लेना चाहिए कि रेंकिंग बढ़ाने की नींव बेसिक्स पर अच्छी पकड़ होना ही है।

आप इस पर खुद विचार कीजिए। आपकी बेसिक्स की अच्छी तैयारी हो गई है। नींव से आप लगातार जुड़े ही हुए ही हैं। आप्शनल पेपर की भी तैयारी आपने कर ही ली है। ये सारे काम आप एक साल में पूरा कर सकते हैं। यह असंभव बिल्कुल भी नहीं है। इसके बाद आप प्री में बैठे। फिर या तो मेन्स में बैठने का मौका मिला या नहीं मिला। यदि मिला भी, तो उसमें सफल नहीं हो सके। इन दोनों ही स्थितियों में अब आपको अगली परीक्षा में बैठना होगा। यहाँ विचार आपको इस बात का करना है कि अब जब आप अगली परीक्षा में बैठेंगे, तब आपको तैयारी करने के लिए कितने समय की जरूरत पड़ेगी? इसका एक ही उत्तर नहीं है कि ‘थोड़े समय की।’ इसके दो उत्तर होंगे। यदि आपने बेसिक्स की अच्छी तैयारी कर ली है तो उत्तर होगा ‘थोड़े समय की।’ यदि आपने बेसिक्स की तैयारी अच्छे से नहीं की है, तो उत्तर होगा ‘एक लम्बे समय की’, उतने ही समय की, जितने की पहले जरूरत थी।’ अब यहाँ आप फिर से उसी चक्र में फंसेंगे, जिसे आपने पहले पूरा किया था। इसका कारण सिर्फ यह रहा कि आपने अपने पहले के वक्त का बहुत अच्छे से उपयोग नहीं किया। यदि आपने उसका अच्छे से उपयोग कर लिया होता, तो अब आपकी तैयारी का वक्त घटकर पहले की तुलना में आधा ही रह जाता।

यहाँ एक बात और है। आप सोच सकते हैं कि न्यूज वगैरह में लगने वाला वक्त तो अभी भी उतना ही रहेगा, जितना पहले था। लेकिन ऐसा नहीं है। चूंकि आपकी मूलभूत समझ बन चुकी है, बहुत से टॉपिक्स को आप जान चुके हैं, इसलिए अब आपको उन्हीं के लिए उतना वक्त नहीं लगाना पड़ेगा जितना पहले लगता था। उसका समय अब घटकर आधा या उससे भी कम हो जाएगा।

समय प्रबंधन के सूत्र

मित्रो, यदि आप अन्यथा न लें, तो मैं इसकी शुरूआत अपनी ही जिन्दगी से करना चाहूंगा। ऐसा इसलिए, क्योंकि मैं खुद इसका साक्षी रहा हूं और इस बात का भी गवाह रहा हूं कि इससे मुझे फायदा मिला। और जो मैं चाहता था, कर भी सका। यहाँ मेरा उद्देश्य अपने आपको तनिक भी हाइलाइट करने का नहीं है। मैं यह भी मान नहीं चल रहा हूं कि आपको भी बिल्कुल ऐसा-ऐसा ही करना चाहिए। सभी की परिस्थितियां अलग-अलग होती हें। सबके समय की जरूरत भी अलग-अलग होती है। सभी की क्षमताएं भी अलग-अलग होती हैं। इसलिए मैं इस बारे में बिल्कुल स्पष्ट हूं कि समय प्रबंधन का मेरा जो मॉडल रहा है, जरूरी नहीं कि वही आपका भी मॉडल हो। वह अलग हो सकता है लेकिन यह अवश्य है कि मेरे इस मॉडल से हो सकता है कि आप अपने लिए कुछ व्यावहारिक सूत्र निकाल सकें, ज्यों का त्यों न सही, लेकिन उससे मिलता-जुलता, कुछ वह, जो आपके काम का हो।

मित्रो, मैंने सन् 1979 से अपनी तैयारी शुरू की और 1980 की ही परीक्षा में मैं बैठ गया। मुझे लग रहा था कि मेरी तैयारी हो चुकी है। रिजल्ट निकलने के बाद मुझे इसकी सच्चाई पता लगी। जिस तरह के प्रश्नों के उत्तर मैं गलत करके आया था, वे शर्मनाक थे। जाहिर था कि यह मेरा भ्रम मात्र था कि मेरी तैयारी हो चुकी है। हो सकता है कि उसके पीछेे कॉलेज की तैयारी का भ्रम काम कर रहा हो। लेकिन अब मेरा भ्रम पूरी तरह टूट चुका था और मैंने अपनी तैयारी के यथार्थ को समझ लिया था।

यही कारण रहा कि मैंने अपने लिए एक लम्बी योजना बनाई और फैसला किया कि मैं अगले वर्ष सन् 1981 की परीक्षा में नहीं बैठंूगा। चूंकि हम लोगों के समय में दो आप्शनल सब्जेक्ट लेने होते थे, इसलिए भी मुझे इसकी कुछ ज्यादा ही जरूरत थी। हालांकि मेरा एक आप्शनल हिन्दी साहित्य था। मैंने हिन्दी साहित्य में एमए किया था और मैं पिछले दो वर्षों से कॉलेज में इस विषय को पढ़ा भी रहा था। इसलिए मुझे इसमें अधिक तैयारी की जरूरत महसूस नहीं होती थी लेकिन इतिहास मेरा विषय नहीं रहा किन्तु उसमें मेरी रुचि बहुत थी। मुझे यह भी लगा कि इतिहास से जनरल नॉलेज की तैयारी में मुझे काफी सहायता मिलेगी। यही सोचकर मैंने दूसरा आप्शनल इतिहास को रखा। यही प्री का भी मेरा सब्जैक्ट था। हम लोगों के समय में प्री में जनरल स्टडीज का एक पेपर होता था और दूसरे पेपर के रूप में आपको कोई भी एक विषय चुनना पड़ता था।
मैं इन बातों की चर्चा इसलिए कर रहा हूं, ताकि आप यह समझ सकें कि आप्शनल के दोनों विषय काफी कुछ मेरी पकड़ में होने के बावजूद मैंने यह समझा कि इन विषयों पर अभी मेरी उतनी पकड़ नहीं है, जितनी सिविल सर्विस में होनी चाहिए। मैंने स्वयं को हड़बडी से बचाया और एक साल गैप लेकर 1982 में बैठने का फैसला किया। मुझे नहीं मालूम कि अगर मैं 1981 में बैठा होता, तो क्या होता। लेकिन मैं 1982 में बैठा, और जो हुआ, वह वही, जो मैं चाहता था। इसलिए मैं यह मानकर चलता हूँ कि शायद मैंने जो योजना बनाई, वह ठीक ही थी। क्या पता कि 1981 में बैठता और उसमें नहीं होता और बाद में जब 1982 में बैठता, तब उसमें भी नहीं होता। तब तो मैं कहीं का भी नहीं रह जाता। मैं बताना चाहूंगा कि हम लोगों के समय में कुल तीन अटैम्प्ट ही मिलते थे।.

मित्रों, अब मैं आता हूं अपने टाइम वाले हिस्से पर। इस तैयारी के दौरान मैं दो काम और कर रहा था। इनमें पहला था कॉलेज में पढ़ाना। और दूसरा था पीएचडी के लिए शोध करना। मैंने इन दोनों में से किसी को भी छोड़ा नहीं। यदि सच पूछें तो ये तीनों काम अलग-अलग होने के बावजूद कहीं न कहीं से एक भी थे। मैं कॉलेज में हिन्दी साहित्य पढ़ा रहा था। इसी विषय पर पीएच.डी. भी कर रहा था। हाँ, यह जरूर है कि मैं जो कुछ भी वहाँ पढ़ाता था, उससे मेरी तैयारी को बहुत ज्यादा मदद नहीं मिल पाती थी, क्योंकि मैं लगभग-लगभग वही सब कुछ पढ़ाता रहता था, जो पहले मैं पढ़ा चुका था। इससे यदि थोड़ा-बहुत फायदा होता भी था, तो केवल इतना कि इस प्रक्रिया में मैं विषय को दुहरा लेता था। मेरी पीएच.डी. के विषय का कोई सीधा संबंध मेरी सिविल सर्विस की तैयारी से नहीं था। फिर भी ये तीनों थे पढ़ने-पढ़ाने के काम, इसलिए हम मान लेते हैं कि ये तीनों अलग-अलग होने के बावजूद कहीं न कहीं एक भी थे।

छत्तीसगढ़ का अम्बिकापुर शहर छोटा शहर है। घर से कालेज तक साइकिल के जरिए पहुँचने में मुझे अधिकतम दस मिनट ही लगते थे। कॉलेज में मुझे 45-45 मिनट के केवल चार सत्र ही लेने पड़ते थे। यानी कि कुल तीन घंटे। लेकिन यह मामला केवल तीन घंटों का नहीं था। इसमें रोजाना सुबह दस बजे से लेकर शाम के चार बजे तक का समय खप जाता था। यह कुछ विचित्र ही मानवीय स्वभाव होता है कि जब आपको किसी के मदद की जरूरत पड़ती है, तो शायद उनसे ही मदद नहीं मिल पाती, जिनसे हम मदद मिलने की उम्मीद करते हैं। वहाँ के सभी प्रोफेसर्स को यह मालूम चल गया था कि मैं सिविल सर्विस की तैयारी कर रहा हूँ। साथ ही उन्हें यह भी मालूम था कि होना-जाना कुछ नहीं है। लेकिन वे आश्वस्त होना चाहते थे। ऊपरी तौर पर तो इसके लिए सभी मुझे प्रेरित करते थे और सीनियर प्रोफेसर्स अपनी ओर से हरसंभव सहायता देने का आश्वासन भी देते थे। लेकिन सच्चाई वह नहीं थी, जो कही जाती थी। हो इसके विपरीत रहा था। यदि मेरा विभाग चाहता तो बड़े आराम से मुझे लगातार चार क्लास लेने की अनुमति देकर तीन घंटे में कॉलेज से मुक्त कर सकता था। बचे हुए समय में मैं अपनी तैयारी कर लेता। लेकिन कॉलेज का मेरा टाइम टेबल कुछ ऐसा बनाया गया था कि मुझे पहली क्लास सुबह दस बजे लेनी होती थी, तो आखिरी क्लास शाम के तीन बजे।

लेकिन जो था, वह था। ऐसी स्थिति में हमारे पास केवल तीन ही उपाय होते हैं। या तो जो है, उसे बदल सकें, या हम छोड़-छाड़कर इससे अलग हो जाएं या कि जैसा है उसी में से अपना रास्ता निकालें। बदलने की कूबत मेरी थी नहीं। यदि छोड़-छाड़कर अलग हो जाता, तो हम खाते क्या? इसलिए एकमात्र तीसरा ही रास्ता बचा था और मैंने उसे ही अपनाया। तो अब मैं इस बात पर आता हूं कि फिर मैंने किया क्या-क्या-

  • मैं सुबह के वक्त को अध्ययन की दृष्टि से ‘अमृत का काल’ मानता हूँ। जरूरी नहीं कि आप भी ऐसा ही मानें। छोटे शहरों में वैसे भी रात में करने को कुछ होता नहीं है और सन अस्सी के आसपास तो टीवी का भी अवतार नहीं हुआ था। इस मायने में मैं भाग्यशाली था। किसी भी हालत में मेरी कोशिश होती थी कि मैं सुबह कम से कम डेढ़-दो घंटे की पढ़ाई तो कर ही लूंँ। मैं ऐसा करता ही था। यदि किसी दिन किसी कारण से ऐसा नहीं कर पाता था, तो दिन भर आत्मग्लानि में गलता रहता था। खुद को धिक्कारता रहता था। दिन भर अनमनापन बना रहता था। इसका मुझे फायदा यह हुआ कि यदि दिन भर के इस मानसिक कष्ट को झेलने से खुद को बचाना है, तो एकमात्र उपाय यह था कि किसी भी तरीके से सुबह डेढ़-दो घंटे पढ़ा ही जाए। तो इस प्रकार इस मजबूरी के लिए मैंने अपना ही एक साइकालॉजिकल मेकेनिजम तैयार कर लिया था।
  • पढ़ाई खत्म करने के बाद मैं सुबह घूमने निकल जाता था, जो मैं आज भी करता हूँ। यह एक घंटे का वक्त मेरे लिए विलक्षण अनुभूतियों वाला वक्त रहता है। प्रकृति का खुला वातावरण, चहकती हुई चिड़ियों की आवाज, धीरे-धीरे बहती हुई हवाएं, झूमते हुए पेड-पौधे, धीरे-धीरे स्पष्ट होता हुआ आकाश। ये सब मन को एक अलग ही तरह के उल्लास से भर देते थे।
    सुबह दिमाग में ऊर्जा अधिक होती है। किसी तरह का उलझाव भी नहीं रहता था। तो मैं इसका इस्तेमाल अपनी पढ़ी हुई उन बातों को दुहराने के लिए करता था, जो मैंने उसी दिन इससे ठीक पहले सुबह पढ़ी हुई होती थी। चुपचाप उन पढ़ी हुई बातों को दुहराता था। खासकर जहाँ लिंक टूटता था या मुझे लगता था कि मैं यहाँ भूल रहा हूँ, उनको अपने दिमाग में अलग से नोट कर लेता था।घर वापस आने के बाद मैं इन्हें ही किताब में ढूँढ़कर अपनी सोची हुई बातों को एक बार फिर से जोड़ लेता था। सच पूछिए तो इसका सबसे बड़ा फायदा मुझे यह हुआ कि जो बातें मैं भूल जाता था, चूंकि उन्हें ही मैं फिर से किताबों में देखता था;, तो स्वाभाविक तौर अब भले ही मैं दूसरी बातों को भूल जाऊँ, लेकिन ये बातें कभी भी भूल नहीं पाता था। मित्रों, तो इस तरह से मेरी जो सुबह की पढ़ाई होती थी, वह न केवल बहुत ही अच्छे तरीके से होती थी बल्कि सुबह की जो घुमाई होती थी, उसमें उस अच्छी पढ़ाई की एक प्रकार से और अधिक मजबूती देने जैसी स्थिति बन जाती थी।

फिर तो दैनिक जीवन की चीजें शुरू हो जाती हैं। तैयार होकर मैं क्लास-लेक्चर्स की तैयारी करता था। फिर कॉलेज के लिए निकल जाता था। सुबह दस बजे से लेकर चार बजे तक का वक्त कॉलेज में ही बीतता था। चूंकि घर पास में ही था, लंच घर पर आकर ही करता था।
एक काम मैं और करता था। कॉलेज में जो दस बजे से चार बजे तक का समय था, वह पूरी तरह से व्यस्त रहने वाला समय नहीं था। बीच-बीच में गैप्स मिलते थे। मैंने सोचा कि किस तरीके से इस खाली वक्त का उपयोग करूँ। मेरे पास कोई विकल्प भी नहीं था। अतः मैंने अपनी पूरी तैयारी को बहुत साफ तौर पर दो भागों में बांटा। पहला वह जो गंभीर किस्म के हैं और जिनकी तैयारी के लिए मुझे ज्यादा इत्मीनान चाहिए तथा एक ही बार में थोड़ा लम्बा वक्त भी चाहिए। दूसरे भाग में वह तैयारी थी, जो आमतौर पर ज्यादा गंभीर नहीं थी, और जिन्हें छोटे-छोटे टुकड़ों में भी पढ़ा जा सकता था। जो गंभीर बातें थी, उन्हें मैंने सुबह के लिए रख लिया और जो छुटपुट तैयारी थीं, उन्हें मैंने अपने कॉलेज के लिए रख लिया। अपने साथ मैं हमेशा इस तरह की किताबें, पत्रिकाएं, अखबार लेकर कॉलेज जाता था, जिन्हें मैं वहाँ पढ़ सकूँ। जैसे ही थोड़ा सा वक्त मिलता, मैं उस वक्त का इस्तेमाल कर लेता। सच पूछिए तो ये जितनी भी छोटी-छोटी तैयारियां होती थीं, उन्हें यदि जोड़ दिया जाए, तो उससे एक अच्छा-खासा बड़ा तैयार हो जाता था। वह सारा छुटपुट काम कॉलेज में ही निपट जाता था।

चार बजे घर लौटने के बाद फिर मैं डेढ़-दो घंटे का अपना समय अलग-अलग तरीके से बिताता था। कभी पीएच.डी. का थोड़ा काम कर लिया। कभी सिविल सर्विस की तैयारी थोड़ी-बहुत कर ली। हालांकि मैं बहुत साफ बता दूँ कि चूंकि सन् 1980 के रिजल्ट के बाद मैंने सीधे-सीधे 1982 में परीक्षा देने का फैसला किया था, इसलिए मेरे पास वक्त काफी लम्बा था। तो मैं इत्मीनान से अपनी तैयारी कर रहा था और मुझे लगता है कि शायद इस इत्मीनान का ही यह परिणाम रहा कि 1983 में जहाँ सिविल सर्विस की परीक्षा क्वालिफाई हुई, वहीं उसके कुछ ही दिनों के बाद मेरे पीएच.डी. का भी रिजल्ट आया था। दोनों में मुश्किल से पन्द्रह दिनों का फर्क रहा होगा। मुझे लगता है कि यदि मैंने अपने इन दोनों ही कामों को दबाव वाला बना दिया होता, यानी कि सिविल सर्विस में मैं 1981 में फिर से गया होता, तो शायद चीजें कठिन हो गई होतीं। या यूं कह लीजिए कि शायद उतनी बेहतर सफलता नहीं मिल पाती। खैर, सच जो भी रहा होता, मुझे कम से कम इस बारे में कोई संदेह नहीं कि मैंने जो निर्णय लिया, मेरी उस समय की परिस्थितियों को देखते हुए वह सबसे अधिक तार्किक था, सबसे अधिक व्यावहारिक था और शायद इसलिए भी वह परिणाम देने वाला हो सका।

दोस्तों, यहाँ मैंने अपनी तैयारी की बहुत मोटी-मोटी बातें एक कहानी के रूप में आपके सामने रखी है। अब मैं इनमें से कुछ वे छोटे-छोटे सूत्र आपके सामने रखना चाहूंगा, जिन्हें आप अपने तरीके से उपयोग में ला सकते हैं।

NOTE: This article by Dr. Vijay Agrawal was first published in ‘Civil Services Chronicle’.