कैसे पढ़ें-3
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सहायक पुस्तकों की भूमिका
यू.पी.एस.सी. ने एक सिलेबस निश्चित किया हुआ है- फिर चाहे वह सामान्य ज्ञान ही क्यों न हो। अधिकांश स्टूडेन्ट्स अपनी पढ़ाई को इस सिलेबस तक ही सीमित रखते हैं। इस सिलेबस को ध्यान में रखकर किताबें लिखी जाती हैं और नोट्स बनाए जाते हैं, जो बाजार में उपलब्ध हैं। स्टूडेन्ट्स के लिए यह सबसे सुविधाजनक होता है कि वे सिलेबस के आधार पर लिखी इन किताबों को खरीदें और पढ़ें। यह उपाय गलत नहीं है, क्योंकि अंतत: सिलेबस तो आपको पढऩा ही है। इसके बिना बात बनती नहीं है।
लेकिन क्या अन्य भी कोई ऐसा उपाय है जो सिलेबस के आधार पर प्राप्त ज्ञान के स्तर को न केवल बेहतर ही बना दे बल्कि उसे ऊपर भी उठा दे? यहाँ मैं जिस ‘बेहतर बनाने और स्तर ऊपर उठाने’ की बात कह रहा हूँ, वह मूलत: इस बात पर आधारित है कि आपमें नया क्या है। प्रत्येक स्टूडेन्ट उन्हीं किताबों को पढ़ता है, याद करता है, समझता है और उन्हीं के आधार पर अपने उत्तर लिख आता है। यदि आप भी वैसा ही करते हैं, तो आप भी उन्हीं सब जैसे बन जाते हैं। और इसीलिए मुझे लगता है कि सिलेबस से हटकर कुछ पुस्तकों का अध्ययन किया जाना आपके लिए बहुत अधिक उपयोगी हो सकता है। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? ऐसा इसलिए क्योंकि-
- ये सहायक पुस्तकें उन विषयों के प्रतिष्ठित विशेषज्ञों द्वारा लिखी जाती हैं। इसलिए इनमें विषय को गम्भीर तरीके से उठाया जाता है।
- सिलेबस के आधार पर लिखी गई पुस्तकें बहुत मैकेनिकल एवं तथ्यों का संकलन मात्र होती हैं। जबकि सहायक पुस्तकों में लेखक अपनी बात को बहुत विस्तार के साथ रसपूर्ण तरीके से रखता है। इसके कारण विषय हमारे दिमाग में बहुत स्पष्ट तरीके से रचता चला जाता है।
- इन पुस्तकों के लेखन में लेखक हमेशा अपने अनुभवों को शामिल करता है। अनुभव मूलत: किस्से-कहानी, उदाहरण और केस स्टडीज़ के रूप में होते हैं। इनके चलते विषय को समझना न केवल आसान हो जाता है, बल्कि रोचक भी हो जाता है।
- सहायक पुस्तकों में एक ही विषय को बहुत विस्तार के साथ बताने की कोशिश होती है। यह ठीक है कि इन्हें पढऩे में थोड़ा अधिक समय लगेगा, लेकिन क्या आई.ए.एस. जैसी नौकरी पाने में कम समय लगता है? यह समय लगाया ही जाना चाहिए।
- सिलेबस की पुस्तकें अधिकांश: नीरस होती हैं, लेकिन इन्हें पढऩा $जरूरी होता है। सहायक पुस्तकें उस नीरसता को सरसता में बदलने की ताकत रखती हैं।
- सिलेबस की किताबों के तथ्यों को याद किया जा सकता है, लेकिन इन सहायक पुस्तकों को नहीं। एक ही पुस्तक अनेक विद्यार्थी पढ़ेंगे, लेकिन उनमें से सभी विद्यार्थी अपने-अपने तरीके से अपने लिए सामग्री निकालेंगे और अपने-अपने तरीके से उसे समझेंगे भी। यही ‘अपना-अपना तरीका’ दूसरे स्टूडेन्ट्स की तुलना में आपको अलग बना देगा और तभी आप ‘भीड़ में अलग’ दिखाई देंगे, जो यू.पी.एस.सी. देखना चाहता है। इसलिए कुछ सहायक ग्रंथ बीच-बीच में पढ़ते रहना चाहिए।
अब यहाँ मैं आपको कुछ ऐसी पुस्तकों के नाम बता रहा हूँ, जो आपके लिए उपयोगी हो सकती हैं-
- मुक्त भारत- गुरुशरण दास
- भारतीय अर्थतंत्र: इतिहास और संस्कृति- अमत्र्य सेन
- भारतनामा- सुनील खिलनानी,
- भारत: नेहरू के बाद- रामचन्द्र गुहा
- भारत: गांधी के बाद- रामचन्द्र गुहा
- सत्य के प्रयोग- महात्मा गांधी
- भारत एक खोज- जवाहरलाल नेहरू
- स्वराज्य- अरविंद केजरीवाल
- उभरते भारत की तस्वीर- नंदन केणी
- संस्कृति के चार अध्याय- रामधारी सिंह दिनकर
- संस्कृति का प्रश्न- जे. कृष्णमूर्ति
- समय और संस्कृति- श्यामाचरण दुबे
- किसकी सदी, किसकी सहस्त्राब्दी- एजाज़ अहमद
- इस अंधेरे समय में विचार- विजय कमल
आँकड़ों से ऐसे निपटें
आँकड़े अक्सर डरावने होते हैं, और शुष्क भी। लेकिन अपनी बात को यथासम्भव प्रामाणिक रूप में प्रस्तुत करने के लिए कुछ सीमा तक ये जरूरी भी होते हैं। पर इनके साथ मुश्किल यह होती है कि ये बहुत याद नहीं रह पाते। यदि रहते भी हैं, तो दूसरों के साथ गड्डमगड्ड होकर मामले को गड़बड़ा देते हैं। अच्छे नम्बर लाने में आँकड़े हमारी मदद तो करते हैं, लेकिन तभी जब वे सही हों। गलत आँकड़े देने की बजाय आँकड़े न देना ही अधिक फायदे का सौदा होता है। इसलिए अनुमान के आधार पर आँकड़े देने से बचना चाहिए।
आँकड़ों के इस जाल में उलझकर रह जाने के बजाए कैसे उन्हें अपनी शक्ति बनाएँ, इस बारे में मैं यहाँ आपसे कुछ बातें शेयर करने जा रहा हूँ।
आँकड़ों को याद रखने के मुख्य तीन तरीके होते हैं। पहला यह कि अपने दिमाग में आँकड़ों का जमघट न लगाएँ। जो बहुत प्रमुख और जरूरी हैं, केवल उन्हें ही याद रखें। अन्यथा गड़बड़ी होने की आशंका रहेगी। उदाहरण के लिए, भारत की जनसंख्या पर हज़ारों तरह के आँकड़े हैं- कितने मकान हैं, गाड़ी वालों की संख्या कितनी है, किस जाति के लोग कितने हैं, शहरों की जनसंख्या, आर्थिक स्थिति के अनुसार जनसंख्या, शिक्षा के अनुसार जनसंख्या और भगवान जाने किन-किनके अनुसार जनसंख्या। अब आप इनमें से कितनों को याद रखेंगे? और यदि ज्य़ादा से ज्य़ादा याद करने के चक्कर में पड़ेंगे, तो सब कुछ भूल जाएँगे।
इसलिए यहाँ हमें ‘न’ कहने की आदत डालनी चाहिए। ‘हाँ’ कहने का मतलब है कि जो भी सामने आया, उसे याद कर लो। ‘न’ कहने का मतलब है कि जो भी सामने आया, उसमें से ज्य़ादातर को ‘न’ कह दो और केवल कुछ को ही याद करो। हमें केवल उन थोड़े-से ही आँकड़ों को दिमाग में जगह देनी चाहिए, जो हमारे लिए उपयोगी हैं और जिनका हम कई तरह से उपयोग कर सकते हैं। जैसे जनसंख्या की ही बात को लें, तो हमें मालूम होना चाहिए कि भारत की कुल आबादी कितनी है। इसमें शहरी और ग्रामीण आबादी कितनी है। कुल साक्षरता कितनी है। कितने प्रतिशत पुरुष और कितने प्रतिशत महिलाएँ साक्षर हैं। भारत में औसत आयु कितनी है। औसत आय कितनी है। जनसंख्या का घनत्व कितना है। महिला और पुरुष का अनुपात क्या है, आदि-आदि। इन मूलभूत आँकड़ों को जानना ही पर्याप्त है। ये मूलभूत आँकड़े हैं और इनका प्रयोग आप अपने को प्रभावशाली तरीके से व्यक्त करने के लिए कहीं भी कर सकते हैं।
दूसरा यह कि आँकड़ों को ‘इन्टरलिंक्ड’ करके याद करना चाहिए। यदि आप किसी एक ही आँकड़े को पढ़कर उसे याद रखना चाहेंगे, तो वह लम्बे समय तक दिमाग में नहीं टिकेगा। लेकिन यदि उसे कुछ अन्य आँकड़ों के साथ जोड़कर पढ़ेंगे, तो वह लम्बे समय तक याद रहेगा। यह ठीक उसी तरह है, जैसे मैंने किसी भी विषय को अन्तर्सम्बन्धित करके पढऩे के बारे में बताया है।
तीसरे यह कि अच्छा होगा कि आँकड़ों को आँकड़ों की तरह याद न करके गद्य की तरह याद करने की कोशिश की जाए। जैसे कि बजाय यह याद करने के कि भारत 2934 किलोमीटर लम्बा और 3286 किलोमीटर चौड़ा है, हम इसे इस तरह भी याद कर सकते हैं कि भारत लगभग तीन हज़ार किलोमीटर लम्बा और लगभग 3300 किलोमीटर चौड़ा है। इसी आँकड़े को हम इस प्रकार दोहरा भी सकते हैं कि भारत की चौड़ाई लम्बाई से लगभग 300 किलोमीटर अधिक है। यदि आँकड़ों को इस तरह का आधार दे दिया जाए, तो वे गड्डमड्ड नहीं होते।
निश्चित रूप से यह तो है ही कि यदि आँकड़ों को सही-सही याद रखना है, तो समय-समय पर उन्हें उपयोग में लाना होगा- या तो बोलचाल में या लिखने में या फिर पढ़कर दोहराने में। जिन आँकड़ों का उपयोग हम बार-बार करते हैं, वे चमक के साथ हमारे दिमाग में बने रहते हैं।