उत्तर लिखने का अभ्यास-1

Afeias
07 May 2017
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मुझे अक्सर अपने विद्यार्थियों से मिलना बहुत अच्छा लगता है। जब भी कोई ऐसा अवसर आता है, मेरी कोशिश होती है कि मैं अपने उस अवसर को गँवाने से बचूँ। यहाँ अभी मैं जिस घटना का जिक्र करने जा रहा हूँ, वह इस मायने में इकलौती नहीं है। लगभग इसी तरह के अनुभव मुझे अन्य स्थानों पर भी बार-बार होते रहते हैं। घटना कुछ यूँ है कि मैं एक शहर में अपने सबसे घनिष्ठ मित्र की लड़की की शादी में गया था। जैसा कि मैं अक्सर करता हूँ, मेरे बहुत से विद्यार्थी वहाँ इकट्ठे हुए, ताकि मैं उनकी तैयारी का जायजा ले सकूँ। हम सब आपस में एक-दूसरे को न केवल समझ ही सकें, बल्कि अपने संबंधों को नया भी कर सकें। मैं अपनी www.afeias.com की साइट पर हर सप्ताह सिविल सेवा की मुख्य परीक्षा के प्रश्नों के पैटर्न पर एक प्रष्न देता हूँ। ये प्रष्न ऐसे होते हैं, जिनकी परीक्षा में पूछे जाने की संभावना होती है। इस बारे में मुझे बहुत सफलता मिली है।

जब मैंने वहाँ मौजूद विद्यार्थियों से पूछा कि आपमें से कितने लोग हर सप्ताह दिए जाने वाले उन प्रश्नों को हल करते हैं, तो मैं उनके चेहरे पर उभरे हुए भावों से बहुत अच्छी तरह समझ सकता था कि उनके पास कहने के लिए कुछ विशेष नहीं था। यदि मैं प्रतिशत की भाषा में बात करूँ, तो केवल दो प्रतिशत विद्यार्थी ही ऐसे थे, जो हर सप्ताह दिए जाने वाले उन प्रश्नों के उत्तर लिखते थे। शेष सभी के पास उत्तर न लिख पाने के अपने-अपने तर्क थे, जिनसे मुझे कुछ भी लेना देना नहीं था। लेना देना तो उन्हें भी नहीं था। लेकिन स्वयं को समझाने के लिए उनके ये तर्क उनके लिए पर्याप्त हो सकते हैं, मेरे लिए नहीं।

यह मेरा न तो पहला अनुभव था और मैं इस बारे में भी निश्चित हूँ कि यह मेरा अंतिम अनुभव भी नहीं होगा। मैं विद्यार्थियों से चाहे लाख बार कहूँ, लाख-लाख विद्यार्थियों से कहूँ और अपने सबसे प्रिय एवं ऐसे विद्यार्थियों से कहूँ, जिनका मुझ पर बहुत अधिक भरोसा है, तब भी मुझे इससे अधिक भरोसा नहीं है कि मुश्किल से दो प्रतिशत विद्यार्थी ही मेरे इस अनुरोध को अंजाम में बदल पाएंगे। यह एक अद्भुत संयोग है कि लगभग 2 प्रतिशत विद्यार्थी ही ऐसा करते हैं और सिविल सर्विस का रिझल्ट कुल बैठे हुए विद्यार्थियों में से 0.2 प्रतिशत से कम होता है। ये सफल होने वाले 0.1 प्रतिशत विद्यार्थी, इन अभ्यास करने वाले दो प्रतिशत विद्यार्थियों में से ही आते होंगे, ऐसा मैं मानकर चलता हूँ।

मुझे सचमुच यह बड़ा विचित्र मनोविज्ञान मालूम पड़ता है कि यदि आप एक बड़ा काम करने जा रहे हैं और उस बड़े काम के होने केे लिए किसी भी काम का किया जाना जरूरी है, तो फिर उसे किया क्यों नहीं जाता। वह कौन-सी बाधा है, जो इसे नहीं होने देती। यदि यह कुछ लोगों के साथ होता, तब तो चिन्ता की बात नहीं थी। लेकिन यह अधिकांश लोगों के साथ होता है। कुछ ही लोग ऐसे होते हैं, जो अपने साथ ऐसा नहीं होने देते। यानी ये वे लोग हैं, जो वही होने की इजाजत देते हैं, जो वे चाहते हैं। जाहिर है कि फिर इनके साथ परिणाम भी वही होते हैं, जो वे चाहते हैं।

इसमें कोई दो राय नहीं कि लिखकर अभ्यास करने का काम एक बहुत उबाऊ काम है। साथ ही बहुत अधिक तनाव वाला भी। पहले तो प्रश्न को पढ़ो, फिर समझो, फिर सोचो और फिर लिखने की जहमत उठाओ। लिखने के दौरान भी अलग तरह के द्वन्द्व से गुजरो कि यह नही ंतो वह। वह नही ंतो यह। एक बार लिख लेने के बाद भी इस बात की गारंटी नहीं कि जो लिखा गया है, वह ठीक ही लिखा गया होगा। जैसे ही दिमाग में कुछ लिखने की बात आती है, अच्छी-खासी आती हुई नींद भी स्प्रीट की तरह उड़ जाती है और भूख का पता नहीं चलता। मन भी थोड़ा अनमना हो जाता है। अब आप ही बताइए कि कौन जान-बूझकर यह बवाल मोल लेना चाहेगा। इससे तो बेहतर यही है कि यह फैसला कर लिया जाए कि जब परीक्षा में पूछा जाएगा, तब हम बड़े आराम से उनके उत्तर दे लेंगे। वैसे भी अभी तक आप सब यही करते रहे हैं और बदले में सफलताएं भी मिलती रही हैं। फलस्वरूप आगे सफलता नहीं मिलेगी, यह सोचने का कोई कारण नजर आता नहीं है।

लेकिन इन सारे तर्कजालों के बीच में आप यह क्यों भूल कर बैठते हैं कि वहाँ पास होना था और यहाँ सेलेक्ट होना है। वहाँ दूसरे की बेहतरी आपकी बदतरी का कारण नहीं बन सकती। लेकिन यहाँ बन सकती है। ऐसी स्थिति में यदि आपकी सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी करने की टेकनीक कॉलेज की परीक्षा पास करने की टेकनीक ही रही तो मानकर चलिए कि आपसे एक बड़ी गलती हो रही है।

मैं यह तो नहीं कहता कि लिखने का अभ्यास न करना इतनी बड़ी गलती है कि वह आपको सफल विद्यार्थियों की सूची में शामिल ही नहीं होने देगी। कुछ ऐसे भी होते है, जो बिना अभ्यास किए भी उसमें शामिल हुए हैं। मैं ऐसे लोगों जानता हूँ। लेकिन सफल हुए जितने भी लोगों से मेरी मुलाकात हुई है, उनमें तीन-चौथाई से भी अधिक लोग वे थे, जिन्होंने परीक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण कुछ प्रश्नों का लिख-लिखकर अभ्यास किया था। हाँ, यह बात अलग है कि उनमें से कुछ लोगों ने थोड़ा ही अभ्यास किया था, कुछ लोगों ने उनसे थोड़ा ज्यादा और कुछ लोगों ने तो बहुत ही ज्यादा। यह कहना निश्चित रूप से गलत होगा कि सूची में उन्हें जो स्थान मिला। यानी कि उनकी जो रेंकिंग रही, वह बिल्कुल लिखने के इसी अभ्यास के समानान्तर ही रही। लेकिन चूंकि लिखने वालों का प्रतिशत काफी अधिक रहता है, इसलिए सैद्धान्तिक रूप से यह कहना काफी कुछ व्यावहारिक होगा कि लिखकर अभ्यास करने से सफल होने की संभावना अपेक्षाकृत बढ़ जाती है। ऐसा क्यों होता है, कैसे होता है, अब हम इसकी चर्चा करते हैं।

यह एक नैसर्गिक प्रक्रिया है
हम अपने जीवन में जो कुछ भी सीखते हैं, वह सिर्फ अभ्यास के ही कारण सीखते हैं। मैं सीखने की बात कर रहा हूँ, जानने की नहीं। आप अपने ही जीवन को देखें। आपने बैठना सीखा, फिर चलना सीखा, फिर दौड़ना सीखा, बोलना सीखा, अपने हाथ से भोजन उठाकर खाना सीखा, पढ़ना सीखा, साइकिल और बाइक चलानी सीखी, गाना गाना सीखा, क्रिकेट खेलना सीखा; ये सब कैसे सीखा? आपके पास इसके सिवाय कोई भी दूसरा उत्तर नहीं होगा कि ‘अभ्यास के द्वारा’। इनमें से कोई भी चीज़ ऐसी नहीं है कि या कि अन्य में से भी कोई चीज ऐसी नहीं है, जिसे हम अभ्यास के बिना सीख पाते हैं। या कि एक ही बार में सीख लेते हैं। हाँ, जान जरूर लेते हैं। लेकिन सीखने का काम तो अभ्यास से ही सधता है।

मैं अक्सर अपने विद्यार्थियों से एक प्रश्न करता हूँ। मेरा प्रश्न यह होता है कि आपमें से कौन-कौन ऐसे हैं, जो गाते हैं, फिर चाहे वे अकेले में ही गुनगुनाते क्यों न हो। इसके उत्तर में लगभग-लगभग सभी के हाथ उठ जाते हैं। फिर मैं उनसे अगला यह प्रश्न करता हूँ कि आप लोगों में से गायक कौन-कौन हैं। आप ताज्जुब करेंगे कि अब पांच प्रतिशत हाथ भी नहीं उठते। तो यहाँ संकट यह है कि गायक उसे कहते हैं, जो गाता है। चूंकि सभी गाते हैं, तो सभी को गायक होना चाहिए था। लेकिन जब मैं पूछता हूँ कि गायक कौन-कौन हैं, तो 95 प्रतिशत लोग खुद को परिभाषा की इस सीमा से बाहर कर लेते हैं। क्या आपको यह कुछ विचित्र विरोधाभास नहीं लगता? तो फिर यह है क्या?

दरअसल यहाँ बात व्याकरण की है, जिसे आप अनुशासन कह सकते हैं। वैसे तो हम सभी कभी न कभी गाते ही हैं, लेकिन गाया कैसे जाता है, यह हम नहीं जानते, क्योंकि हमने उसे सीखा नहीं है। बिना सीखे वैसे ही गाने लगे हैं। यानी कि हम जो गा रहे हैं, वह नैसर्गिक तौर पर एक सामान्य-सा गुण है। लेकिन यह नैसर्गिक गुण हमें गायक कहलाने का अधिकार नहीं दे देता। गायक तो वह होगा, जिसने बाकायदा स र ग म की शिक्षा ली हो और उसका अभ्यास भी किया हो। गायक वह होगा, जो गाने के व्याकरण को जानता है। वह व्याकरण को न केवल जानता ही है, बल्कि उसने उसका अभ्यास भी किया है। यदि उसने अभ्यास नहीं किया है, किन्तु व्याकरण को जानता है, तो वह इस विधा का शिक्षक तो हो सकता है, गायक नहीं हो सकता। कुल-मिलाकर यह कि गायक बनने के लिए उसे इसको विधिवत सीखना पड़ेगा और सीखने का यह काम अभ्यास के बिना नहीं हो सकता।

आपको दुनिया में शायद ही कोई ऐसा कलाकार मिलेगा, जो अभ्यास न करता हो। जैसे ही वह खुद को अभ्यास से अलग करता है, उसकी कलात्मक चमक फीकी पड़ने लगती है। कलाकार ही नहीं, बल्कि ऐसा कोई भी व्यक्ति, जो लगातार परफेक्शन को पाने की कोशिश में लगा हुआ है, अभ्यास करता ही करता है। वह तब भी अभ्यास करता है, जब उसे उसकी जरूरत नहीं होती। आपको क्या लगता है कि क्रिकेट का खिलाड़ी केवल उन्हीं दिनों प्रेक्टिस करता है, जब उसे मैच खेलना होता है? आप उसे जाकर पूछिए तो वह आपको बताएगा कि जहाँ तक अभ्यास की बात है ‘‘मुझे तो रविवार भी नहीं मिलता।’’ बल्कि सच तो यह है कि जब क्रिकेट मैच नहीं होते, तब वे सबसे ज्यादा अभ्यास कर रहे होते हैं।

दोस्तो, मैंने इस बात का थोड़ा विस्तार से उल्लेख इसलिए किया है, क्योंकि इस बारे में मेरा यह बहुत कटु अनुभव रहा है कि कई-कई बार कहने के बावजूद मैं विद्यार्थियों को यह विश्वास दिला पाने में बुरी तरह असफल रहा हूँ कि ‘‘अभ्यास करना चाहिए’। मुझे लगा यदि शायद मैं अपनी बात को कुछ अन्य लोगों के रूबरू रखकर कहूँ तो शायद आप पर उसका कुछ प्रभाव पड़े और आप ऐसा करने लगें।
अभ्यास की महिमा पर तुलसीदास जी ने दो बड़ी खूबसूरत पंक्तियां लिखी हैं। उनके शब्द हैं-

करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान
रसरि आवत जात है सिल पर परत निसान।।

इसका अर्थ यह है कि अभ्यास करते-करते एक मूर्ख व्यक्ति भी ज्ञानी बन जाता है, ठीक वैसे ही जैसे कि कुंए से बाल्टी और रस्सी द्वारा पानी निकालते समय जब रस्सी बार-बार कुंए के पत्थर से रगड़ खाती है, तो उस पत्थर पर भी निशान पड़ जाते हैं। सिविल सर्विस परीक्षा की तैयारी के बारे में भी यह सच है। जो शुरू से ही बहुत अच्छे विद्यार्थी रहे हैं, निश्चित रूप से उनमें ऐसे कुछ विशेष गुण तो होते ही हैं, जिनके कारण वे हमेशा अच्छे परिणाम लाते रहते हैं। यानी कि उनकी अपनी एक स्थिर क्षमता होती है। उनका अपना एक स्तर होता है। यह बात अलग है कि ठीक यही स्तर उन्हें सिविल सर्विस के स्तर के समकक्ष लाकर खड़ा नहीं कर देता। फिर भी कुछ तो अतिरिक्त लाभ की स्थिति में वे होते ही हैं। यहाँ मैं उनके बारे में बात नहीं कर रहा हूँ। तुलसीदास जी की ‘जड़मति’ की परिभाषा के दायरे में ये नहीं आएंगे। लेकिन वे क्या कारण हैं कि इसी परीक्षा में सफल होने वाले लगभग 50 प्रतिशत विद्याथी द्वितीय श्रेणी और यहाँ तक कि कुछ विद्यार्थी तृतीय श्रेणी के भी होते हैं? इसका उत्तर इस सत्य में निहित है कि ये वे विद्यार्थी हैं, जिन्होंने अभ्यास कर-करके अपनी गुणवत्ता को बदल लिया है।

यहाँ एक बात और है। मैं पिछले लगभग तीस वर्षों के परीक्षा-परिणामों के आधार पर यह बात दावे केे साथ कह सकता हूँ कि जो विद्यार्थी सिविल सर्विस में सफल होते हैं, उनमें सबसे बड़ी संख्या उन लोगों की होती है, जिनका अटेम्प्ट तीसरा, चौथा या उससे भी अधिक होता है। कम से कम पहला तो नहीं ही होता। यदि हम जानना चाहें कि ऐसा क्यों होता है, तो आमतौर पर इसका उत्तर ‘अनुभव’ शब्द से मिलता है। यानी कि परीक्षा देते-देते उन्हें परीक्षा देने का अनुभव हो गया है। उनमें प्रौढ़ता आ गई है। उनकी समझदारी बढ़ गई है। इसी का फायदा उन्हें मिलता है। क्या आपको लगता है कि इस अनुभव शब्द में कहीं न कहीं अभ्यास शब्द के गुण भी शामिल हैं।

मैं यहाँ यह मानकर चल रहा हूँ कि यदि अनुभव प्राप्त करने का यह काम हम किसी अन्य माध्यम से प्राप्त कर सकते हैं, तो प्राप्त क्यों नहीं कर लेना चाहिए। लिखने का अभ्यास इसी तरह का एक माध्यम है।

यहाँ मैं अपनी एक अन्य बात को स्पष्ट करने के लिए साइकिल, बाइक या कार चलाने का उदाहरण देना चाहूँगा। आप उन दिनों को याद करने की कोशिश कीजिए, जब आप इन तीनों में से कोई एक वाहन चलाना सीख रहे थे। शुरूआत में कितना भय लगता था। एक-एक काम को याद कर-करके करना पड़ता था कि गीयर बदलने से पहले क्लच को दबाओ। फिर क्लच को धीरे-धीरे छोड़ो। ब्रेक के लिए दाहिने पैर का इस्तेमाल करो आदि-आदि। लेकिन जब आप चलाने लगे और चलाते-चलाते कुछ दिन हो गए, तो क्या आपको उसी तरह से भय लगता था और कुछ भी करते समय करने की तकनीकी को याद करना पड़ता था? या कि अब सारी प्रक्रियाएं अपने-आप हो रही थीं। जब भी जिसकी जरूरत पड़ रही थी, आप याद किए बिना ही उसे कर रहे थे। यहाँ तक कि सोचते भी नही थें। यदि आप गाड़ी चला रहे हैं और आपको अचानक ब्रेक लगाना पड़ गया, तो आप देखेंगे कि अपने-आप ही आपका दाहिना पांव ब्रेक को दबायेगा न कि बांया पांव क्लच को। जबकि दोनों ही पांव किसी न किसी के ऊपर रखे हुए होते हैं। यहाँ सोचने की बात यह है कि आपने उस भय को इतनी निडरता में कैसे बदला? और यह भी कि उस समय जिसे इतनी सतर्कता के साथ करना पड़ता था, उसे आप इतनी सहजता से कैसे कर रहे हैं? यहाँ तक पहले की तुलना में अधिक अच्छे तरीके से भी? यहाँ सोचने की बात यह है कि यह सब हुआ कैसे?

इस उदाहरण के माध्यम से मैं कहना यह चाह रहा हूँ कि जब हम किसी भी तरह का अभ्यास करते हैं, तो अभ्यास की यह प्रक्रिया धीरे-धीरे उन सब को हमारे अवचेतन मन में पहुँचा देती है। वे हमारे चेतन मन से होते हुए अवचेतन मन में पहुँचकर वहाँ कुछ इस तरीके से दर्ज हो जाते हैं कि जब भी उनमें से किसी की जरूरत पड़ती है, वे हमारी मदद करने के लिए तत्काल उपस्थित हो जाते हैं। सच पूछिए तो अभ्यास का उद्देश्य केवल परफेक्शन प्राप्त करना नहीं होता, बल्कि उस पूरी की पूरी प्रक्रिया को अपने अवचेतन मन तक पहुँचाना भी होता है। वैसे इसे यूं भी कहा जा सकता है कि कोई प्रक्रिया अवचेतन मन में दर्ज हो जाती है, तो वह प्रक्रिया परफेक्शन को तो प्राप्त नहीं करती, लेकिन वहाँ से परफेक्शन की यात्रा शुरू हो जाती है। अब यह हमारे ऊपर है कि हम इस रास्ते पर कितनी लम्बी यात्रा करते हैं। यात्रा जितनी लम्बी होगी, परफेक्शन उतना ही अधिक होगा।

अब यह आपके ऊपर है कि आप सिविल सर्विस परीक्षा में लिखे गये अपने उत्तरों को कितना परफेक्ट बनाना चाह रहे हैं। हो सकता है कि आप बिना अभ्यास के भी ऐसे उत्तर लिखकर आ जाएं, जो आपको सफलता दिला देंगे। यहाँ तक कि आप भारतीय प्रशासनिक सेवा में भी आ जाएंगे। लेकिन यहाँ इस बात की संभावना तो बच ही जाती है कि यदि आपने अभ्यास किया होता तो आपके ये ही उत्तर और अधिक अच्छे बने होते और आपको पहले से अधिक नम्बर मिलते। यदि ऐसा होता, तो रैंकिंग पर फर्क पड़ता। आप जानते ही हैं कि किसी भी सेवा में आगे का कैरियर इस बात पर निर्भर करता है कि अपने बैच में आपकी रैंकिंग क्या रही है। यदि आप थोड़ा सा वक्त अभ्यास को देकर और उस अभ्यास के दौरान होने वाले तनाव को झेलकर अपनी रैंकिंग बेहतर कर सकते हैं, तो ऐसा क्यों नहीं किया जाना चाहिए। और कुछ नही ंतो कम से कम नुकसान तो नहीं ही होगा।

अभ्यास के मायने
एक यह बात आपके दिमाग में बिल्कुल साफ होनी चाहिए कि जब उत्तर लिखने के अभ्यास करने की बात कही जाती है, तो उसका सीधा-सीधा मतलब इस बात से होता है कि कुछ ऐसे प्रश्नों के उत्तर लिखे जाये, जिनके परीक्षा में पूछे जाने की सबसे अधिक संभावना है। इसका मतलब यह कतई नहीं कि जो भी प्रश्न मन में आया उसी का उत्तर लिखना शुरू कर दिया गया। प्रश्नों का चयन कैसे करेंगे इसके बारे में इसी पुस्तक में एक अलग अध्याय में बताया गया है। वहाँ से आप मदद ले सकते हैं। लेकिन इससे पहले कि आप लिखने का अभ्यास करें, मुझे लगता है कि यह बताना बहुत उपयुक्त होगा कि वस्तुतः जब उत्तर लिखने के अभ्यास की बात कही जाती है, तो उसका अर्थ क्या होता है।

मैंने अक्सर पाया है कि अधिकांश विद्यार्थी इसे महज एक औपचारिकता के तौर पर लेते है। उन्हें लगता है कि कुछ उत्तर लिखने चाहिए और वे उत्तर लिखकर अपने आपको संतुष्ट कर लेते हैं। इससे आपको संतुष्टि तो मिल जाती है, लेकिन आप जिस उद्देश्य से उत्तर लिख रहे हैं, वह उद्देश्य पूरा नहीं होता। इससे तो अच्छा यही है कि उत्तर लिखा ही न जाए। यह मैं इसलिए कह रहा हूँ, क्योंकि ऐसी स्थिति में आप बेकार में ही अपना समय नष्ट कर रहे हैं। साथ ही अपनी क्षमता भी लगा रहे हैं। बेहतर होगा कि आप इस समय का इस्तेमाल किसी और अच्छे और सही काम के लिए कर लें।

इसलिए मुझे लगता है कि आपके सामने मैं इस बात को स्पष्ट करूँ कि वस्तुतः इसका अर्थ होता क्या है।

  • पहली और सबसे बड़ी बात तो यह कि उत्तर लिखने का मतलब कभी भी अपने पढ़े हुए को दुहराना नहीं होता। दुुहराने का काम तो आप मन ही मन में भी कर सकते हैं। बोलकर भी कर सकते हैं। कुछ-कुछ प्वाइंट लिखकर भी कर सकते हैं। इसलिए अभ्यास को दुहराने का पर्याय समझने की भूल नहीं की जानी चाहिए। जब आप दुहराने की नीति को लेकर चलते हैं, तो यह स्वाभाविक ही है कि आप कभी भी पूछे गए प्रश्न के अनुकूल अपना उत्तर नहीं लिख पाएंगे। उस समय आपके दिमाग में लगातार यही चलता रहेगा कि ‘‘मैं ऐसा क्या करूँ कि इसके बारे में मुझे जो कुछ भी मालूम है, उसे मैं लिख डालूँ।’’ यह दुहराना हुआ, उत्तर लिखना नहीं। ज्यादातर विद्यार्थी उत्तर लिखने के नाम पर दुहराने का ही काम करते हैं।
  • दरअसल, उत्तर लिखने के अभ्यास के पीछे कई उद्देष्य होते हैं, जिनमें से एक महत्वपूर्ण उद्देश्य होता है-लगातार स्वयं को करेक्ट करते जाना। मेरी इस बात को आप तब ज्यादा अच्छे से समझ पाएंगे, जब एक उत्तर लिखने का अभ्यास करें। जब आप उत्तर लिख लेते हैं, तो निश्चित रूप से आपको उसे जाँचना भी चाहिए। जाँचने का मतलब यह नहीं कि आप उसे पढ़ें, और फैसला कर लें कि ‘‘मैंने कैसा लिखा है’’। यहाँ जाँचने का मतलब यह है कि अपने लिखे हुए उत्तर को अपने पास मौजूद सामग्री से मिलाकर देखें। आप पाएंगे कि कई बातें आपसे छूट गई हैं। छूट ही जाती हैं। यहाँ आपको यह सोचना चाहिए कि ऐसा आपसे क्यों हुआ। अब जो तथ्य छूट गए थे, वे आपके दिमाग में स्थायी रूप से दर्ज हो जाएंगे। इस प्रकार आपका उत्तर लगातार करेक्ट होता चला जाएगा।
  • इस अभ्यास के जरिए आप क्रमशः उत्तर देने के परफेक्शन के अधिकतम निकट पहुँच सकते हैं। यहाँ परफेक्शन से मेरा मतलब केवल तथ्यों की सम्पूर्णता से नहीं है, बल्कि इसके साथ ही साथ लिखने की शैली, निर्धारित शब्दों की सीमा, सटीक भाषा का प्रयोग तथा उत्तर के सम्पूर्ण ढाँचे से भी है। सच पूछिए तो उत्तर लिखना विज्ञान कम, कला अधिक है। यह एक प्रकार से स्वयं को अभिव्यक्त करने का तरीका है, जो तथ्यों और भाषा के माध्यम से व्यक्त होता है। बहुत से विद्यार्थी ऐसे होते हैं, जिनके पास तथ्य तो कमाल के होते हैं, लेकिन जब उन तथ्यों को बताने की बारी आती है, तब वे अपने-आपको बेहद फिसड्डी साबित कर देते हैं। ऐसा केवल बोलने में ही नहीं होता, बल्कि लिखने में भी होता है।
    तो फिर इसका उपाय क्या है? इसका एकमात्र उपाय यह है कि अधिक से अधिक लिखने का अभ्यास किया जाए। इससे आप मंजते चले जाएंगे और धीरे-धीरे आपके लिखने की यह शैली आपके अवचेतन मन में स्थिर होकर आपको बेहतर बना देगी।
  • मैंने अपने अनुभव से इस कमाल को जाना है कि इसके माध्यम से हम विस्मृति को अपनी स्मृति में शामिल कर लेते हैं। यहाँ मैं थोड़ी हटकर बात कह रहा हूँ। इसका संबंध उत्तर लिखने से उतना नहीं है, जितना कि तथ्यों को लिख लेने से है। पहला उपाय तो यह है कि हम तथ्यों को पढ़कर रट लें। दूसरा उपाय यह है कि हम तथ्यों को पढ़ें, रटें भी और इसके बाद उन्हें लिख भी लें। वस्तुतः जैसे ही हम उसे लिखते हैं, वे तथ्य हमारे दिमाग में अधिक गाढ़े रूप में अंकित हो जाते हैं। इससे उनमें वहाँ अधिक समय तक बने रहने की ताकत पैदा हो जाती है। ऐसा तो नहीं होता कि फिर हम उसे कभी भूलेंगे ही नहीं, लेकिन यह अवश्य हो जाता है कि कम से कम परीक्षा देने तक तो वे तथ्य वहाँ बने ही रहते हैं।
  • उत्तर लिखने के अभ्यास का एक बड़ा लाभ यह होता है कि वह विषय हमारे दिमाग में एक विशेष लय के साथ रच-बस जाता है। उत्तर की एक लय हम महसूस करते हैं और जब परीक्षा में उसी टॉपिक पर उत्तर लिखने की स्थिति बनती है, तो हमारे अन्दर मौजूद यह लय एक जादू की तरह काम करती है। तब हमारे दिमाग को उत्तर लिखने के लिए बहुत अधिक जद्दोजहद नहीं करनी पड़ती। क्रम से तथ्य दिमाग में आते चले जाते हैं और हम कागज पर उन्हें उतार देते हैं। इसमें बहुत मजा आता है।
  • जब तथ्य अपने-आप दिमाग में आने लगें और हम उन तथ्यों को पहले से ही मौजूद एक ढाँचे के अन्तर्गत बिना किसी दबाव और द्वन्द्व के कागज पर उतारने लगें, तब आप समझ सकते हैं कि इससे कितने अधिक समय की बचत होगी। उत्तर लिखने में जो समय लगता है, वह दो विशेष कारणों से। पहला तो यह कि समझ में नहीं आता कि इस प्रश्न के उत्तर में हम क्या-क्या लिखें। दूसरा यह कि बाद में जब लिखने की शुरूआत कर देते हैं, तो तथ्य दिमाग में जितनी तेजी से आने चाहिए, उतनी तेज गति से नहीं आ पाते। फलस्वरूप लिखने की स्पीड अपने-आप ही कम हो जाती है। निश्चित रूप से इसके कारण उसी उत्तर को पूरा करने में उसकी तुलना में अधिक समय लग जाता है, जिसे हम बहुत अच्छी तरह से जानते थे या फिर जिसका हमने पहले से अभ्यास कर रखा है। यहाँ जितने समय की आपकी बचत हो रही है, उसका इस्तेमाल आप उन प्रश्नों को अच्छी तरह हल करने में कर सकते हैं, जहाँ थोड़ा सोच-विचार करने की जरूरत हो।
  • ऐसा कभी नहीं होगा कि आपने चालीस प्रश्नों के उत्तर लिखने का अभ्यास किया है और उसमें से बीस प्रश्न पूछ लिए जाएंगे। ऐसा हो ही, इसकी जरूरत भी नहीं है। जरूरत सिफ इस बात की होती है कि आप यदि चालीस प्रश्नों के उत्तर लिखते हैं, तो उनमें से छः-सात प्रश्न परीक्षा में पूछ लिए जाएं। इतने से ही आप कमाल कर जाएंगे। खासकर दूसरों की तुलना में तो कमाल हो ही जाएगा। यह कम बड़ी उपलब्धि नहीं होगी। सच पूछिए तो ऐसा ही किया जाना चाहिए।
    यदि मैं सामान्य अध्ययन के उत्तर लिखने की बात करूँ, तो मेरी यह राय होगी कि एक पेपर के लिए बीस प्रश्नों के उत्तर लिखने का अभ्यास किया जाना पर्याप्त होगा। हाँ, यह जरूर है कि ये बीस प्रश्न सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न हों। साथ ही ये प्रश्न अलग-अलग क्षेत्रों से लिए गए हों। इससे आपके अन्दर हर तरह के विषय से संबंधित पूछे गए प्रश्नों के उत्तर देने की ताकत आ जाएगी।
  • निश्चित रूप से जब आप लिखने का अभ्यास करते हैं, तो ऐसा करके आप स्वयं को विस्मृति की कमजोरी से बचा लेते हैं। यह बचाव केवल इसी रूप में नहीं होता कि जब आप अपने लिखे हुए उत्तर को जाँचते हैं, तो छूटे हुए अंशों पर ध्यान जाने के कारण वे तथ्य दिमाग में अच्छी तरह बैठ जाते हैं। बल्कि इससे भी कहीं अधिक वे इस रूप में आपकी मदद करते हैं कि जब आप लिखने के बारे में सोचते हैं, तो केवल वही नहीं सोचते जो आपको लिखना होता है। बल्कि पता नहीं कौन-कौन से अन्य विचार और कौन-कौन से अन्य तथ्य चाहे-अनचाहे रूप में आपके मस्तिष्क के पटल पर उभरते हैं। फिर आप उनमें से कुछ को लेते हैं और बहुत कुछ को छोड़ भी देते हैं। इस प्रकार दिमाग के दायरे में उस टॉपिक से संबंधित लगभग-लगभग सभी तथ्य आ जाते हैं।
    जबकि यदि आप अभ्यास के स्थान पर पढ़े गए विषय को सिर्फ दुहराने का काम करते हैं, तब जरूरी नहीं कि सभी तथ्य आपके दिमाग में आएं। ऐसी स्थिति में विचारों के आने की संख्या तो और भी कम हो जाती है। इसका कारण साफ है कि दुहराने के दौरान आपका दिमाग किसी भी तरह की जद्दोजहद से नहीं गुजरता। वह बहुत ही सरलता के साथ अपना काम पूरा कर लेता है। इस समय दिमाग की गुरूत्वाकर्षण शक्ति उतनी तीव्र नहीं होती, जितनी उत्तर लिखने के दौरान होती है। इसलिए दुहराने की तुलना में उत्तर लिखने का अभ्यास हमारे लिए अधिक फायदेमंद होता है।

मैंने यहाँ जो बातें आपसे कहीं हैं, सच पूछिए तो इनके केन्द्र में मेरा अपना अनुभव ही अधिक रहा है। बीच-बीच में कहीं-कहीं दूसरों के अनुभव भी इसमें शामिल हो गए हैं। फिलहाल इसके बारे में मैं इतना ही कह सकता हूँ कि आप उत्तर लिखने के अभ्यास को एक यांत्रिक प्रक्रिया (मैकेनिकल प्रोसेस) न मानकर व्यापक रूप में देखें। तभी आप इसका पूरी तरह लाभ भी उठा पाएंगे। आपको ऐसा करने की कोशिश करनी चाहिए।

NOTE: This article by Dr. Vijay Agrawal was first published in ‘Civil Services Chronicle’.

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