प्रतियोगी परीक्षा के चरित्र को जानें

Afeias
25 Apr 2014
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विष्णु भगवान हैं और शिव भी भगवान हैं। दोनों भगवान हैं। कमल भी फूल है और धतूरा भी फूल है। ये दोनों फूल हैं। मेरा यहाँ आपसे एक छोटा-सा, विनम्र किन्तु व्यावहारिक और अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या धतुरे का फूल भगवान विष्णु पर केवल यह सोचकर चढ़ाया जा सकता है कि आखिर यह भी तो फूल ही है? इसका उत्तर हमारे पूर्वजों ने अपने तरीके से इस मुहावरे के जरिए हमें दिया है कि ‘जैसी देवता वैसी पूजा।’ भगवान शिव को तो धतूरा चढ़ सकता है, लेकिन भगवान विष्णु को नहीं।

आप इसी बात को परीक्षा तथा प्रतियोगी परीक्षा पर लागू कर सकते हैं। हैं तोे ये दोनों ही परीक्षा, लेकिन इसके बावजूद दोनों एक नहीं हैं। यदि एक होते, तो दूसरे के आगे प्रतियोगी शब्द लगाने की जरूरत पड़ती ही नहीं। मुझे लगता है कि इससे पहले कि आप आय.ए.एस. की ही नहीं बल्कि किसी भी प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करें, आपको उस परीक्षा के स्वरूप और चरित्र के बारे में अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। यह ठीक उसी तरह है जैसे कि आप किसी नए स्थान पर जाने से पहले वहाँ के मौसम तथा अन्य बातों के बारे में पता कर लेते हैं, ताकि उसी के अनुसार अपनी तैयारी कर सकें। मौसम के अनुकूल कपड़े रख सकें। मई के मौसम में, भले ही वह गर्मी का मौसम ही क्यों न हो, यदि आप मसूरी जाने का प्लान करते हैं, तो आपके हाथ में छाता होना ही चाहिए।

मुझे यह सुनकर और देखकर भी बहुत दुख होता है कि सालों से लड़के, युवक तथा ऊर्जावान लड़के लगातार आय.ए.एस. की तैयारी कर रहे हैं। दिल्ली का मुखर्जी नगर तो अब इसके लिए इतना प्रसिद्ध हो चुका है कि मुखर्जी नगर का मतलब ही हो गया है ‘आय.ए.एस. की तैयारी करने वाले विद्यार्थियों का द्वीप।’ पढ़ रहे हैं। रात-दिन पढ़ रहे हैं। आँखों के चश्मे का नम्बर बढ़ गया है। गाल पिचक गए हैं तथा चेहरे की चमक भी मद्धिम पड़ गई है। लेकिन न तो अभी तक सफलता मिली है और शायद अब आँखों में भविष्य की सफलता की वह चमक भी उस तरह नहीं रही, जो पहले कभी थी। आखिर ऐसा होता क्यों है? क्या सचमुच यह परीक्षा इतनी अधिक कठिन है कि इस किले को भेदना लगभग असम्भव सा है? या कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारे ही भेदने की तकनीकी में कोई ऐसी कमी रह गई है, जिसने इतना मजबूत न होने के बावजूद आई.ए.एस. रूपी इस किले को कुछ ज्यादा ही मजबूत बना दिया है। यदि आपको टेढ़े-मेढ़े पाइप के उस पार कोई लम्बी वस्तु पहुँचानी है, तो उसके लिए लोहे की छड़ उपयोगी नहीं हो सकती। उसके लिए तो एक ऐसी लचीली वस्तु ही चाहिए, रस्सी की तरह, जो उस टेढ़े-मेढ़े पाइप के आकार के अनुसार जरूरत पड़ने पर खुद को बदल ले।

ठीक यही स्थिति प्रतियोगी परीक्षाओं की भी होती है और खासकर आय.ए.एस. की परीक्षा की तो बहुत ही ज्यादा होती है। यदि एक बार आपकी समझ में आ जाता है कि आई.ए.एस. की परीक्षा की इस लोहे जैसी दिखाई देने वाली मजबूत और ऊँची दीवार को लाँघा कैसे जा सकता है, तो फिर आप उसे तोड़ने के चक्कर में अनावश्यक रूप से अपना माथा फोड़ने की कोशिश छोड़ देते हैं। आखिर उद्देश्य आपका दीवार को तोड़ना नहीं बल्कि दीवार के उस पार पहुँचना है और यह काम लांघकर भी किया जा सकता है। मुझे लगता है कि इस लिहाज से प्रतियोगी परीक्षा के रंग-रूप को समझ लेना बहुत उपयोगी होगा, ताकि आप खुद को उसी मानसिकता में ढालकर अपनी तैयारी शुरू कर सकें।

मैं यह जो बात लिख रहा हूँ, उसके ढ़ेर सारे प्रमाण मौजूद हैं । इससे बड़ा प्रमाण भला और क्या होगा कि इस परीक्षा के आँकड़े बताते हैं कि पचास प्रतिशत सिलेक्टेड़ विद्यार्थी वे होते हैं जिनके पास फस्र्ट क्लास की डिग्री नहीं होती। इन आँकड़ों को देखने के बाद मन में एक सवाल सहज रूप में ही उठता है कि क्या जिस आई.ए.एस. की प्रारम्भिक परीक्षा के लिए लगभग चार-पाँच लाख विद्यार्थी एप्लाइ करते हैं, उनमें से एक हजार विद्यार्थी भी ऐसे नहीं होते, जो टॉपर रहे हों या कम से कम फस्र्ट डिवीजन तो रहे ही हों? निश्चित तौर पर इनकी संख्या कई हजार की होती है। तो फिर ऐसा क्यों होता है कि ये टॉपर और पीएचडी होल्डर्स लिस्ट से बाहर हो जाते हैं और उस लिस्ट में सैकेण्ड एवं थर्ड डिवीजनर्स तक को जगह मिल जाती है। ऐसा नहीं है कि यह इत्तफाकन ही हो जाता है, जिसे आप ‘बिल्ली के भाग्य से छींका टूटना’ का नाम दे सकें। आई.ए.एस. की परीक्षा में तुक्का नहीं लगता और यदि चलिए मान भी लेते हैं कि कभी-कभी लग भी जाता है, तो वह पचास प्रतिशत पर तो नहीं ही लगेगा।

यह इस तथ्य को साफ तौर पर प्रमाणित करता है कि ये सैकेण्ड और थर्ड डिवीजनर्स विद्यार्थी वे विद्यार्थी थे, जिन्होंने अपने-आपको प्रतियोगी परीक्षा के अनुकूल ढाल लिया। जो टॉपर और फस्र्ट डिवीजनर्स इसमें नहीं आ पाए, वे वे विद्यार्थी थे, जो विश्वविद्यालयीन परीक्षा के पैटर्न पर ही आय.ए.एस. की परीक्षा देते रहे और लिस्ट से बाहर हो गए।

विद्यार्थियों को आय.ए.एस. की तैयारी कराते समय मुझे जो सबसे बड़ी दिक्कत आई है, वह यही है कि उन्होंने अपने-आपको ठोस पदार्थ से ऐसे द्रव पदार्थ में बदलने से इंकार कर दिया कि वे आई.ए.एस. के साँचे में फिट हो सकें। मेरी स्वयं की सीमा यह रही कि मैं उन्हें समझा तो सका, लेकिन बदल नही सका। मेरी इतनी कूबत नहीं है कि मैं यू.पी.एस.सी. को बदल सकूँ। अन्ततः नुकसान विद्यार्थियों को ही उठाना पड़ा। वे अपने कॉलेज के पढ़ने के ढ़ंग तथा उत्तर लिखने की शैली में कोई बदलाव नहीं ला सके। हाँ, एक बदलाव वे जरूर लाए और वह बदलाव था-एक ही विषय पर कई-कई लेखकों की किताबें पढ़ना और यहाँ तक कि अच्छे-अच्छे लेखकों की किताबें पढ़ना। पढ़ना ही नहीं, बल्कि उन्हें रट भी डालना। लेकिन सिविल सर्विस को इन दोनों में से किसी की जरूरत नहीं होती। और जिस तीसरी चीज़ की जरूरत होती है, वह इनके पास होती नहीं। इस प्रकार दोनों में तालमेल नहीं बैठ पाता और नतीजा बिना विवाह के ही तलाक का हो जाता है-‘तू तेरी राह, मैं मेरी राह।’

यह मेरा एक कडुवा एवं दुखद अनुभव रहा है और इसकी चर्चा मैंने इससे पहले भी की है। पता नहीं विद्यार्थियों को ऐसा क्यों लगता है कि आय.ए.एस. की तैयारी के लिए केवल पढ़ना ही पर्याप्त है। यदि आप उन्हें तैयारी के लिए कुछ दूसरी अन्य महत्वपूर्ण बातें बताने लगें, तो थोड़ी ही देर में उन्हें जम्हाइयाँ आने लगती हैं और आप उन्हें इधर-उधर ताकते हुए आसानी से देख सकते हैं। वे सोचते हैं कि भला इसका हमारे आय.ए.एस. की तैयारी से क्या लेना-देना है। अमेरीका के महान राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने इस बारे में एक बहुत जोरदार बात कही थी जिसे मैं यहाँ आप लोगों को बताना चाहूँगा। उन्होंने कहा था कि ‘‘यदि मुझे कोई लकड़ी काटने के लिए छः घंटे दे, तो मैं उसमें से चार घंटे अपनी कुल्हाड़ी की धार तेज करने में लगाऊंगा।’’ यह बहुत महत्वपूर्ण कथन है और इसे आपको समझने की कोशिश करनी चाहिए। अब्राहम लिंकन कहना यही चाह रहे हैं कि काम करना, ज्यादा से ज्यादा काम करना ही महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि तरीके से काम करना उससे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है। यदि आप अपनी कुल्हाड़ी की धार को बहुत तेज कर लेते हैं, तो दो घंटे में ही आप उससे अधिक लकड़ियाँ काट लेंगे, जितना आप लगातार छः घंटे में काटते। यानी कि पढ़ने के परे भी कुछ ऐसी बातें होती हैं, जो पढ़ने से कम महत्वपूर्ण नहीं होतीं।

तो आइए, अब देखते हैं कि अन्ततः प्रतियोगी परीक्षा का वह चेहरा-मोहरा होता क्या है, जो उसे अन्य परीक्षाओं से अलग करता है।

सिलेक्शन की पद्धति

मैं इसे प्रतियोगी परीक्षा का वह महत्वपूर्ण चरित्र मानता हूँ, जो इसे समस्त महाविद्यालयीन परीक्षाओं से अलग कर देती है। कॉलेज की परीक्षाएँ पास और फेल होने की नीति पर आधारित रहती हैं। वहाँ न्यूनतम अंक ले आइए, आपका वह साल सार्थक हो जाएगा और आप अगली क्लास में पहुँच जाएँगे। इस तरह पहुँचते-पहुँचते अन्त में आपको एक डिग्री मिल जाएगी।

प्रतियोगी परीक्षाएँ ऐसी नहीं होतीं। यहाँ पास और फेल का सिद्धान्त काम नहीं करता, सिलेक्शन का सिद्धान्त काम करता है। प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए सिलेक्ट किए जाने वाले विद्यार्थियों की संख्या पहले से ही घोषित होती है। परीक्षा आयोजित की जाती है और अन्तिम परिणाम में मेरिट के आधार पर उतने विद्यार्थी चयनित घोषित कर दिए जाते हैं, जितने अधिकारियों की उन्हें जरूरत होती है। जाहिर है कि ऐसी स्थिति में हो सकता है कि आपने परीक्षा में माक्र्स तो साठ प्रतिशत स्कोर किए हों, लेकिन आप सिलेक्ट नहीं हो पाए हों। इसका मतलब यह हुआ कि जो सिलेक्ट हुए हैं, उनके माक्र्स आपकी तुलना में अधिक थे। अब आपको फिर से परीक्षा में बैठना पड़ेगा। इस परीक्षा के अंकों की कोई रियायत आपको अगले साल की परीक्षा में नहीं मिलेगी और न ही इस बात का कोई सर्टीफिकेट मिलेगा कि आपने इस स्तर तक की सफलता प्राप्त कर ली है।
यह मूलतः काम्पीटिशन पर आधारित एक ऐसी परीक्षा है, जिसमें हर विद्यार्थी एक-दूसरे के विरोध में खड़ा हुआ है। यह एक ऐसी परीक्षा है जिसमें आपकी सफलता उसकी असफलता का तो आपकी असफलता उसकी सफलता का कारण बन सकती है। इसलिए इसमें जो क्षमता चाहिए, वह एक प्रकार से खिलाड़ियों वाली मारक क्षमता चाहिए, जिसे हम ‘कीलिंग इंस्टींग’ के नाम से जानते हैं।

इसलिए ऐसी परीक्षा की तैयारी की पद्धति भी बदल जाती है, क्योंकि आपकी सफलता केवल इस बात पर निर्भर नहीं करती कि आपने कैसी तैयारी की है, बल्कि इस बात पर भी निर्भर करती है कि दूसरों की तैयारी कैसी है। हो सकता है कि किसी साल साठ प्रतिशत लाने के बाद भी आपका सिलेक्शन न हो। लेकिन हो सकता है कि उसके अगले ही साल आप पचपन प्रतिशत नम्बर लाएं और आपका सिलेक्शन हो जाए। यही कारण है कि प्रतियोगी परीक्षाएँ यह मांग करती हैं कि आप उन्हें अपना सर्वोत्तम दें। यहाँ उस क्षमता से काम नहीं चलता कि कोर्स पढ़ लिया और पास हो गए। यहाँ आप स्वयं तक सीमित नहीं है। यदि बड़ी क्रूर भाषा में बात की जाए तो यहाँ पछाड़ने की नीति काम करती है। आपको इतनी ताकत जुटानी पड़ेगी कि आप दूसरों को हरा सकें। क्या आपको नहीं लगता कि यदि इस बात की जरूरत है, तो आपको अपनी तैयारी करने केे तरीके में भी परिवर्तन लाना होगा?

किसी भी प्रतियोगी परीक्षा में बैठने से पहले हर विद्यार्थी कम से कम पन्द्रह साल तक तो वार्षिक परीक्षाओं में बैठ चुका होता है। उन परीक्षाओं में बैठते-बैठते उसके पढ़ने, सोचने और लिखने का तरीका एक ठोस रूप अख्तियार कर चुका होता है। जहाँ तक राज्यों की सिविल सेवा की परीक्षाओं का सवाल है, वहाँ तो यह तरीका थोड़ा चल भी जाता है, लेकिन आय.ए.एस. की परीक्षा में यह बिल्कुल भी नहीं चलता। सच पूछिए तो उस तरीेके की यहाँ कोई अहमियत ही नहीं रह जाती। यह एक बहुत बड़ी चुनौती होती है। किसी भी स्टूडेन्ट के सामने कि वह कैसे अपनी इस पुरानी आदत से छुटकारा पाए।

यह मिला-जुला होता है

अभी तक आपने जो भी पढ़ाई की है और जितनी भी परीक्षाएँ दी हैं, वे सब एकल चरित्र की परीक्षाएँ थीं। यदि आप आट्र्स के विद्यार्थी हैं, तो आपके साथ परीक्षा देने वाले आटर्स के ही हैं। इंजीनियरिंग के छात्र इंजीनियरिंग के ही छात्रों के साथ परीक्षा देते हैं और कामर्स के छात्र कामर्स के ही छात्रों के साथ। चूँकि पाठ्यक्रम लगभग एक जैसा होता है, किताबें भी कमोवेश एक जैसी ही होती हैं और पेपर भी एक जैसे ही होते हैं, इसलिए यहाँ सब कुछ सीधा, सरल और सपाट जान पड़ता है।

लेकिन आय.ए.एस. की परीक्षा का स्वरूप न तो सीधा है और न सरल और न ही सपाट। यह परीक्षा एक ऐसे विशाल सागर की तरह है, जिसमें न जाने कितने-कितने विषयों की धाराएँ आकर मिलती हैं-आट्र्स, कामर्स, साइन्स, इंजीनियर्स, डॉक्टर्स, सी.ए. मैनेजमेंट, वकालत तथा और भी न जाने क्या-क्या। जिसने भी ग्रेज्युएशन किया है, वह आय.ए.एस. की इस दौड़ में शामिल होने की पात्रता रखता है।

अब आप सिलेक्शन सूची में अपना नाम दर्ज कराने की चुनौती के बारे में थोड़ा संवेदनशील होकर सोचिए। इतनी सारी धाराएँ और फिर एक ही धारा के न जाने किते-कितने विषय। आय.ए.एस. की प्रारम्भिक परीक्षा में तो इस तरह का कोई संकट नहीं है, लेकिन मुख्य परीक्षा में तो आप्शनल पेपर को लेकर थोड़ा-सा संकट आ ही जाता है। कुछ पेपर्स बहुत स्कोरिंग होते हैं, तो कुछ पेपर्स में नम्बर कम मिलते हैं। हालांकि यू.पी.एस.सी. ने इस समस्या से निपटने के लिए स्केलिंग की व्यवस्था कर रखी है। फिर भी मन में दूसरे के स्कोर को लेकर एक भय तो समाया ही रहता है।

यह भी पूरी तरह सच नहीं है कि इस तरह की चुनौती केवल आप्शनल पेपर्स को लेकर ही है। अलग-अलग शैक्षणिक पृष्ठभूमि के विद्यार्थियों को जनरल नॉलेज के पेपर में भी अलग-अलग फायदे और नुकसान होते हैं। जहाँ आट्र्स के विद्यार्थी कई मायने में लाभ की स्थिति में होते हैं, वहीं साइन्स के विद्यार्थियों को थोड़ा नुकसान होता है। लेकिन बात जब ‘सी सेट’ की आती है, तो उसमें इंजीनियरिंग वाले फायदे में आ जाते हैं। साइन्स वालों को अधिक नुकसान न हो, इसके लिए विज्ञान को भी काफी जगह दी गई है। कुल-मिलाकर यह कि हालांकि यू.पी.एस.सी. ने सभी स्ट्रीम के विद्यार्थियों के बीच एक तालमेल बिठाने की हर सम्भव कोशिश की है, लेकिन वह पूरी तरह कारगर नहीं हो पाती।

ऐसी स्थिति में आपकी चुनौती इस बात पर निर्भर करती है कि आप किस ब्रांच के विद्यार्थी रहे हैं। इस चुनौती का मुकाबला आप तभी कर सकते हैं, जब आप विशेषकर अपनी उन कमजोरियों से जूझे, जिनमें आप अपने को पीछे पा रहे हैं। यू.पी.एस.सी. को इससे कोई मतलब नहीं कि आपकी शैक्षणिक पृष्ठभूमि क्या है। वह तो केवल आपके स्कोर्ड-माक्र्स देखेगी और आपके बारे में घोषणा कर देगी। यहाँ आपकी प्रतियोगिता केवल अपने विषय वालों से नहीं है, बल्कि सभी विषय वालों से है और इसका यह चरित्र आपके सामने फिर से नए चेलेंजेस पेश करता है।

अखिल भारतीय रूप

राज्य की सिविल सेवा परीक्षाएँ इस मायने में थोड़ी राहत देने वाली होती हंै। हालांकि दूसरे राज्य के विद्यार्थी भी किसी राज्य की सिविल सेवा में बैठ सकते हैं। फिर भी इनकी संख्या बहुत ज्यादा नहीं होती। लेकिन आय.ए.एस. परीक्षा की तो बात ही बिल्कुल अलग है। पूरे देश के विद्यार्थी, और वे भी, वे विद्यार्थी, जो कहीं न कहीं स्वयं को अच्छा विद्यार्थी मानते हैं, इस परीक्षा में बैठते हैं।

यहाँ राज्य इतने महत्वपूर्ण नहीं हैं, जितना कि राज्यों में होने वाली पढ़ाई। अलग-अलग राज्यों में पढ़ाई का स्तर अलग-अलग है। शिक्षा का माध्यम अलग-अलग है और एक्सपोज़र भी अलग-अलग है। निश्चित रूप से कुछ राज्य इस मायने में काफी अच्छे माने जाते हैं, तो कुछ काफी पिछड़े। राज्यों के अपने-अपने एज्यूकेशन बोर्ड हैं और उन बोर्डस् का अपना-अपना पाठ्यक्रम है। हालांकि राज्यों में चलने वाले निजी स्कूलों को यह छूट है कि यदि वे चाहें तो अपने यहाँ सी.बी.एस.सी. की पढ़ाई करा सकते हैं। बहुत से स्कूल अब कराने भी लगे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि अभी भी अधिकांश राज्यों की बोर्ड के पाठ्यक्रम एवं परीक्षा का स्तर सी.बी.एस.सी. की तुलना में कम है। बोर्ड से पढ़कर निकले विद्यार्थियों को थोड़ा-सा नुकसान इस बात का भी उठाना पड़ता है कि आय.ए.एस. का पाठ्यक्रम, उसका स्तर तथा प्रश्न पूछने की पद्धति काफी कुछ सी.बी.एस.सी. के पेटर्न पर होता है।
कुछ इसी तरह का अंतर विश्वविद्यालयों में भी होता है। कुछ विश्वविद्यालय और महाविद्यालय बहुत अच्छे माने जाते हैं, जिसमें दाखिला पाना गौरव की बात होती है। विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम भी अलग-अलग होते हैं और पेपर्स में आने वाले प्रश्न भी। उदाहरण के तौर पर दिल्ली विश्वविद्यालय तथा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम और प्रश्न-पत्रों को देखा जा सकता है, जो काफी कुछ आय.ए.एस. के पाठ्यक्रम से मिलते-जुलते हैं। जाहिर है कि जिस विद्यार्थी ने यहाँ से ग्रेज्यूएशन किया है, वह पहले से ही लाभ की स्थिति में रहता है।

स्थान भेद के रूप में गाँव, नगर और महानगरों के भेद को भी लिया जाना चाहिए। ग्रामीण पृष्ठभूमि का विद्यार्थी न केवल जीवन के आधुनिक संदर्भों, अनुभवों और भाषा-शैली से ही अपरिचित रहता है, बल्कि उसकी बॉड़ी लैंग्वेज भी थोड़ी अलग होती है। उसके पास पढ़ने की सामग्री, उचित निर्देशन तथा डिस्कशन के लिए स्तरीय मित्रों का भी अभाव रहता है। जबकि महानगर में रहने वाले विद्यार्थियों को इसके लिए अलग से कुछ भी नहीं करना पड़ता, बशर्ते कि वे सजग हों।

इस प्रकार कई ऐसी स्थितियाँ होती हैं, जो स्थान के कारण या तो विद्यार्थी की शक्ति बन जाती है या फिर उसकी कमजोरी। लेकिन यू.पी.एस.सी. का इससे कुछ लेना-देना नहीं होता कि आप किस राज्य के हैं, कि आप किस विश्वविद्यालय से पढ़े हुए हैं, कि आप गाँव से हैं या शहर से। उसे तो अपना वह मैटल चाहिए, जो वह चाहता है। अब आप समझ सकते हैं कि यह स्थिति आपके सामने एक बड़ा संकट खड़ा करती है, जिससे आपको जूझना होता है।

अनुभवों की ताकत

मुझे यह बहुत बड़ा चैलेंज लगता है, और सच पूछिए तो जब मैं तैयारी कर रहा था, तब मुझे अपने लिए दो बातें सबसे कठिन मालूम पड़ती थी। पहला यह कि आठवीं के बाद से ही प्रायवेट विद्यार्थी होने के कारण मेरे मन में हमेशा यह कुंठा बनी रहती थी कि कॉलेज में नियमित रूप से पढ़ने वाले स्टूडेन्टस् मेरी तुलना में बहुत अच्छे होते होंगे। दूसरा यह भय मन में समाया रहता था कि जो लोग कई सालों से तैयारी कर रहे हैं और कई-कई बार परीक्षाओं में बैठ चुके हैं, उनका मुकाबला मैं कैसे कर पाऊँगा, क्योंकि अनुभवों का अपना महत्व तो होता ही है।

हम लोगों के समय में जनरल केटेगरी के लिए केवल तीन अटेम्प्ट होते थे। मेरा सिलेक्शन सैकण्ड अटेम्प्ट में हुआ था। अब पहले की तुलना में यह चुनौती थोड़ी बढ़ गई है। हांलाकि आकड़े यही बताते हैं कि सबसे ज्यादा सेलेक्शन सैकण्ड और थर्ड अटेम्प्ट में ही होते हैं। फिर भी किसी भी अटेम्प्ट को कमतर करके देखा नहीं जाना चाहिए। विशेषकर जब कोई विद्यार्थी पहली बार परीक्षा में बैठता है, तो उसका मुकाबला चैथी बार बैठने वाले परीक्षार्थी से भी हो रहा होता है। उसके पास न केवल इस परीक्षा में तीन बार बैठने का अनुभव है, बल्कि स्पष्ट है कि वह लम्बे समय से इसकी तैयारी भी कर रहा है। आप क्या समझते हैं कि इनको पीछे छोड़कर आगे निकल पाना कोई आसान बात होगी? मैं यहाँ आपको डरा नहीं रहा हूँ, केवल सतर्क भर कर रहा हूँ। साथ ही इस सच्चाई को भी बता रहा हूँ कि इनमें अधिकांश विद्यार्थी ऐसे होते हैं, जो परीक्षाओं में बैठ चाहे कितनी भी बार क्यों न रहे हांे, लेकिन वे पिछले अनुभवों से कोई खास लाभ उठा नहीं पाते। इसलिए न तो आपको इससे घबड़ाकर किसी तरह के दबाव में आना है और न ही इसे बहुत हल्के-फुल्के तरीके से ही लेना है। अन्ततः वह समय भी आएगा, जब आप भी दूसरी बार, तीसरी बार या चैथी बार परीक्षा दे रहे होंगे। हांलाकि मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि आपके साथ ऐसा मौका न आए।

अनुभव की प्रौढ़ता का एक अन्य पक्ष भी है, जो अलग-अलग तरह की प्रतियोगी परीक्षाओं से जुड़ा हुआ है। आय.ए.एस. की तैयारी के दौरान आपको चाहिए कि आप दूसरी प्रतियोगी परीक्षाएँ भी देते रहें। इस तरह आप निरन्तर अपने-आपको अधिक मैच्योर करते जाएंगे। ध्यान रखिए कि जब आपसे वह विद्यार्थी मुकाबला करेगा, जिसके पास सिर्फ इसी परीक्षा का अनुभव है, तो वह निश्चित रूप से अपने-आपको कमजोर पाएगा। यह बात मैं आपको केवल इसलिए बता रहा हूँ, ताकि आप अपना मूल प्रतियोगी उस नए विद्यार्थी को न समझें, जो आपके साथ ही तैयारी कर रहा है, बल्कि उसको समझें, जो पता नहीं कब से तैयारी कर रहा है।

पूछे जाने वाले प्रश्न

कॉलेज के पेपर्स उसी तरह के नहीं आते हैं, जैसे आय.ए.एस. के आते हैं। मुझे तो सी.बी.एस.सी. के पेपर्स देखकर भी बड़ी निराशा होती है, क्योंकि वहाँ भी जिस तरह के प्रश्न पूछे जाते हैं, उनके उत्तर सीधे सपाट तरीके से ही दिए जा सकते हैं। राज्य सेवा परीक्षाओं के पेपर्स की भी लगभग यही हालत है। प्रश्न सीधे-सीधे पूछे जाते हैं, आप सीधे-सीधे उत्तर दे दीजिए। आपको नम्बर मिल जाएंगे। इसलिए मुझे यह कहने में कतई कोई संकोच नहीं कि स्टेट सिविल सर्विस में चयन का मतलब बहुत कुछ ‘सब धान बाइस पसेरी’ की तरह का ही होता है। वहाँ ब्रीलिएंट और जैन्यून विद्यार्थी पीछे रह सकते हैं और सामान्य स्तर के विद्यार्थी आगे। यदि रटा हुआ लिखना ही नम्बर दिलाने का आधार है, तो रटना कोई बहुत मुश्किल काम नहीं होता। इसे ज्यादातर लोग कर सकते हैं।

लेकिन यू.पी.एस.सी. में यह कतई नहीं चलता और यही यू.पी.एस.सी. की एवरेस्ट की तरह वह सबसे बड़ी चुनौती है, जिसकी ऊँचाई को बहुत कम लोग छू पाते हैं और यही वह सबसे बड़ा कारण है कि टॉपर तक को यू.पी.एस.सी. में जगह नहीं मिल पाती।
आप यू.पी.एस.सी. का कोई भी पेपर उठाकर देखिए-प्रारम्भिक परीक्षा के सामान्य ज्ञान से लेकर मुख्य परीक्षा के सामान्य ज्ञान और यहाँ तक कि आप्शनल सब्जेक्टस् के पेपर्स तक। इसमें थोड़ा समय लगाइए। जब आप प्रश्नों को पढ़ेंगे, तो आपको यह तो लगेगा कि यह प्रश्न सिलेबस से ही पूछा गया है। आपको यह भी लगेगा कि इसके बारे में आपने पढ़ा है और आप कुछ-कुछ जानते भी हैं। लेकिन जब आप इसका उत्तर लिखने बैठेंगे, तो दो-चार लाइन लिखने के बाद ही आपकी कलम या तो रुक जाएगी या फिर उन्हीं बातों को बार-बार लिखने लगेगी, भले ही थोड़े अलग तरीके से, जिन्हें आप इससे पहले भी लिख चुके हैं। और बस यही, अधिकांश विद्यार्थियों की असफलता का सबसे बड़ा ही नहीं बल्कि एकमात्र कारण बन जाता है। इसे मैं सिविल सेवा की सबसे बड़ी चुनौती मानता हूँ।

अब सवाल यह है कि इस चुनौती से निपटा कैसे जाए, क्योंकि आप चाहे लाख अन्य कुछ कर लें, यदि आपने इसे ठीक नहीं किया, तो कुछ भी नहीं होगा। मेरी इस चेतावननी को आप गाँठ बांध लीजिए। उत्तर लिखने की वह पद्धति यहाँ कोई काम नहीं आती, जो अभी तक आप कॉलेज में लिखते आए हैं। और केवल लिखते ही नहीं आए हैं बल्कि ढेर सारे नम्बर भी बटोरते आए हैं। दोष आपका नहीं है। आप लिखते रहे; आपको नम्बर मिलते रहे। फिर भला आप यह सोच ही कैसे सकते हैं कि ‘मैं गलत हूँ और मुझे कुछ और लिखना चाहिए।’ खैर, गलती किसी की भी हो। यहाँ उद्देश्य उसका मूल्यांकन करना नहीं है। उद्देश्य तो केवल यह है कि हम उन चुनौतियों को जान और समझ सकें, जिनका सामना आपको करना पड़ेगा और इसे समझ लेने भर से आपकी तैयारी की पद्धति काफी कुछ बदल जाएगी।

नोट : ऊपर दिया गया आर्टिकल जल्द ही आने वाली पुस्तक “आप IAS कैसे बनेंगे” से लिया गया है।

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