आई.ए.एस. परीक्षा में बैठने का रोडमैप
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किसी भी स्थान पर घूमने जाने के दो तरीके होते हैं। पहला यह कि टिकिट कटाकर सीधे वहाँ पहुँचें और घूमना शुरू कर दें। दूसरा तरीका होता है कि पहले हम उस स्थान के बारे में सब कुछ पता करें। वहाँ का नक्शा लेकर वहाँ के घूमने के स्थानों के बारे में जानें और तब वहाँ पहुँचकर घूमना शुरू करें। घूमना तो इन दोनों ही तरीकों से होगा, लेकिन घूमने का जो टोटल आउटपुट निकलेगा, वह एक जैसा नहीं होगा। निश्चित तौर पर घूमने के दूसरे वाले तरीके से घूमने वाला न केवल अपने समय, पैसे और अपनी ऊर्जा की ही बचत करेगा, बल्कि उसका अधिक आनन्द भी ले सकेगा, क्योंकि उसने अपने इस काम को एक व्यवस्थित तरीके से अंजाम दिया है।
लगभग यही बात सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी के ऊपर भी लागू की जा सकती है। ज्यादातर युवा ताबड़तोड़ में सिविल सेवा में बैठने का निर्णय ले लेते हैं और बैठना शुरू भी कर देते हैं। सच तो यह है कि दुर्भाग्य से हमारे यहाँ किसी भी काम की पूर्व योजना बनाने की कार्य-संस्कृति है ही नहीं। छोटे-मोटे मामलों में तो ऐसा चल जाता है, लेकिन बड़े मामलों में नहीं। और यह बताने की जरूरत नहीं है कि सिविल सेवा परीक्षा में सफल होना कोई छोटा मामला नहीं है।
आप जानते ही हैं कि इसके तीन चरण होते हैं-प्रारम्भिक परीक्षा, मुख्य परीक्षा और फिर अंतिम चरण में साक्षात्कार। आपको इन तीनों में ही सफल होना पड़ता है और इस चुनौती से पार पाना पड़ता है कि ये तीनों ही चरण एक ही बार के हों। ऐसा नहीं है कि यदि आप इस वर्ष की प्रारम्भिक परीक्षा में सफल हो जाते हैं, तो आपको अगले वर्ष की मुख्य परीक्षा में सीधे बैठने की अनुमति मिल जाएगी। सिविल सेवा इस बात की इजाजत नहीं देता और किसी भी स्तर पर सफल न होने पर शुरूआत फिर से शून्य से करनी पड़ती है; फिर चाहे आप साक्षात्कार तक क्यों न पहुँच गए हों।
इसकी एक अन्य भी चुनौती है, जो किसी भी मायने में पहली वाली चुनौती से कम नहीं है और यह छिपी हुई एक ऐसी गम्भीर चुनौती है, जिसके बारे में तब ही पता चल पाता है, जब विद्यार्थी परीक्षा में बैठता है। हो सकता है कि अब मैं जो बताने जा रहा हूँ, उस पर विश्वास कर पाना आपके लिए इतना आसान न हो, लेकिन सच तो सच ही होता है और आपको चाहिए कि आप इस सच्चाई पर विश्वास करके इसे स्वयं में शामिल कर लें। यह देखने में आया है कि प्रतियोगी सिविल सेवा परीक्षा में सेलेक्ट हो गया है। लेकिन जब वह अपनी रैंकिंग को सुधारने के लिए अगले साल फिर से परीक्षा में बैठता है, तो प्रारम्भिक परीक्षा को ही क्वालीफाई नहीं कर पाता। बहुत से ऐसे भी होते हैं कि साक्षात्कार में बहुत कम नम्बर पाते हैं और यदि ठीक-ठाक नम्बर मिल भी गए, तो इतने अधिक नम्बर नहीं मिलते कि उनकी रैंकिंग में इतना सुधार आ जाए कि वे अपनी सर्विस को बदल सकें। जाहिर है कि उन्हें फिर से परीक्षा में बैठना होगा, बशर्ते कि उनका अटेम्प्ट बचा हुआ हो। आप इस चुनौती का सामना तभी कर सकेंगे, जब आपने अपनी परीक्षा का एक व्यवस्थित रोडमेप बना रखा हो।
एक अन्य प्रकार का संकट भी देखने में आया है, जो आप्शनल पेपर से जुड़ा हुआ है। जब तक आप मुख्य परीक्षा में एक बार बैठ नहीं जाते, तब तक सही मायने में आपके लिए यह अनुमान लगाना आसान नहीं होता कि यह विषय आपके अनुकुल है या नहीं। यद्यपि किसी विषय को लेने के बाद कोशिश यही होनी चाहिए कि उस पर आप संदेह न करें और यदि बहुत जरूरी ही न हो जाए तो उसे बदलें भी नहीं। लेकिन व्यावहारिकता का तकाजा कुछ और होता है। अच्छी तैयारी करने के बावजूद यदि आप्शनल में बहुत कम नम्बर आते हैं, तो यह इस बात का संकेत है कि आपको अपना विषय बदलने के बारे में सोचना चाहिए। यदि आप ऐसा करते हैं, तो इसका मतलब यह हुआ कि इससे पहले वाले अटेम्प्ट एक प्रकार से ट्रायल अटेम्प्ट हो गए और इस बात की भी कोई गारंटी नहीं है कि अगला अटेम्प्ट भी ट्रायल अटेम्प्ट नहीं होगा।
कुल-मिलाकर मेरे कहने का मतलब यह है कि इस परीक्षा में जो चुनौतियाँ निहित हैं, वे पाँच दिवसीय क्रिकेट मैच की बजाए ट्वेंटी-ट्वेंटी ओवर कर मैच बना देती है। यहाँ बॉल सीमित हैं, विकेट सीमित हैं और इन सीमित बॉल और सीमित विकेट के दम पर रन बनाने का जो लक्ष्य होता है, वह काफी बड़ा है। यहाँ हर बॉल कीमती है और विकेट भी। कोई भी कमजोरी हमें खेल से बाहर कर सकती है। यह जरूर है कि फिर भी कोई न कोई कमजोरी तो रह ही जाती है और क्योंकि ऐसा सबके साथ होता है, इसलिए सिलेक्शन के मामले में हिसाब-किताब बराबर भी हो जाता है। फिर भी हमारी कोशिश यही होनी चाहिए कि हमसे कम से कम चूक हो, ताकि न केवल सफलता ही मिले, बल्कि अपनी पसन्द की सफलता मिेले।
तो आइए, अब इस बात पर बात करते हैं कि योजना आप बनाएंगे कैसे।
योजना के तत्व
यहाँ मामला फ्री-स्टाइल का नहीं है। ढ़ेर सारे नियम और कानून हैं और नियम और कानून के उन सीमाओं के बीच में ही आपको अपना खेल खेलना है और मंजिल भी प्राप्त करनी है। जो परीक्षार्थी इन सबके साथ जितना अधिक तालमेल बैठा पाता है, वह उतनी बेहतर सफलता का मालिक बन जाता है। ये नियम और मर्यादाएँ क्या हैं?
- आपके पास चार अटेम्ट होते हैं, यदि आप सामान्य वर्ग के हैं तो। पिछड़ा वर्ग के होने पर इनकी संख्या सात हो जाती है और अनुसूचित जाति एवं जनजाति वर्ग के होने पर आपकी अधिकतम आयु मायने रखती हैं, अटेम्ट नहीं। यह पहली मर्यादा है।
- दूसरी मर्यादा उम्र की है। यह इक्कीस से तीस वर्ष के बीच आपको परीक्षा में बैठने की अनुमति प्रदान करती है। पिछड़ा वर्ग एवं अनुसूचित जाति, जनजाति के मामले में यह क्रमशः बत्तीस और पैंतीस वर्ष की है।
- परीक्षा के तीन स्तर हैं और विद्यार्थी को एक ही साल की परीक्षा में तीनों स्तरों को क्वालीफाई करना पड़ता है। यह तीसरी लिमिटेशन है।
- ये तो हुई नियमों की बात। लेकिन इसके साथ ही साथ सामाजिक और परिस्थितिगत नियम भी हमारी योजना में अपनी कम भूमिका नहीं निभाते। उदाहरण के तौर पर लड़कियों के लिए यह बात इतनी आसान नहीं रह जाती कि वे तीस साल की उम्र तक सिविल सर्विस के लिए ट्राय करती रहें। जाहिर है कि परिवार की ओर से विवाह के लिए पड़ने वाला दबाव उनकी योजना को नियंत्रित करता है। परिवार वालों का यह सोचना गलत भी नहीं है। अधिक उम्र होने पर लड़कियों का विवाह कर पाना आसान नहीं रह जाता। हाँ, यदि सिविल सेवा में चयन हो गया, तो फिर अधिकांशतः उन्हें स्वयं ही अपने जीवन साथी का चयन करने की छूट मिल जाती है।
लड़कों के मामलों में यह संकट विवाह का तो नहीं है, लेकिन ऐसा भी नहीं है कि संकट है ही नहीं। उनके सामने सबसे बड़ा संकट सैटिल होने का होता है। तीस वर्ष की आयु कम नहीं होती। यदि सेलेक्शन हो गया, तब तो ठीक है। लेकिन यदि नहीं हुआ तब? सेलेक्शन की सम्भावना भी ‘थ्योरी आफ प्रॉबिबिलिटी’ के अनुसार कोई बहुत ज्यादा नहीं रहती। और मुश्किल यह है कि चांस लिए बिना सेलेक्शन होता नहीं है। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जाती है, न केवल अटेम्ट ही कम होते जाते हैं, बल्कि सेटेल्ड होने की चिन्ता भी दिमाग को भारी करती जाती है। पूर्व की असफलताओं की कुंठा और निराशा भी मन को पहले से अधिक मथती है।
ये कुछ ऐेसे तथ्य हैं, जिनको आधार बनाकर परीक्षार्थियों को अपनी परीक्षा की एक सम्पूर्ण और लम्बी योजना बनानी चाहिए। ‘सम्पूर्ण’ इन अर्थों में कि अन्ततः सफलता मिलेगी कैसे और वह भी अपनी पसन्द की सफलता। लम्बी इस मायने में कि जितने भी अवसर आपके पास हैं और आपकी उम्र जितने अवसरों की इजाजत देती है, वहाँ तक की योजना। योजना पर इस बात का कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपका चयन इससे पहले ही हो जाए। इसके लिए आपको मेरी शुभकामनाएँ हैं। लेकिन जहाँ तक योजना बनाए जाने की बात है, वह ‘तथाकथित अंतिम साँस’ तक की योजना होनी चाहिए।
अब मैं कुछ उन बातों पर आता हूँ, जो आपको योजना बनाने में मदद दे सकती हैं।
योजना लम्बी हो
पहली बात तो यह कि यदि आप हड़बड़ी में हैं, सफलता जल्दी से जल्दी पाना चाहते हैं, तो मुझे यह कहने की इजाजत दीजिए कि यह क्षेत्र आपके लिए उचित नहीं है। दरअसल, आई.ए.एस. की तैयारी, जिसे मैं ‘जैन्यून प्रीपरेशन’ कहना चाहूँगा, एक मैराथन दौड़ की तरह है, सौ मीटर की फर्राटे वाली दौड़ नहीं है। यहाँ बादल फटने वाली बारिश काम नहीं करती है, फिर चाहे पानी की मात्रा कितनी ही अधिक क्यों न गिर जाए। यहाँ वह रिमझिम बारिश काम करती है, जिसका एक-एक कतरा धरती की नसों में समाकर उसका अभिन्न हिस्सा बन जाता है। इसकी तैयारी में ज्ञान के इसी रूप की जरूरत पड़ती है, जो विद्यार्थी की चेतना में समाकर कुछ इस तरह रच-बस जाता है कि उसका अलग से कोई अस्तित्व नहीं रह जाता। जो केन्डीडेट इस स्वरूप को जिस स्तर तक हासिल कर लेता है, उसे उस स्तर की सफलता मिल जाती है। इसलिए पहली बात यह कि यहाँ जल्दबाज लोगों का काम नहीं है।
बहुत से लड़के जोश में आकर इस बात की सार्वजनिक घोषणा कर देते हैं कि ‘मैं पहले ही अटेम्ट में फर्स्ट टेन में आकर दिखाऊँगा’। जब मैं उनकी इस घोषणा पर आश्चर्यचकित होकर उनके चेहरे को संदेह की दृष्टि से देखता हूँ, तो वे मेरे संदेह का मूक- मखौल उड़ाते हुए इस तर्क से अपने को सही सिद्ध करने में देरी नहीं लगाते कि ‘फँला ने भी तो फर्स्ट अटेम्ट में ही क्वालीफाई किया था। वे गलत नहीं कहते। वे सच बोलते हैं। लेकिन वे भूल जाते हैं कि उनका यह सच सम्पूर्ण सच नहीं है। वे इस सच के पीछे छिपे हुए अन्य तथ्यों के सच को समझ नहीं पा रहे हैं। इसका सम्पूर्ण सच और छिपा हुआ सच यह है कि यह ठीक है कि उसने पहले अटेम्ट में इतनी बेहतरीन सफलता हासिल कर ली है, लेकिन वह इसकी तैयारी बहुत लम्बे समय से, तब से ही कर रहा है, जब वह अपने ग्रेज्यूएशन के पहले ही साल में था, या कि उससे भी पहले। अटेम्ट तो पहला था, यह सच है। किन्तु तैयारी एक या दो साल की है, जैसा कि इस तरह की बातें करने वाले विद्यार्थियों के दिमाग में बैठ जाती है, यह सच नहीं है। वस्तुतः सवाल अटेम्ट का होता ही नहीं है। सवाल तो तैयारी का होता है, जिसे आप पहले ही अटेम्ट में प्रूव कर सकते हैं, तो जिसे आप अंतिम अटेम्ट तक प्रूव नहीं कर सकते। योजना बनाते समय सिविल सेवा परीक्षा के इस सम्पूर्ण सत्य को जानना बहुत जरूरी है। यह जरूरत उसी तरह की जरूरत है कि क्रिकेट मैंच बिना सही रणनीति के जीती नहीं जा सकती।
कितना अच्छा होता, यदि आप दसवीं के बाद ही यह फैसला कर चुके होते कि ‘मुझे सिविल सर्विस में जाना है।’ तब आपके लिए इस लक्ष्य को पाना बहुत आसान हो गया होता। बारहवीं के बाद भी इस तरह का फैसला करना बहुत देरी की बात नहीं होती, क्योंकि तब आप ग्रेज्यूशन में उस एक विषय को ले सकते थे, जिसे आप सिविल सर्विस में लेना चाह रहे हैं। केवल विषय को ही नहीं ले सकते थे, बल्कि उसकी पढ़ाई भी अन्य की अपेक्षा बेहतर तरीके से कर सकते थे। इतना ही नहीं, बल्कि यदि इतना पहले आपने अपना लक्ष्य निर्धारित कर लिया होता, तो उस सामान्य ज्ञान की तैयारी आपके लिए बाँए हाथ का खेल हो जाती, जिसकी तैयारी के लिए अब आपके दोनों हाथ कम और कमजोर पड़ने लगे हैं।
मुझे नहीं मालूम की अभी, जबकि आई.ए.एस. बनने के लिए आप इस लेख को पढ़ रहे हैं, आप किस क्लास में हैं। लेकिन यदि यह बात आप पर लागू होती है, तो यह सुखद संयोग की बात है और इसे आप प्रकृति का एक शुभ संकेत समझिए कि वह आपसे इसके माध्यम ये यह कह रही है कि ‘तुमको इस बारे में सोचना चाहिए।’ लेकिन यदि आप ग्रेज्यूएशन कर रहे हैं, तो भी कोई बात नहीं-देर आए दुरूस्त आए। मेहनत थोड़ी अधिक करनी पड़ेगी और वैसे भी आई.ए.एस. की तैयारी का क्षेत्र उन लोगों के लिए नहीं है, जो मेहनत से डरते हैं। लेकिन यदि आप ग्रेज्यूएशन के बाद इसके लिए सोच रहे हैं, तो थोड़ी सी देरी तो जरूर हो गई है, लेकिन अँधेर अभी भी नहीं हुई है। यह मनोवैज्ञानिक सत्य आपका साथ देगा कि ‘अब आपका मस्तिष्क मैच्योर हो चुका है और जिस तथ्य को समझने में पहले आपको पाँच घंटे लगते, उसे अब आप पचास मिनट में समझ सकते हैं। इसलिए निराश होने की बात यहाँ भी नहीं है।
सच पूछिए तो निराश होने की बात तब तक नहीं है, जब तक कि आपके पास परीक्षा में बैठने के लिए चार अटेम्ट बाकी हों। अधिक से अधिक रिस्क आप तीन अटेम्ट तक ले सकते हैं। हालांकि चयन तो दो अटेम्ट में ही हो जाता है, लेकिन चौथे में रिस्क बहुत ज्यादा हो जाता है। फिर भी सफलता मिलती ही है। अंतिम बॉल में भी कई मैच जीते गए हैं।
मैं सामान्य रूप से इसे इस रूप में लेता हूँ कि पहले अटेम्ट में प्रारंभिक परीक्षा में ही सेलेक्शन नहीं होता, कुछ अपवादों को छोड़कर। इसे मैं एक प्रकार का अनुभव प्राप्त करने का अटेम्ट मानता हूँ, ठीक उसी तरह, जैसे कि क्रीज पर आने वाला नया खिलाड़ी पहली बॉल को यूँ ही टरका देता है। पहले अटेम्ट के बाद ही सही मायने में हम अपनी तैयारी का तथ्यपरक मूल्यांकन करने की स्थिति में आते हैं। आंकड़े बताते हैं कि यदि पहले अटेम्ट में प्रारंभिक परीक्षा में सेलेक्शन हो भी जाता है, तो मैन्स को क्वालीफाई करना काफी मुश्किल होता है। इसका कारण यह भी है कि अनुभव की कमी के कारण विद्यार्थी प्रारंभिक परीक्षा पर ही सारा जोर लगा देते हैं। मुख्य परीक्षा पर ध्यान कम देते है। कुछ तो विद्यार्थी इतने अव्यावहारिक निर्णय लेते हुए देखे गए हैं कि ‘प्रारम्भिक परीक्षा के बाद मैं मुख्य परीक्षा की तैयारी करूँगा’। क्या यह सम्भव है? कभी नहीं।
निश्चित रूप से सैकेेण्ड अटेम्ट आपका एक प्रकार से फायनल अटेम्ट बन सकता है, भले ही फर्स्ट अटेम्ट में आप प्रारम्भिक परीक्षा ही क्वालीफाइ क्यों न कर पाएँ हों। यहाँ थोड़ी सी चूक होने की आशंका है और यह चूक है रैंकिंग को लेकर। अच्छी रैंकिंग न होने के कारण विद्यार्थी फिर से परीक्षा में बैठते हैं। इस प्रकार यह दूसरा अटेम्ट सफल अटेम्ट होने के बावजूद सम्पूर्ण रूप से सफल नहीं हो पाता है। एक बार फिर से यह कि यहाँ मैं सामान्य सिद्धान्त की बात कर रहा हूँ। सबके साथ ऐसा ही होता है, ऐसा बिल्कुल भी नहीं है।
अपनी योजना में आप यह तो कर सकते हैं कि पहले अटेम्ट के बाद अगले साल ही दूसरा अटेम्ट न दें, यदि आपको लगता है कि आपकी उस स्तर की तैयारी नहीं हो पाई है। यहाँ जब मैं ‘तैयारी’ की बात कर रहा हूँ, तो उसका संबंध प्रारम्भिक परीक्षा, मुख्य परीक्षा और यहाँ कि कुछ सीमा तक साक्षात्कार की भी तैयारी से है न कि केवल प्री की तैयारी से। एक बार परीक्षा में बैठने के बाद यदि आपको तैयारी के लिए लम्बे समय की जरूरत लगती है, तो उसे लीजिए। हड़बड़ी के झाँसे में मत आइए। लेकिन इसी बात को दूसरे और तीसरे तथा तीसरे और चौथे अटेम्ट के बीच दोहराने से बचिए। आपकी कोशिश होनी चाहिए कि दूसरे अटेम्ट के बाद आप लगातार परीक्षाएँ देते रहें, यदि जरूरत हुई तो। इसका कारण है। यदि आप बीच में गैप कर देंगे, तो आपकी तैयारी में शिथिलता आ जाएगी और कहीं न कहीं व्यवधान भी आने लगेगा। ऐसा होगा ही, चाहे आप मानें या न मानें। जब एक बार हमारी अच्छे से तैयारी हो जाती है, तो फिर आगे उसके लिए बहुत अधिक मेहनत की जरूरत नहीं रह जाती। जरूरत तो केवल इस बात की रहती है कि हम उस विषय के अपने ज्ञान के स्तर को ऊँचा उठाएँ, उसे गहराई दें और उसके बारे में अपनी मौलिक सोच विकसित करें। इसके लिए पढ़ने से ज्यादा सोचने की जरूरत पड़ती है और सोचने के लिए इतने समय की जरूरत नहीं होती, जितने समय की जरूरत पढ़ने के लिए होती है।
जिटने में देरी न करें
फिर अध्ययन का अपना एक मनोविज्ञान भी होता है। एक ही चीज़ को बार-बार पढ़ने से जी ऊबता भी है और कभी-कभी तो झुँझलाहट भी होने लगती है। ऐसी मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि में हम पढ़ें भले ही, लेकिन उस पढ़ने का कोई विशेष फायदा नहीं मिलता है।
हमें इस बात की भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए कि जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जाती है, पढ़ने-पढ़ाने का जोश कम होता जाता है। दिमाग पर अन्य कई तरह के तनाव और दबाव आने लगते हैं। ऐसी स्थिति में सच्ची और सही पढ़ाई कर पाना आसान नहीं रह जाता।
इसीलिए मेरा यह मानना है कि आपको अपनी योजना कुछ इस तरह से बनानी चाहिए कि यह इक्कीस साल की उम्र से शुरू हो जाए और अधिकतम छब्बीस साल की उम्र तक पूरी हो जाए। यदि आप बहुत अधिक लिबर्टी लेना चाहें, तो एक साल और ले सकते हैं-सत्ताइस साल की उम्र तक। इसे भूल जायें कि आपको तीस साल की उम्र तक परीक्षा देने का अधिकार है। पहले तो यह थी ही छब्बीस साल, फिर अट्ठाइस हुई और अब यह तीस है। कितना अच्छा होता, यदि इसे फिर से घटाकर छब्बीस कर दिया जाता। अधिकतम् उम्र में होने वाला यह इजाफा आपको भ्रम में रखने में अपनी अच्छी-खासी भूमिका निभाता है। आप सोचते हैं कि अभी तो बहुत वक्त बाकी है, आगे देख लेंगे। यह एक प्रकार से कहीं न कहीं आपके मन की कमजोरी का सूचक है। मेरा प्रश्न है कि अभी ही क्यों नहीं? ऐसा क्यों नहीं सोचा जाता कि ‘मैं जमकर अच्छी से अच्छी तैयारी करूँगा, और जो कुछ भी होना होगा, छब्बीस-सत्ताइस साल की उम्र तक हो जाएगा।’ यदि हो गया तो ठीक और यदि नहीं हुआ, तो फिर कुछ और। आखिर आपको कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा। जब आप ऐसा सोच लेते हैं, तो आपके दिमाग को यह आदेश मिल जाता है कि यहाँ मेरी चालबाजी नहीं चलेग।, फिर आपका यह दिमाग आपके अनुसार काम करना शुरू कर देता है। इसके फलस्वरूप आपके अन्दर की शक्ति और क्षमताएँ उभरकर बाहर आने लगती हैं।
बहुत से विद्यार्थी; खासकर ग्रामीण पृष्ठभूमि के विद्यार्थी एक अन्य महत्वपूर्ण तथ्य को नहीं समझ पाते। परीक्षा की तैयारी की जद्दोजहद से जूझने के दौरान उन्हें तो केवल यही लगता रहता है कि ‘किसी भी तरह से सेलेक्शन हो जाए।’ सिलेक्शन होना ही उनका एकमात्र उद्देश्य होता है, जो सही भी है। इस चक्कर में वे सर्विस-कैरियर की इस सच्चाई को भूल ही जाते हैं कि वे जितनी कम उम्र में सेलेक्ट हो जाएँगे, आगे का कैरियर उतना ही अधिक बेहतर होगा। वे उतने ही बड़े पद से रिटायर होंगे। आगे चलकर यह बात बहुत अधिक मायने रखती है। आप इसे इस तरह सोचकर देखिए कि किसी एक ही वर्ष में एक ही सर्विस में दो लड़कों का चयन होता है, जिसमें से एक की उम्र तेइस साल है और दूसरे की उम्र है उनतीस साल। ये दोनों एक ही बैच के हैं। लेकिन दोनों की उम्र में छः साल का अन्तर है। तेइस साल वाले लड़के के पास सर्विस के सैंतीस साल हैं, जबकि उनतीस साल वाले लड़के के पास केवल इकतीस साल। जाहिर है कि अधिक उम्र वाला लड़का अपने कैरियर के सर्वोत्तम को हासिल नहीं कर पाएगा, जबकि जीवन के उस दौर में सर्वोत्तम ही सबसे ज्यादा मायने रखता है।
एक बात और भी होगी। मान लीजिए कि तेइस साल के इस लड़के की रैंकिंग उनतीस साल के लड़के से ऊपर है। ऐसे में हालांकि हैं तो ये दोनों एक ही बैच के, लेकिन सीनियर और जूनियर की दृष्टि से तेइस साल का लड़का सीनियर कहलाएगा। जब भी ऊपर की कोई पोस्ट खाली होगी, वह सबसे पहले इस सीनियर लड़के को मिलेगी। अभी तो इन बातों का इतना एहसास नहीं होता। लेकिन जब आप सर्विस में आ जाएँगे, तब इस तरह के कटु एहसासों से अपने को बचा पाना आपके लिए आसान नहीं होगा। इसलिए क्या यह बेहतर नहीं होगा कि आप अपनी योजना बनाते समय अधिकतम् तीस या पैंतीस साल की उम्र को भूल ही जाएँ और देखें कि कैसे अपने लक्ष्य को जल्दी से जल्दी हासिल किया जाए।
अन्य प्रतियोगिताओं में भी बैठे
मैंने दीर्घ योजना बनाने की बात कही है। इस दीर्घ योजना का एक अन्य पक्ष होता है-अन्य कई प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठना। अधिकांश विद्यार्थी इसकी उपेक्षा कर जाते हैं और जो इसे लेकर चलते हैं, उन्हें कहीं न कहीं सफल होते हुए देखा ही गया है। वस्तुतः उनका यह इगो काम करने लगता है कि आई.ए.एस. की तैयारी करने वाला मैं भला स्टेट सिविल सर्विस में, बैंकिंग सर्विस के लिए या स्टाफ सेलेक्शन कमीशन की परीक्षाओं में क्यों बैठूँ। ऐसा सोचकर वे खुद का ही नुकसान कर रहे होते हैं।
वस्तुतः विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं को एक-दूसरे से काटकर देखने की दृष्टि सही नहीं है। वैसे भी अब चाहे वह स्टेट सिविल सर्विस की परीक्षा हो या बैंकिंग सेवाओं की प्रतियोगिताएँ, सभी परीक्षाओं में एक प्रश्न-पत्र सामान्य ज्ञान का तो होता ही है। फिर यदि आप सही अर्थों में आय.ए.एस. की तैयारी कर रहे हैं, तो इन परीक्षाओं के लिए आपको अलग से किसी तरह की विशेष तैयारी करने की जरूरत नहीं पड़ती। हाँ, राज्य सिविल सेवा परीक्षाओं के लिए उस राज्य के बारे में थोड़ा जरूर पढ़ना पड़ता है और इसे पढ़ने में कोताही बरतनी भी नहीं चाहिए।
भले ही आप इन सेवाओं में जाना चाहें या न जाना चाहें, लेकिन ऐसा करके आप परीक्षा में बैठने के अपने अनुभव को समृद्ध कर सकते हैं। इससे आपके अध्ययन की निरन्तरता भी बनी रहेगी और प्रौढ़ता भी आएगी। यदि किसी में चयन हो भी गया, तो इससे आपका आत्मविश्वास भी बढ़ेगा। इसलिए अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठना भी आपकी योजना में शामिल होना चाहिए, भले ही यह मुख्य रूप से न हो।
उस समय आप क्या करेंगे, जब आप आई.ए.एस. के लिए तैयारी कर रहे हों, लेकिन किसी अन्य नौकरी के लिए सेलेक्षन हो गया हो? बहुत से विद्यार्थी ऐसे में दुविधा में पड़ जाते हैं। उन्हें लगता है कि यदि उन्होंने नौकरी ज्वाइन कर ली, तो फिर आई.ए.एस. की तैयारी के लिए समय नहीं मिल पाएगा। उन्हें यह भी लगता है कि हो सकता है कि एक नौकरी पा लेने के बाद आई.ए.एस. को पाने का उनका जोष ठण्डा पड़ जाए। बहुत से विद्यार्थी तो नौकरी ज्वाइन करते भी नहीं हैं।
यहाँ मेरी उनके लिए एक सलाह है। सलाह यह है कि यदि उन्हें कोई नौकरी मिल गई है, तो पहली बात तो यह कि वे इस नौकरी को छोड़ने के बारे में बिल्कुल न सोचें। देखिए, आई.ए.एस. में सफल होना एक अनिष्चितता से भरी सम्भावना है। गारंटी कोई नहीं दे सकता, यहाँ तक कि वह भी नहीं, जिसका एक बार इसमें सेलेक्षन हो गया है। लेकिन किसी न किसी का सेलेक्षन तो होता ही है। तो फिर जाहिर है कि आपका भी क्यों नहीं। यदि आप ऐसा सोचते हैं, तो आपको ऐसा सोचना ही चाहिए, लेकिन एक व्यावहारिक दृष्टि के साथ। व्यावहारिक दृष्टि यह है कि हो गया तो ठीक, यदि नहीं हुआ तो फिर क्या?
आपको यह नौकरी ठुकरानी नहीं चाहिए। हाँ, यह प्रश्न जरूर है कि आप कैसे इस नौकरी का तालमेल परीक्षा की अपनी तैयारी से बैठा पाते हैं। उदाहरण के तौर पर यदि देरी से ज्वाइन करना सम्भव हो, तो आप वैसा कर सकते हैं। ज्वाइन करने के बाद लम्बी छुट्टी लेने के बारे में भी सोचा जा सकता है, यदि मिलना सम्भव हुआ तो। साथ ही यदि लम्बी छुट्टी की बात हुई, तो यह सब कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि आपको आई.ए.एस. की तैयारी करने के लिए कितना वक्त चाहिए।
आपको यह जानकर सुखद आष्चर्य होगा कि इस सेवा में सेलेक्ट होने वाले लोगों में अधिकांष वे होते हैं, जो पहले से ही किसी न किसी नौकरी में लगे रहते हैं। नौकरी करना सिविल सेवा में सेलेक्ट होने की बाधा नहीं है। आप यह भी तो कर सकते हैं कि कुछ समय के लिए अपनी क्षमताओं को बढ़ा दें। सोने के घन्टे कम कर दें। मनोरंजन में कटौती कर दें। आना-जाना कम कर दें और अपने एक-एक मिनट का इस्तेमाल इसकी तैयारी के लिए ही करने लगें। कुल-मिलाकर बात यह है कि आप यह देखें कि ऐसा कैसे किया जा सकता है, बजाए इसके कि आप यह निर्णय ही ले लें कि ऐसा किया ही नहीं जा सकता।
रेग्यूलर पढ़ाई से तालमेल
मान लीजिए कि आपने ग्रेज्यूएशन कर लिया है और आप आई.ए.एस. बनना चाहते हैं। लेकिन अभी आप इक्कीस साल के हुए नहीं हैं। तब आपको क्या करना चाहिए? अधिकांश विद्यार्थी पूरी तरह यह सोचकर आई.ए.एस. की तैयारी में लग जाते हैं कि इक्कीस साल का होने के बाद वे परीक्षा में बैठ जाएँगे। वे गलत नहीं सोच रहे हैं। लेकिन मुझे लगता है कि वे अपनी इस सोच को थोड़ा-सा बदलकर अपने इस समय को अधिक मूल्यवान बना सकते हैं। वह इस रूप में कि आई.ए.एस. में वे जो विषय लेना चाहते हैं, उसी विषय से उन्हें पोस्ट ग्रेज्यूएशन कर लेना चाहिए। जरूरी नहीं कि यह पी.जी. एक रेग्यूलर स्टूडेन्ट के रूप में ही किसी कॉलेज से की जाए। इंदिरा गांधी मुक्त विश्वविद्यालय के नोट्स स्तरीय होते है और वहाँ से कॉरेस्पोन्डेन्स कोर्स के माध्यम से पोस्ट ग्रेज्यूएशन करना फायदेमंद निर्णय हो सकता है। इससे आपकी आई.ए.एस. की तैयारी तो हो ही जाएगी, बोनस में आपको पोस्ट ग्रेज्यूएशन की डिग्री भी मिल जाएगी। कौन जानता है कि आगे क्या हो। हो सकता है कि सेलेक्षन हो ही नहीं और ऐसी स्थिति में पोस्ट ग्रेज्यूएशन की यह डिग्री ही डूबते को तिनके का सहारा बन जाए।
एक बात और, और यह बात इन्टरव्यू से जुड़ी हुई है। आमतौर पर देखा गया है कि यदि आपने किसी विषय में पी.जी. किया है या किसी विषय पर शोध किया है, तो इन्टरव्यू के दौरान उससे कुछ न कुछ प्रश्न पूछ ही लिए जाते हैं। इस प्रकार अप्रत्यक्ष रूप से इन्टरव्यू में आपको मदद मिल जाती है, क्योंकि ऐसे प्रश्नों के उत्तर देना उनकी तुलना में आसान होता ही है, जिनके बारे में आप कुछ भी निश्चित नहीं है।
अनुभव का लाभ लें
अब आखिरी बात। अनुभव का भविष्य में सही लाभ तभी मिल पाता है, जब हम उस अनुभव का जीवन्त उपयोग अपने जीवन में करते हैं। मान लीजिए कि आप पहली बार प्रारम्भिक परीक्षा में बैठे और आपका चयन नहीं हुआ। इसे ही मैंने ‘अनुभव का अटेम्ट’ कहा है। लेकिन ध्यान रहे कि यह अनुभव का अटेम्ट तभी बन पाएगा, जब आप इसका सही तरीके से उपयोग करेंगे। उपयोग करने का अर्थ है-इसका सही तरीके से मूल्यांकन करेंगे। अपनी क्षमता और अपनी कमजोरियों को समझने की कोशिश करेंगे और समझने के बाद क्षमता को और मजबूत बनाएँगे तथा कमजोरियों से छुटकारा पाएँगे। इसके लिए आपको क्या करना चाहिए, अब इस बारे में मैं कुछ बिन्दु बताना चाहूँगा।
जैसे ही आपकी प्रारम्भिक परीक्षा खत्म होती है, आप या तो उसी दिन या फिर अगले ही दिन अपनी उस परीक्षा के अनुभव का पूरा-पूरा मूल्यांकन करें और उस मूल्यांकन को नोट करें। आप आलस्य की जकड़न में आकर यह न सोचें कि ये तो सब सामान्य सी बातें है और मुझे याद ही रहेंगी। पक्का मानिए कि ये बाद में गायब हो जाएंगी। तब आप इसका उतना फायदा नहीं उठा पाएँगे, जितना आपको उठाना चाहिए था। इसलिए लिखने में कंजूसी बिल्कुल भी न करें। आप अपना मूल्यांकन निम्न बिन्दुओं के आधार पर कर सकते हैं –
- आपने कितने प्रश्न सही हल किए।
- कितने प्रश्न ऐसे हल किए कि, जिनके 50 प्रतिशत सही होने की संभावना है।
- 50 प्रतिशत सम्भावना वाले प्रश्न क्यों शत-प्रतिशत सम्भावना वाले प्रश्न नहीं बन सके; अर्थात ऐसे कौन से कारण रहे कि आपके दिमाग में उन प्रश्नों के उत्तर के बारे में भ्रम रहा? इस बात की जाँच करना बहुत जरूरी और उपयोगी है, क्योंकि इसी जाँच के द्वारा आप अपनी कमजोरियों को पकड़ पाएंगे। आप देखेंगे कि उत्तर के बारे में जो भ्रम रहता है, उसका मूल कारण यह होता है कि आपने पढ़ते समय पूरी गम्भीरता नहीं बरती थी। इस जाँच के द्वारा आप अपनी इन कमियों को पहचान सकेंगे तथा भविष्य में स्वयं को और अधिक योग्य बना सकेंगे।
- कितने प्रश्न ऐसे थे, जिन्हें आप बिलकुल हल नहीं कर सके? इस तरह के प्रश्नों में यह जानने की कोशिश कीजिए, कि आप इन्हे हल क्यों नहीं कर सके? इसके बहुत-से कारण हो सकते हैं। जैसे कि आपने टॉपिक को पढ़ा ही नहीं था। पढ़ने के बावजूद गम्भीरता से नहीं पढ़ा। टॉपिक तो आपने पढ़ा, लेकिन जो प्रश्न पूछा गया था, उसका उत्तर उस टॉपिक में नहीं था आदि-आदि। इसके साथ ही यह भी जानने की कोशिश कीजिए कि आप कौन-सी किताब पढ़े होते, तो उस प्रश्न का उत्तर दे सके होते।
- यह भी लिखें कि आपने प्रश्न-पत्र कितने समय में हल कर लिया था, कितना समय आपके पास बचा था और उस बचे हुए समय का आपने किस तरह उपयोग किया। अक्सर देखने में आता है कि परीक्षार्थी बचे हुए समय का सही उपयोग नहीं करते। परीक्षार्थी को चाहिए कि वे इस बचे हुए समय को उन प्रश्नों का उत्तर ढूंढ़ने में लगाएं, जिन्हें वे हल नहीं कर पा रहे हैं। आपको यह ध्यान रखना चाहिए कि प्रतियोगी परीक्षा में एक-एक अंक का बहुत अधिक महत्त्व होता है।
यहाँ महत्त्व इस बात का नहीं है कि आप अपने पहले ही प्रयास में सफल हुए हैं या नहीं। अक्सर यह देखा जा रहा है कि जब से प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठने के लिए अधिकतम् आयु सीमा बढ़ा दी गई है, तथा बैठने के चांस भी बढ़ा दिए गए है, तब से पहली बार में ही सफल होने वाले विद्यार्थियों की संख्या कम हो गई है, लगभग 15-16 प्रतिशत। अब सफलता का सेहरा दूसरी या तीसरी बार परीक्षा में बैठने वाले विद्यार्थियों के सिर पर अधिक बंधता है। यह तथ्य इस बात को स्पष्ट करता है कि उनकी सफलता में उनके अनुभवों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। लेकिन किसी भी परीक्षा में बैठ जाने भर से अनुभव नहीं होता। बल्कि इसके लिए आवश्यक है कि आप उन अनुभवों को लिखें, उनका अच्छी तरह विश्लेषण करें, उन पर गहराई से गम्भीरतापूर्वक विचार करें। इस विश्लेषण से प्राप्त अपनी कमियों को दूर करने का प्रयास करें। तभी आप आगे जाकर सफल हो सकेंगे । अन्यथा आपकी नियति जैक पर खड़ी होकर स्टार्ट की गई उस कार की तरह हो जाएगी, जिसके पहिए तो घूम रहे हैं, लेकिन जो एक इंच भी आगे नहीं बढ़ रही है।