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मुख्य परीक्षा का मूल है विश्लेषणात्मकता-5

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मित्रो, पिछले चार अंकों से लगातार इस बात की बहुत गहराई और विस्तार के साथ चर्चा की जा रही है कि सिविल सर्विस, विशेषकर आय.ए.एस. की तैयारी करने वाले स्टूडेन्टस् अपने अन्दर किस प्रकार से विश्लेषण की क्षमता विकसित करें। इस क्रम में आपको बताया गया है कि विश्लेषण क्षमता क्या होती है, इसके कौन-कौन से आयाम होते हैं और इस योग्यता को प्राप्त करने के लिए आपका अध्ययन कैसा और कितना होना चाहिए तथा किन मनोवैज्ञानिक स्थितियों के आधार पर आपको अपने अध्ययन को अंजाम देना चाहिए। इसी क्रम का यह अगला लेख है, जिसमें मनोविज्ञान की एक अन्य स्थिति की चर्चा की जा रही है। इसके बाद मैं उन व्यावहारिक तत्वों के बारे में बात करना चाहूँगा, जिन्हें इस्तेमाल करके आप विश्लेषण करने की क्षमता में महारत हासिल कर सकते हैं।

एक बात तो आपको बहुत अच्छी तरीके से समझ लेनी चाहिए कि चाहे आप इसे पसन्द करें या न करें, चाहे आप इसे हासिल कर पायें या न कर पायें, लेकिन अब सिविल सर्विस परीक्षा में पूछे जाने वाले प्रश्नों के सटीक उत्तर देकर यदि आपको सफल प्रतियोगियों की सूची में अपना नाम दर्ज कराना है, तो आपके पास इसके सिवाय कोई चारा नहीं है कि आप अपनी विश्लेषण करने की क्षमता को बढ़ाएँ। यदि यह एक क्षमता आपमें आ गई, तो हो सकता है कि अन्य क्षमता के अभावों में भी आपको सफलता मिल जाए। लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं हो सकता कि अन्य क्षमताएँ तो आपमें हैं और काफी मात्रा में भी हैं, लेकिन विश्लेषण की क्षमता नहीं है, तो आप सफल हो जाएंगे। दरअसल छोटी सी छोटी बात को अपने विश्लेषण का स्पर्श देकर उसे चमकदार बना देने की अद्भुत योग्यता ही सिविल सेवा परीक्षा की सफलता की प्राण-वायु है। इसे आपको अपनी गाँठ में बाँध लेना चाहिए।

पिछले अंक में मैंने इसी संदर्भ में दो बिन्दुओं की चर्चा की थी – अवलोकन (Observation) तथा व्यावहारिक अन्र्तक्रियाएँ (Interaction) की इसी क्रम में मैं अब इससे जुड़े अंतिम बिन्दु दिमाग के खुलेपन के बारे में कुछ बातें करना चाहूँगा। की

दिमाग का खुलापन
दरअसल सुनने में यह बहुत सरल सा लगता है और काफी कुछ हास्यास्पद भी। ऐसा इसलिए क्योंकि हर कोई यही मानकर चलता है कि उसका दिमाग खुला हुआ है। भला बन्द दिमाग भी कोई दिमाग होता है। लेकिन सच्चाई इसके बिल्कुल विपरीत है। काश कि लोगों के दिमाग खुले होते। विश्वास कीजिए कि यदि ऐसा होता, तो दुनिया की बहुत सारी समस्याएँ होती ही नहीं। आप इस प्रश्न पर विचार कीजिए कि आज पूरा विश्व जिस आतंकवाद से त्रस्त है, क्या उसका संबंध दिमाग की इसी स्थिति से नहीं है?

मित्रो, यह बहुत बड़ा चैलेंज है कि हम जब कुछ भी पढ़ते हैं, सुनते हैं और बात-व्यवहार करते हैं, तो हम अपने दिमाग की खिड़कियों को कितना खुला रखते हैं। दरअसल हमारी अपनी परवरिश, शिक्षा, संस्कार, परिवेश, जीवन दर्शन आदि ऐसी अनेक बातें होती हैं, जो हमारे दिमाग के खुले हुए दरवाजे को धीरे-धीरे सकरा करते-करते अंत में उसे बन्द कर देते हैं। नतीजा यह होता है कि हर चीज के बारे में हमारा अपना एक निश्चित दृष्टिकोण बन जाता है और फिर हम हर चीज का मूल्यांकन अपनी इस बँधी-बँधाई कसौटी पर ही करने लगते हैं। सच पूछिए तो विचार वही वे होते हैं, जन्हें धारदार हथियार की तरह काम में लाकर हम कठिन से कठिन विपरीत परिस्थितियों का मुकाबला कर सकते हैं। वे ही धारदार हथियार हमारी गर्दन पर सवार होकर हममें धमकाने लगते हैं। मजेदार बात तो यह है कि हम इससे दुष्प्रभावित भी होते हैं लेकिन पता नहीं चल पाता कि ऐसा क्यों हो रहा है। ऐसा अपने बन्द दिमाग के कारण ही होता है। आप खुद सोचकर देखिए कि यदि किसी भी घटना को देखने और जाँचने-परखने की कसौटी एक ही होती, तो फिर विश्लेषण की जरूरत ही क्यों पड़ती?

जाहिर है कि एक ही तथ्य पर भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण होते हैं और यह भिन्न दृष्टिकोण ही तथ्यों के बारे में एक बौद्धिक स्तर का निर्धारण करते हैं कि कौन कितना दमदार है। यही कारण है कि एक ही तथ्य पर न केवल भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण मिलते हैं, बल्कि एक-दूसरे के बिल्कुल विपरीत दृष्टिकोण मिलते हैं। उदाहरण के तौर पर अभी की ही एक घटना को ले लीजिए। निर्भया दृष्कर्म कांड पर बी.बी.सी. के एक निर्देशक ने डाक्यूमेन्ट्री बनाई। इस डाक्यूमेन्ट्री का प्रसारण होना चाहिए था या नहीं, इस मुद्दे पर आपको साफ-साफ एक-दूसरे के विरोध में खड़े दो वर्ग दिखाई दे रहे हैं। भारत सरकार तथा अन्य बहुत सी संस्थाओं एवं लोगों का मानना है कि इस डाक्यूमेन्ट्री फिल्म का प्रसारण बिल्कुल नहीं होना चाहिए। सरकार ने इस दिशा में कानूनी कदम भी उठाये हैं। जबकि दूसरी ओर न केवल ब्रिटिश ब्राडकास्टिंग कार्पोरेशन तथा फिल्म निर्देशक का ही मानना है कि बल्कि भारत के ही बहुत से बुद्धिजीवी और एडीटर गिल्ड का कहना है इस फिल्म का प्रसारण होना चाहिए। आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? उत्तर बहुत स्पष्ट है कि सबके पास सोचने-समझने की अपनी-अपनी कसौटी है और इन कसौटियों पर वे तथ्यों को जाँच-परख कर अपने तर्क पेश करते हैं।

अब सिविल सेवा परीक्षा की दृष्टि से सवाल यह उठता है कि आप दोनों में से किसकी बात माने-पहले वर्ग की या दूसरे वर्ग की। या फिर एक रास्ता यह भी हो सकता है कि दोनों वर्गों की बातें सुनने के बाद आप खुद का एक तीसरा रास्ता बनाएं। बस, यहीं दिमाग के खुलेपन की बात सामने आती है। आप इस तथ्य से इंकार नहीं कर सकते कि आप भी इन दोनों में से किसी एक वर्ग में अनजाने में ही शामिल हो चुके हैं। आप थोड़ा रुककर इत्मीनान के साथ केवल इस सूक्ष्मता को पकड़ने की कोशिश कीजिए कि ऐसा क्यों और कैसे हो गया कि आपका इस डाक्यूमेन्ट्री से कुछ भी लेना-देना नहीं है, बावजूद इसके आप इसके प्रसारण को लेकर दो धड़ों में बँटे लोगों के एक धड़े में शामिल हो गए हैं, और वह भी बहुत ज्यादा सोचे-समझे बिना ही। मुझे लगता है कि जब आप अपने दिमाग की सच्चाई को जानने की कोशिश करेंगे तो शायद आप पहली बार अपने दिमाग की उस स्थिति को समझ सकेंगे कि वह कितना बन्द है और कितना खुला है। शायद आपका निष्कर्ष इसी के अधिक करीब होगा कि दिमाग यदि पूरी तरह बन्द नहीं है, तो भी बन्द होने के करीब तो है।

मित्रो, सिविल सर्विस परीक्षा आपके सामने यही सबसे बड़ी चुनौती पेश करती है कि वह जाँच सके कि आप किसी भी विषय पर कितने खुले दिमाग से सोच सकते हैं। आप यह भूल जाते हैं कि यदि आपने सिविल सर्वेन्ट बनने का फैसला किया है, तो यह फैसला मुख्यतः अच्छी-खासी सुख-सुविधाओं और अधिकारों वाली इज्जत से भरी हुई कोई बड़ी नौकरी करके अपनी जिन्दगी को अच्छी तरह गुजार देने का फैसला नहीं है, बल्कि जैसा कि मैं समझता हूँ, इससे कई गुना अधिक इस बात का फैसला है कि ‘‘मैं सामाजिक दायित्व स्वीकार करना चाहता हूँ।’’ मेरे इस वक्तव्य पर जब आप थोड़ी भी गंभीरता से विचार करगें, तब आपको सिविल सेवा परीक्षा के पूरे पैटर्न और परीक्षा में पूछे जाने वाले प्रश्नों के चरित्र की सच्चाई का पता लग सकेगा। चाहे आप उसे सरकार कह लीजिए या समाज कह लीजिए, वह नहीं चाहेगा कि वह अपने जीवन और भविष्य की बागडोर किसी ऐसे बन्द दिमाग वाले आदमी के हाथों में सौंप दे, जो अपने ही विचारों और आदतों का इतना अधिक गुलाम हो गया है कि उसके पास दूसरे के लिए जगह ही नहीं है। क्या आप खुद ऐसा चाहेंगे?

अब हम थोड़ी चर्चा इस बात पर करते हैं कि दिमाग का यह खुलापन होता क्या है और इसे कैसे बनाए रखा जा सकता है। इस बारे में मुझे हमारे पूर्व राष्ट्रपति डॉक्टर शंकर दयाल शर्मा जी का यह उद्धरण याद आ रहा है जिसका हवाला वे अपनी बातचीत और अपने भाषणों के दौरा न अक्सर दिया करते थे। अपने दस साल के उनके संरक्षण में मैंने इस बात को बहुत गहराई से महसूस भी किया कि वे न केवल दूसरों के लिए ही इस उद्धरण का उल्लेख करते थे, बल्कि उसे वे स्वयं भी जीते थे कि ‘‘आ नो भद्राः, कृत्वो यन्तु विश्वतः’’। यानी कि विश्व के चारों ओर से ज्ञान को आने दो। यानी कि किसी को भी अस्वीकार मत करो। किसी भी विचार के प्रति बहुत गहरी आस्था बनाकर उसे अपने विचारों के मेरूदण्ड में तब्दील मत करो। ज्ञान समयातीत है। इसका कोई अन्त नहीं है। ज्ञान जड़ नहीं बन सकता और सबसे मुश्किल की बात यह है एक होने के बावजूद सबका सत्य अलग-अलग होता है। यह इस प्रकार कि यदि दो व्यक्ति एक-दूसरे की ओर मुँह करके खड़े हों और उनसे पूछा जाए कि दोनों के बाँए हाथ और दाँए हाथ किन-किन दिशाओं में हैं, तो दिशाओं के एक होने के बावजूद दोनों के उत्तर बिल्कुल अलग-अलग होंगे। ऐसा नहीं है क्या?

कोई भी संस्कृति न तो इतनी महान होती है कि शेष अन्य तिरस्करणीय हों और न ही कोई इतनी तिरस्करणीय होती है कि उस सांस्कृतिक परिवेश वालों को नीची निगाह से देखा जाए। जिस दिन व्यक्ति के दिमाग में विज्ञान का यह सत्य प्रगट हो जाता है कि संस्कृतियों का निर्माण हम नहीं बल्कि हमारे भौगालिक परिवेश करते हैं, उस दिन से उसके दिमाग के बन्द दरवाजे चटकने शुरू हो जाते हैं।
जिस क्षण घटना और दुनिया को देखने के लिए हम एक तार्किक एवं वैज्ञानिक दृष्टि विकसित कर लेते हैं, उसी क्षण हमारे अँधेरे बन्द कमरे वाले दिमाग में रौशनी की एक ऐसी पतली सी लपट सुलग उठती है, जो धीरे-धीरे फैलकर उस अँधेरे को दूर कर देती है और दिमाग खुल जाता है।

मित्रो, मैंने उन थोड़े से तरीकों की चर्चा की है, उपायों की चर्चा की है, जिनके आधार पर यदि आप चाहते हैं, तो अपने दिमाग के दरवाजे पर पड़े हुए बड़े और मजबूत अलीगढ़ ताले पर चोट कर करके उसे तोड़ सकते हैं। जैसे ही यह ताला टूटेगा और दिमाग का दरवाजा खुलेगा, तो आप देखेंगे कि कैसे आन्तरिक चेतना एक नई रौशनी से नहा उठी है। शायद पहली बार आप अपने दिमाग की उस अनंत शक्ति को महसूस कर सकेंगे, जो आपमें अभी भी मौजूद है। लेकिन दुर्भाग्य से धधकते हुए अंगारों पर राख की परतें पड़ी हुई हैं। आपको पहली बार अपने आँखों की उस बढ़ी हुई तीखी और तेज रौशनी का अहसास होगा, जो सामान्य सी सामान्य घटनाओं में भी एक्स-रे की तरह उतरकर उसके अन्दर की उन चीजों को देख लेती है, जिसे दूसरे नहीं देख पाते। क्या आपको नहीं लगता कि यदि सचमुच ऐसा हो जाए, तो आप दूसरों से अलग हो जायेंगे। क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि अब आप जब किसी भी प्रश्न का उत्तर लिखेंगे, तो वह दूसरों के द्वारा लिखे गये उत्तरों से थोड़ा अलग होगा। और यदि आपको ऐसा लगता है, तो फिर आपको यह भी लगना चाहिए कि ‘‘मुझे ऐसा करना ही होगा।’’

मैं इस बारे में एक छोटी-सी घटना की चर्चा करना चाहूँगा। आय.ए.एस. की तैयारी करने वाले स्टूडेन्टस् के लिए मैं रोजाना 30-35 मिनट का एक आडियो लेक्चर तैयारकर उसे ूूूण्ंमिपंेण्बवउ पर डालता हूँ। इस पर मुझे रोजाना बहुत सी प्रतिक्रियाएँ मिलती हैं-अलग-अलग तरह की मजेदार। इसी में से एक मजेदार प्रतिक्रिया यह थी कि ‘‘आप इसमें जो कुछ भी बताते हैं, वह सब तो हम जानते ही हैं। इसमें नया क्या है? हम इसे क्यों सुनें?’’ मैं चाहूँगा कि आप इस स्टूडेन्ट की इस प्रतिक्रिया के बारे में खुले दिमाग से विचार करें और इस सामान्य-सी दिखने वाली घटना का विश्लेषण करें। शायद आपको आज के मेरे इस लेख का केन्द्रीय भाव समझ में आ जाएगा। चलिए, आपकी सुविधा के लिए कुछ बातें मैं ही बता देता हूँ।

पहली बात तो यह कि यह आॅडियो फ्री है। किसी नियम के तहत इसको यू.पी.एस.सी. ने सुनना अनिवार्य नहीं किया है। इसलिए मुझसे पूछने की जरूरत ही नहीं है कि ’क्यों सुनें।’ जाहिर है कि यह वक्तव्य आक्रोश में, प्रतिक्रिया में या विरोध में दिया गया वक्तव्य है। दूसरा यह कि ‘हम’ का मतलब समझ से परे है। ‘मैं जानता हूँ’, इसका मतलब यह तो नहीं कि सब जानते हैं। तीसरी बात जो मुझे इस लेख के सन्दर्भ में सबसे महत्वपूर्ण मालूम पड़ती है, वह यह कि ‘‘जो यह कहता है कि मैं जानता हूँ, दरअसल वह कुछ भी नहीं जानता।’’ मैं यहाँ स्पष्ट कर दूँ कि मेरा यह कथन यूनान के महान दार्शनिक सुकरात के कथन का ही थोड़ा परिवर्तित रूप है। उनका मूल वाक्य था कि ‘‘इस यूनान में सारे लोग मूर्ख हैं। केवल मैं ही समझदार हूँ, क्योंकि केवल मैं ही वह हूँ, जो यह जानता है कि ‘मैं कुछ नहीं जानता।’’
चूँकि सुकरात को हमेशा लगता था कि मैं कुछ नहीं जानता, इसलिए वे इतना कुछ जान सके। जो आम पक जाता है, उसके सड़ने की शुरूआत हो जाती है। जो दिमाग बन्द हो जाता है, वह अपने विकास की सारी संभावनाओं को नष्ट कर देता है।

मित्रो, इस बारे में फिलहाल मैं इतना ही कहना चाहूँगा कि अपने दिमाग को किसी भी निश्चित धारणा का शिकार होने से बचाएँ। चारों तरफ के विचारों को खुले रूप में आने दें। आने के बाद उनका विश्लेषण करें। फिर वैज्ञानिक तरीके से सोचने-समझने के बाद, उनकी चीर-फाड़ करने के बाद जो आपके काम की न हो उन्हें फेंक दें। लेकिन जो आपके पास बच जाए, उससे भी इतना मोह न पाल लें कि इसे अब कभी फेंकना ही नहीं है। अपने मस्तिष्क को लगातार बदलाव की प्रक्रिया में शामिल रखें। आप जानते ही हैं कि जो पानी रुक जाता है, चाहे शुरू में वह कितना ही साफ-सुथरा क्यों हो, धीरे-धीरे गंदा होने लगता है। फिर कीचड़ में तब्दील हो जाता है और बाद में जमीन पर एक काले रंग की पपड़ी छोड़कर हमेशा-हमेशा के लिए गायब हो जाता है। बहते हुए पानी की प्रकृति से आप परिचित ही हैं।

विश्लेषणात्मक क्षमता के टूल्स (उपकरण)
आपने बहुत सी किताबें पढ़ी होंगी। बहुत से लोगों को सुना भी होगा। आप जरा सोचकर यह बताइएं कि उनमें से कौन-सी किताबें ऐसी थीं, जिन्होंने आपको प्रभावित किया तथा कौन-से लैक्चर ऐसे थे, जिनसे आप प्रभावित हुए। मेरे शब्दों पर ध्यान दीजिए। मैं अच्छा लगने की बात नहीं कर रहा हूँ। मैं प्रभाव की बात कर रहा हूँ। इन दोनों में फर्क है। हो सकता है कि जो लैक्चर आपने सुना, उसे सुनाने वाले के पास सुनाने की कला अद्भुत थी। उसकी भाषा रोचक थी। कहने का अंदाज प्यारा था तथा किस्से-कहानियाँ और चुटकुलों की उसके पास भरमार थी। वह इसलिए आपको अच्छा लगा होगा, जैसा कि अक्सर मंचीय कवि सम्मेलनों में होता है। लेकिन इसका प्रभाव कुछ नहीं पड़ता। यह एक प्रकार से मनोरंजन है। लेकिन जब बात प्रभाव की होती है, तो उसका संबंध सीधे-सीधे दिमाग में हलचल पैदा कर देने से होता है। प्रभाव का अर्थ ही होता है कि हम सुनकर अवाक रह गये हैं। सुनने के बाद हम कुछ सोचने के लिए बाध्य हो गए। सुनने के बाद उस व्यक्ति की प्रतिभा के प्रति हमारे मन में सम्मान का भाव पैदा हो गया। सुनने के बाद कुछ तथ्य हमारे दिमाग में इस तरह से रच-बस गए हैं कि वे लम्बे समय तक याद रहेंगे और सबसे बड़ी बात तो यह कि जो कुछ भी हमने सुना है, उसका प्रभाव इतना दुर्निवार था कि हमारे विचारों और व्यवहारों पर वह असर दिखने लगा है।

सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी करने वाले ईमानदार और गंभीर विद्यार्थियों को ‘अच्छा लगने’ एवं ‘प्रभावित करने’ के इस अन्तर को बहुत अच्छी तरह आत्मसात कर लेना चाहिए। मैं ‘समझ लेना चाहिए’ की बात नहीं कर रहा हूँ, बल्कि मैं बात कर रहा हूँ-आत्मसात करने की। सिविल सर्विस परीक्षा की सफलता का यह सत्य आपकी आत्मा की गहराइयों में रच-बस जाना चाहिए। वहाँ अच्छा लगने के कोई माक्र्स नहीं मिलते। माक्र्स केवल इस बात के मिलते हैं कि आप परीक्षक को कितना अधिक प्रभावित करने में सफल हो पाए हैं।

साथ ही याद रखिए कि कोई भी व्यक्ति किसी को भी न तो अपने चेहरे-मोहरे से प्रभावित कर सकता है और न ही लच्छेदार बातों से। न ही सतही ज्ञान के द्वारा और न ही भ्रम में डालने वाले भूलभूलैया वाले तरीकों से। वहाँ भाषा का सौन्दर्य भी काम नहीं आता और न ही काम आते हैं भाषा के भारी भरकम शब्द। न ही वहाँ काम आती है आपके द्वारा लिखे गए शब्दों की संख्या। मित्रो, वहाँ तो केवल एक ही बात काम आती है कि आप अपनी बात को कितने तार्किक और सारगर्भित तरीके से रख पा रहे हैं। परीक्षक को बहलाने-फुसलाने की उस नीति को हमेशा-हमेशा के लिए भूल जाइए, जो नीति माता-पिता अपने बच्चे की किसी जिद्द से परेशान होकर उसे बहलाने-फुसलाने के लिए अपनाते हैं। जाहिर है कि यह तार्किकता और सारगर्भित आपको चाहिए ही चाहिए और यह आती है तथ्यों से, जिसे आप विश्लेषणात्मकता का कच्चामाल कह सकते हैं। इसके बारे में अब हम अगले अंक में विचार करेंगे।

NOTE: This article by Dr. Vijay Agrawal was first published in ‘Civil Services Chronicle’.

 

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