मुख्य परीक्षा का मूल है विश्लेषणात्मकता-4

Afeias
22 Oct 2015
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पिछले अंक में मैंने विश्लेषण प्राप्त करने की योग्यता के अन्तर्गत दो मुख्य बातों की विस्तार के साथ चर्चा की थी। पहला यह कि इस क्षमता को प्राप्त करने के लिए किन-किन विषयों का अध्ययन किया जाना चाहिए और क्यों किया जाना चाहिए। दूसरे बिन्दु के अन्तर्गत मैंने यह भी समझाने की कोशिश की थी कि इन विषयों को अलग-अलग पढ़ने के बाद कैसे अपने अन्दर इंटरडिसीप्लीनरी एप्रोच लायाी जानी चाहिए। अब यहाँ विश्लेषण की क्षमता पैदा करने के महत्वपूर्ण तरीकों के अन्तर्गत दो आवश्यक बिन्दुओं के बारे में और बताया जा रहा है। ये दोनों बिन्दु किसी भी मायने में अध्ययन की तुलना में कम नहीं है बल्कि ज्ञान का इतिहास इस बात का गवाह है कि ये दोनों बिन्दु अध्ययन से कहीं अधिक शक्तिशाली और अधिक उपयोगी हैं। यहाँ तक देखा गया है कि केवल अध्ययन व्यक्ति के विश्लेषण को कभी-कभी बहुत अधिक शुष्क, एकांगी और काफी कुछ अव्यावहारिक भी बना देता है। जब अध्ययन का अवलोकन और इंटरेक्शन के साथ तालमेल बिठाता है, तब विश्लेषण करने के बाद जो निष्कर्ष हमारे सामने आते हैं, वे बहुत ही अधिक न केवल तार्किक एवं प्रभावशाली ही होते हैं बल्कि व्यावहारिक भी होते हैं। जी हाँ, यहाँ जिन दो महत्वपूर्ण तत्वों की बातें की जा रही हैं उनमें से एक है अवलोकन (आब्जर्वेशन) तथा दूसरा है व्यावहारिकता (इंटरेक्शन)।
हमारे यहाँ की शिक्षा पद्धति, जिसमें एशिया के अधिकांश तथा विश्व के अधिकांश विकासशील देश शामिल हैं, के अन्तर्गत क्लास के अन्दर बैठकर पुस्तकीय ज्ञान प्राप्त करने को अधिक महत्व देती है। कोई विद्यार्थी कितना बुद्धिमान है, इसका निर्धारण उसकी मार्कशीट करती है। वैसे भी पढ़ाई का सिलेबस और विद्यार्थी का रोज का टाइम टेबल इस तरह का होता है कि उससे पढ़ने के अतिरिक्त किसी अन्य गतिविधि की बहुत उम्मीद की भी नहीं जा सकती। पढ़ाई का सिलेबस, उसकी किताबें (एनसीआटी की किताबों का छोड़कर) तथा परीक्षा के प्रश्न-पत्र भी इस तरह के होते हैं कि स्टूडेट को भी अपने विद्यार्थी जीवन में किसी भी तरह की किसी कमी का अभाव महसूस ही नहीं होता। और जब पढ़ाई पूरी हो जाती है, तो पता चलता है कि उसके पास आश्चर्य पैदा कर देने वाली योग्यता की गवाही देती हुई मार्कशीट तो है लेकिन उस ज्ञान के व्यावहारिक पक्ष की जानकारी नहीं के बराबर है। उसे संविधान याद है लेकिन वह राजनीति को नहीं समझता। भूगोल के टिप्स उसकी उंगलियों पर है, लेकिन वह अपनी आसपास के भौगोलिक विशेषताओं की व्याख्या नहीं कर सकता। वह इंजीनियर है, लेकिन इंजीनियरिंग के बारे में बहुत ज्यादा नहीं जानता। इन्फोसिस के चेयरमैन नारायण मूर्ति ने इस देश की इस पीड़ा को खुलेआम व्यक्त भी किया था।
सोचने की बात है कि इस तरह का संकट क्यों आता है? सोचने की बात यह भी है कि यदि हम अपने ज्ञान का उपयोग नहीं कर पा रहे हैं, फिर चाहे वह विचार करने के स्तर पर ही क्यों न हो, तो फिर उस ज्ञान की उपयोगिता ही क्या है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि सबसे पहली औद्योगिक क्रांति इंग्लैण्ड में हुई। तो क्या इसका कारण यह था कि इंग्लैण्ड में ही सबसे अधिक वैज्ञानिक आविष्कार हुए थे? ऐसा बिल्कुल नहीं था। उसी काल में जर्मनी, हालैण्ड, इटली तथा फ्रांस आदि देशों में भी काफी वैज्ञानिक आविष्कार हुए थे, इंग्लैण्ड की तुलना में कहीं अधिक। लेकिन फर्क केवल यह रहा कि जहाँ अन्य देश अपने इन वैज्ञानिक आविष्कारों का व्यापारिक उपयोग नहीं कर सके, वहीं इंग्लैण्ड ऐसा कर बैठा और अन्ततः बाजी मार ले गया। और इसी ने उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त तक इस देश को दुनिया की सबसे बड़ी शक्ति बना दिया। क्या यही तथ्य आज के अमेरीका पर लागू नहीं किया जा सकता है?
पश्चिमी देशों की शिक्षा पद्धति हमसे अलग है। वे किताबी ज्ञान को कम और व्यावहारिक ज्ञान को इससे कई गुना अधिक महत्व देते हैं। वहाँ इस बात की प्रशंसा की जाती है कि कोई स्टूडेन्ट अपनी कॉलेज लाइफ के दौरान कहीं पार्ट टाइम काम कर रहा होता है। फिर चाहे वह रेस्टोरेन्ट में ही काम क्यों नहीं कर रहा हो। अरबपतियों के बच्चे भी ऐसा करते हैं। और ऐसा करना फक्र की बात मानी जाती है। व्यावहारिक ज्ञान के महत्व को इस एक तथ्य से समझा जा सकता है कि केम्ब्रिज, ऑक्सफोर्ट, लंदन स्कूल आफ इकोनामिक्स तथा अन्य विश्व स्तरीय संस्थानों से यदि आपको एम बी ए (मास्टर आफ बिजीनेस एडमिनिस्ट्रेशन) करना है, तो उकसे लिए कम से कम तीन से पांच साल के कार्य का अनुभव होना अनिवार्य होता है। जाहिर है कि कार्य के इस अनुभव के बाद जब आप किताबें पढ़ेंगे, तो उन किताबों में लिखे गए अक्षरों के न केवल आपके लिए अर्थ ही बदल गए होंगे बल्कि आपको सतह से बहुत गहराई की बातें भी दिखाई देने लगेंगी।
इस बात को मैं अपने अनुभव से भी विश्वास दिला सकता हूँ। शायद आप यकीन न करें कि मैंने अर्थशास्त्र का सारा व्यावहारिक ज्ञान अपने व्यापारिक जीवन के दौरान पाया है। उप राष्ट्रपति और राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा जी के साथ काम करने के दौरान जब राजनीतिक परिदृश्य और संविधान के व्यावहारिक पक्ष से सीधे-सीधे पाला पड़ा, तो मेरे लिए वही संविधान बहुत ही सरल और विराट बन गया। नौकरी के दौरान प्राप्त प्रशासन के अनुभव ने पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन के विषय को एक नई और व्यावहारिक अर्थवेत्ता ही प्रदान कर दी।
आखिर मैं यह सब इतनी लम्बी-चौड़ी बातें कर क्यों रहा हूँ? केवल आपको विश्वास दिलाने के लिए, आपको यह विश्वास दिलाने के लिए कि जब हम किसी विषय के व्यावहारिक पक्ष में स्व्यं को शामिल कर लेते हैं, तो उस विषय की गुणवत्ता हमारे लिए सचमुच कितनी अधिक बढ़ जाती है। अन्यथा हम भारत के लोग पढ़ाई के दौरान काम करने को तब तक बहुत अधिक अपमानजनक, दुर्भाग्यपूर्ण तथा पिछले जन्म में किए गए किसी पाप का परिणाम मानते हैं जब तक कि ऐसा करना अस्तित्व की रक्षा के लिए अनिवार्य न हो जाए। काश कि हम इसे एक लर्निक की तरह लेते, अनुभव की तरह लेते और प्रेक्टिकल की तरह लेते। मुझे विश्वास है कि मेरी इन बातों का यकीन करके आप एक बार ऐसा जरूर करेंगे। फिर यदि आपको यह ठीक न लगे, तो उसे जारी न रखने के लिए आप स्वतंत्र ही हैं। तो आइए, अब हम इन दोनों पक्षों पर थोड़ी-थोड़ी बातें करते हैं।
अवलोकन
अवलोकन का अर्थ है, किताबों में आपने जो कुछ भी देखा है, उसे समाज में होते हुए देखना, साथ ही ठीक इसके विपरीत कि जीवन में आप जो कुछ भी होता हुआ देख रहे हैं, उसे किताबों में ढूँढ़ना। दरअसल यह अवलोकन बेसिक आब्जर्वेशन नहीं है। यह उस तरह का अवलोकन नहीं है कि आप नदी के किनारे खड़े हैं औ नदी में बहते हुए पानी को देख रहे हैं। वस्तुतः यह एक्टिव आब्जर्वेशन है। यह पूरी सतर्कता के साथ किया गया अवलोकन है। आप घटनाओं को देखते हैं। लोगों को एक-दूसरे से बातचीत करते हुए, लेन-देन करते हुए, संबंधों को निभाते हुए देखते हैं। कोई भी विषय ऐसा नहीं होता, जो हमारे जीवन से अछूता होता हो। आप स्वयं भी इससे अछूते नहीं रहते होंगे, रह ही नहीं सकते। तो क्या फिर आप अवलोकन कर रहे हैं। यहीं आपको मेरी बात को थोड़ा ध्यान से पढ़ना होगा। उसे समझना होगा और उसे व्यवहार में भी लाना होगा।
देखने के दौरान आपको अपनी बुद्धि को यह निर्देश देना होगा कि वह इसके बारे में सतर्क हो जाए। यहाँ जो कुछ भी हो रहा है, उसे अपने दिमाग में थोड़ी सतर्कता और सावधानी के साथ सिलसिलेवार दर्ज करता चला जाए। आपको अपने दिमाग को यह निर्देश देना होंगे कि वह कोशिश करे कि कोई महत्वपूर्ण बात छूटने न पाए। वह यहाँ अपनी रूचि-अरूचि को दरकिनार कर जो भी चीज़ें उसके सामने आ रही हैं, उन्हें इम्प्रिंट कर ले। उनमें काँट-छाँट न करें। यह अवलोकन का पहला चरण हुआ।
अवलोकन का दूसरा चरण मूलतः आपके विचार करने का चरण होगा। अब आपको दो काम करने होंगे। पहला यह कि जो भी तथ्य और घटनाएँ दिमाग में दर्ज हैं, उनके बारे में सोचिए कि क्या आपने किताब में इसके बारे में कुछ पढ़ा था। और यदि पढ़ा था तो वह क्या था? फिर पढ़ा हुआ और दिमाग में दर्ज हुई घटनाओं की आपस में तुलना कीजिए। देखिए कि क्या घटनाएँ उसी तरह से हुई, जैसे कि किताबों में दर्ज थीं। यदि ऐसा नहीं हुआ, तो फिर आपको विचार करना पड़ेगा कि ऐसा क्यों नहीं हुआ।
यहाँ से आपके अवलोकन का तीसरा चरण शुरू होता है और यहीं से अवलोकन करने की सीमा प्रारम्भ हो जाती है। आपको दिखाई देगा कि जो कुछ भी हुआ वह पूरी तरह किताब के अनुकूल तो नहीं हुआ लेकिन किताब से पूरी तरह प्रतिकूल भी नहीं रहा। दूसरे ऐसे बहुत से फैक्टर्स इस दौरान सक्रिय होकर इस घटना में शामिल हो गए कि जो कुछ होना चाहिए था, उसमें काफी कुछ बदलाव आ गए। तो अब आपको तलाश करनी होगी कि वे फैक्टर्स (कारक) कौन-कौन से थे। जब कारक आपके पकड़ में आ जाएंगे, तो फिर आप अब यह जानने का प्रयास करें कि इसमें इन अलग-अलग फैक्टर्स की क्या-क्या भूमिकाएं रही हैं और कितनी-कितनी भूमिकाएं रही हैं।
जब आप यह सब कर लेंगे, तो आपके सामने वही घटना एक नई पोशाक पहनकर उपस्थित हो जाएगी। यहाँ तक हो सकता है कि आप उसे पहचान भी न पाएं, लेकिन वह होगा वही, जो पहले था। लेकिन आपके सतर्क अवलोकन से उसके चेहरे-मोहरे में अनेक तरह की तब्दलियाँ ला दी हैं। यह पूरी की पूरी मानसिक प्रक्रिया आपके अन्दर इस तरह की घटनाओं के बारे में किताबों में दिए गए सिद्धान्त तथा व्यावहारिक जीवन में एप्लीकेशन में एक तीक्ष्म और गहरी अन्तर्दृष्टि पैदा कर देगा। यह अद्भूत होगा और आनन्ददायी भी। हो सकता है कि शुरू में आपको कुछ तकलीफ से गुजरना पड़े क्योंकि दिमाग को इसके लिए जद्दोजहद तो करनी ही पड़ेगी लेकिन बाद में यही जद्दोजहद आपकी एक ऐसी आदत बन जाएगी कि उसके बिना रहना मुश्किल हो जाएगा। सच पूछिए तो आपके जीवन का स्वाद ही बदल जाएगा।
व्यावहारिक क्रियाएँ (Interaction)
अवलोकन और इन्ट्रेक्शन में काफी कुछ समानता होने के बावजूद काफी बड़ा अन्तर भी है। समानता तो यह है कि इन दोनों में ही आप अपने सामने सतही घटनाओं को जीवन्त रूप में घटता हुआ देखते हैं और पूरी सतर्कता के साथ देखते हैं। चूँकि आप केवल देखते रहते हैं इसलिए घटनाओं पर आपका कोई नियंत्रण नहीं होता। आप उनका कुछ नहीं कर सकते, वे जैसी हो रही हैं, होती रहती हैं और आपका दिमाग उन्हें दर्ज करता रहता है। बस इतना ही। लेकिन यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। घटनाओं में हस्तक्षेप न करके आप उन घटनाओं को अपने अनुसार प्राकृतिक तौर पर घटने की पूरी इजाजत दे देते हैं। इससे आपको यह पता लग जाता है कि यदि किसी घटना को नियंत्रित न किया जाए, तो सामान्यतः वह किस तरह का स्वरूप ग्रहण कर लेती है। उदाहरण के के लिए आप अपने घर के किसी भी छोटे बच्चे को शैतानी करते हुए देखते हैं और आप उसे कुछ नहीं कहते, शैतानी करने देते हैं। इस अवलोकन के द्वारा आपको यह बोध प्राप्त हो सकता है कि यदि टोका न जाए, तो ऐसा बच्चा क्या-क्या करता है और आगे जाकर क्या बनता है और उसके क्या परिणाम होते हैं।

इंट्रेक्शन में आप घटनों का हिस्सा बन जाते हैं। आप हस्तक्षेप करते हैं। अपने ढंग से हस्तक्षेप करते हैं ताकि वे घटनाएँ आपके हस्तक्षेप से स्वरूप ग्रहण कर सकें। घटनाओं की विशेषता यह होती है कि वह हर तरह के छोटे-बड़े हस्तक्षेपों से प्रभावित होते हैं, भले ही हस्तक्षेप का यह प्रभाव घटनाओं की सतह पर स्पष्ट रूप से दिखाई न दे। यह इंटरेक्शन का पहला चरण होता है कि आप घटनाओं में शामिल हो जाते हैं।
घटनाओं में आपका शामिल होना, आपके अपने विचार, हितों और व्यक्तित्वों के अनुकूल होता है। इसीलिए प्रत्येक व्यक्ति द्वारा घटनाओं में किया गया हस्तक्षेप बिल्कुल अलग होता है। आप जैसा सोचते हैं, जैसा चाहते हैं और आप करते हैं ठीक वैसा ही दूसरा व्यक्ति न चाहता, न सोचता और न करता। महत्वपूर्ण बात तो यह भी है कि किसी एक घटना के साथ जो हस्तक्षेप आप आज कर रहे हैं, यदि वही घटना कुछ दिनों बाद घटे तथा जरूरी नहीं कि आपका हस्तक्षेप बिल्कुल पहले जैसा ही होगा। यहाँ आप कह सकते हैं कि जब आप इंटरेक्शन में आते हैं, तो एक प्रकार से शतरंज के खिलाड़ी बन जाते हैं। जिस प्रकार हर चाल के बाद शतरंज के बोर्ड की स्थिति हर बार बदल जाती है, लगभग वही स्थिति घटनाओं पर किए गए हमारे हस्तक्षेप के बाद होती है।

क्या आप इस समृद्धता की कल्पना कर सकते हैं? जरा सोचकर देखिए कि जैसे ही आप आब्जर्वर से इंटरेक्ट करते हैं आपके पास सोचने-विचारने के लिए इतने अधिक कंन्टेन्ड इकट्ठे हो जाते हैं। निश्चित रूप से इनमें से आप सारे कंन्टेन्टस् किताबों से आए हुए होंगे, बहुत से अवलोकन से मिले होंगे तथा काफी कुछ आपके अनुभव से भी शामिल हुए होंगे। यानी कि इंटरेक्शन के मंच पर एक साथ तीनों मौजूद होते हैं-अध्ययन, अवलोकन और इंटरेक्शन। यह इसकी सबसे बड़ी खूबी है और सबसे बड़ी शक्ति भी। यह दूसरा चरण था।

इसका तीसरा चरण ऑटोमेटिक होता है और बहुत अद्भूत होता है और यही उसकी सबसे बड़ी ताकत भी होती है। जाहिर है कि आप उसी घटना में शामिल होते हैं जिसका प्रभाव आप पर पड़ने वाला होता है या फिर आप यदि सोचे-समझे बिना ही किसी घटना में शामिल हो जाते हैं, तो आप चाहें या न चाहें, उसका प्रभाव आप पर पड़ेगा ही। चूँकि इंट्रेक्ट वाली घटनाएं आपके जीवन से जुड़ी होती है इसलिए ऐसा अपने-आप होगा कि घटना के घट जाने के बाद आप उसके बारे में सोचेंगे ही सोचेंगे तब आपका दिमाग चुप और शांत नहीं रह सकता। आप सोचेंगे कि ऐसा क्यों हुआ। आप सोचेंगे कि यदि मैंने ऐसा किया होता तो ऐसा हो जाता। तो फिर मैंने ऐसा क्यों नहीं किया। आप अपने किए के बारे में अनेक प्रकार से सोचेंगे कि मुझे करना चाहिए था या नहीं, ऐसा न वैसा करना चाहता था, आदि-आदि न जाने क्या-क्या। अंत में जब दिमाग इस घटना के बारे में सही या गलत, छोटा या बड़ा निष्कर्ष निकालकर शांत हो जाएगा। यदि आपके दिमाग के लिए निष्कर्ष निकालना सम्भव न होगा तो आप निश्चित रूप से दूसरों के दिमागों की मदद लेंगे, उनसे बातचीत करेंगे और पूछेंगे। यही इसकी सबसे बड़ी शक्ति है कि यह आपको चुप बैठने नहीं देगी ऐसा दरअसल प्रत्येक व्यक्ति के साथ होता है।

अब सवाल यह है कि इस मामले में आप कैसे एक विशिष्ट बने? स्कूल और कॉलेज में किताबों से प्राप्त ज्ञान यही आपकी मदद करता है और इसकी सही मदद लेकर आप विशिष्ट बन सकते हैं। इस पूरी घटना से संबंधित किताब, उठाइए और उस घटना से जुड़े हुए चेप्टर को खोलिए, उसे पढ़िए आप देखेंगे कि उस चेप्टर में आपको वह घटना दिखाई दे रही है और यदि आप देखना चाहेंगे तो उस घटना में आपको यह पूरी किताब दिखाई देने लगगी। याद रखें कि किताबों में केवल सिद्धान्त दिए जाते हैं। जरूरी नहीं कि व्यवहार में उनकी फोटो कॉपी हो आप बड़े आराम से इस चेप्टर के आधार पर इस पूरी घटना का विश्लेषण करें। इसमें आपको सबसे अधिक जोर अपने हस्तक्षेप वाले हिस्से का विश्लेषण करने पर देना चाहिए। बेहतर होगा कि आप यहाँ अपने हस्तक्षेपों के विकल्पों के बारे में भी सोचें कि ‘‘मैं यह यह भी कर सकता था’’ क्या यह बेहतर नहीं होगा कि विकल्प मलने के बाद आप इस बात का भी गुणा-भाग लगाएंकि यदि मैंने यह विकल्प इस्तेमाल किया होता तो आगे चलकर यह यह होता। आप देखेंगे कि ऐसा करने से कैसे आपके सामने उन घटनाओं की उसी तरह से परत दर परत परिदृश्य उभरते चले जा रहे हैं जैसे कि प्याज के छिलके पर छिलके उतरते चले जाते हैं। आप कल्पना नहीं कर सकते कि इस प्रक्रिया के द्वारा आप कैसे विश्लेषण की अथाह गहराई में उतरते चले जाएंगे। यह इन्टरेक्शन का अंतिम चरण होगा और यह वरदान से भरा हुआ मंत्रों की शक्ति से सम्पन्न एक ऐसा शक्तिशाली चरण होगा जो आपको अनुभव के चमकते हुए हीरों के अनगिनत टुकड़ों से समर्थ बनाकर सबसे अलग कर देगा। सच पूछिए तो जिसे हम ‘अनुभव का खजाना’ कहते हैं, वह अनुभव का खजाना आब्जर्वेशन से नहीं मिलता, इंटरेक्शन से मिलता है। अन्यथा तो बाल धूप से भी सफेद होते हैं। सच्चा अनुभव मिलता ही जब है जब हम किसी घटना के मूक साक्षी न बनकर उस घटना के अंग बनते हैं। क्रिकेट मैच देखने का बड़े से बड़ा शौकीन व्यक्ति, जिसने अपनी पूरी जिन्दगी क्रिकेट मैचों को देखने में खपा दी हो, जरूरी नहीं कि क्रिकेट का खिलाड़ी भी होगा। अनुभव एक्शन से ही आता है आब्जर्वेशन से नहीं। हाँ, यह जरूर हैकि सतर्क आब्जर्वेशन से इंटरेक्शन करने से प्रौढ़ता (मैच्योरिटी) जरूर आती है।

NOTE: This article by Dr. Vijay Agrawal was first published in ‘Civil Services Chronicle’.

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