मुख्य परीक्षा का मूल है विश्लेषणात्मकता-3
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मुझे विश्वास है कि कम से कम अब तो आपके मन में इस आवश्यकता के प्रति कोई सन्देह नहीं रह गया होगा कि ‘‘यदि मुझे सिविल सर्विस क्वालीफाई करना है, तो उसकी पहली और सबसे बड़ी शर्त के रूप में विश्लेषणात्मक क्षमता विकसित करनी ही पड़ेगी। इसका मेरे पास कोई विकल्प नहीं है।’’ तो आइए, अब हम इस बात पर चर्चा करते हैं कि इसके लिए क्या-क्या किया जाना चाहिए।
दरअसल इस बात को समझना ही होगा कि विश्लेषणात्मक क्षमता अपने-आपमें कुछ तत्वों के सम्मिलन का परिणाम है न कि अपने-आपमें कोई तत्व है। केमिस्ट्री की भाषा में आप इसे यौगिक (Compound) कह सकते हैं, जो दो या दो से अधिक तत्वों के मिलने से बनता है। इसलिए यह सोचना पूरी तरह गलत होगा कि किसी एक तरीके से इस क्षमता में पारंगत हुआ जा सकता है। इसके लिए कई स्तरों पर, कई कोणों से तथा कई दिशाओं में काम करना पड़ता है। तब कहीं जाकर इसमें महारत हासिल हो पाती है। और सच पूछिए तो यही इसके सबसे बड़ी खूबी भी है कि यह किसी विषय को रटकर उस पर धाराप्रवाह बोल पाने जितना सरल, सपाट और आसान न होने के कारण ही इतना अधिक मूल्यवान भी है। इसलिए इससे पहले कि हम इस बात की चर्चा करें कि विश्लेषण किया कैसे जाता है, इस बात की चर्चा करना व्यावहारिक होगा कि हम अपने आपको कैसे इस लायक बनाएं कि हम विश्लेषण कर सकें।
विश्लेषण क्षमता की योग्यता प्राप्त करने की तैयारी
इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है कि यह मूलतः एक मानसिक क्रिया है। जन्म से तो हम सबकी मानसिक क्षमता लगभग-लगभग समान ही होती है। लेकिन बाद में प्राप्त शिक्षा, अनुभव और अवलोकन आदि के कारण इस मानसिक क्षमता में फर्क आने लगता है। बाद में तो समान उम्र के दो लोगों की मानसिक क्षमता में इतना अन्तर देखने को मिलता है कि शायद यकीन करना मुश्किल हो जाता है। लेकिन सत्य तो सत्य है। यदि हम अवलोकन एवं अनुभव को यहाँ अलग कर दें, तो निश्चित तौर पर मानसिक क्षमता के इस भेद का सबसे बड़ा कारण इन दोनों के व्दारा प्राप्त की गई शिक्षा होती है। शिक्षा का यह संबंध केवल डिग्री से ही नहीं होता बल्कि उससे भी कहीं अधिक इससे होता है कि – (1) उसने शिक्षा कहाँ से पायी है (2) किस तरीके से पायी है तथा (3) कितनी ईमानदारी से पायी है। यहाँ ईमानदारी का अर्थ गंभीरता से है, हेराफेरी के विरोध से नहीं।
इससे पहले मैंने हमारी शुरू से लेकर ग्रेज्युएशन तक की शिक्षा को तीन मुख्य चरणों में विभाजित करते हुए उन तीनों चरणों के तीन मुख्य उद्देश्य बताए थे। इनमें से तीसरा चरण विश्लेषण क्षमता विकसित करने से था। अब, जबकि इस विश्लेषण क्षमता की योग्यता प्राप्त करने के बारे में बात कर रहे हैं, तो हमें एक बार फिर से अपने उन्हीं तीनों चरणों की ओर लौटना पड़ेगा। हाँ, यह बात जरूर है कि इन तीनों चरणों के स्तर और तरीके निहायत ही वे नहीं होंगे, जो उस समय थे, जब हमने पढ़ाई की शुरूआत की थी। पुस्तकें वही हो सकती हैं, पुस्तकों के विषय वही हो सकते हैं। शायद आप समझ गए होंगे कि मैं कहना क्या चाह रहा हूँ। मेरे कहने का संबंध अध्ययन करने के तरीके से है। तो आइए, अब इस पर बात करते हैं कि अध्ययन करना किसका-किसका है और किस तरीके से है।
अध्ययन
मुश्किल यही है कि आपने अभी तक अध्ययन तो किया है, लेकिन उस अध्ययन को अपनी चेतना का हिस्सा नहीं बनाया है। विषय को पढ़ने के बाद उस विषय की जो मूलभूत समझ आनी चाहिए, वह नहीं आई है। हमें मालूम है कि कर्क रेखा किसे कहते हैं और पृथ्वी को कितने कटिबन्धों में विभाजित किया जाता है। लेकिन हमें इनकी परिभाषा मालूम है। किताब में इनके बारे में जो कुछ भी पढ़ने को मिला, वह सब भी हमें याद है। लेकिन मुश्किल यह है कि हम यह नहीं समझ पाए कि यह कर्क रेखा है क्यों और पृथ्वी के कटिबन्धों का आधार क्या है। बस यही चूक हमारी विश्लेषण क्षमता को शून्य पर पहुँचा देती है। हम विषय पर लिख तो लेते हैं, लेकिन जैसे ही पूछे गए प्रश्न में थोड़ी भी जटिलता या मोड़ को शामिल किया जाता है, मूल हमारी आँखों से ओझल हो जाता है। वह पकड़ में इसलिए नहीं आता कि उस विषय पर हमारी पकड़ नहीं थी। नतीजा यह होता है कि हमने जो कुछ भी पढ़ा और रट रखा है, हम उसे ही थोड़े-बहुत हेरफेर के साथ दोहराते रहते हैं। हमारी यह कोशिश एक प्रकार से अपने सिर की टोपी को सामने बैठे सभी लोगों के सिर की टोपी पर फिट बैठाने की हास्यास्पद कोशिश जैसे हो जाती है। सामने वाले का सिर तो ढक जाता है लेकिन वह टोपी उस पर फिट नहीं बैठती। साफ-साफ दिखाई देता है कि ‘‘टोपी उसकी नहीं है। किसी ने जबर्दस्ती पहना दी है।’’
तो मित्रो, सबसे पहले मैं उन विषयों की तरफ आपका ध्यान आकर्षित करना चाहूँगा जिन विषयों पर आपकी मूलभूत पकड़ होनी ही चाहिए। हो सकता है कि आपके पास अभी हो। ऐसे में आप मेरी इस सलाह की उपेक्षा कर सकते हैं। वैसे बेहतर यही होगा कि क्यों न एक बार फिर से इन सभी विषयों को सरसरी तौर पर ही सही सिलसिलेवार पढ़ लिया जाए। इन्हें जितनी बार पढ़ेंगे, विषय की गहराई में उतना ही अधिक उतरते जाएंगे। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप इंजीनियरिंग के स्टूडेन्ट हैं या मेडीकल के या साइंस, या कि कॉमर्स के। यदि आपको सिविल सर्विस के लिए विश्लेषणात्मक क्षमता चाहिए, तो इन नीचे बताए गए सभी विषयों को आपका पढ़ना ही चाहिए। अब मैं विषयों पर आता हूँ।
(1) भूगोल
इसे मैं सभी विषयों की जननी मानता हूँ। इस पृथ्वी पर जितनी भी दृश्य-अदृश्य वस्तुएँ हैं, वे सब अपनी प्रकृति से ही उत्पन्न हैं। इसलिए इस तथ्य पर मेरा बहुत दृढ़ विश्वास है कि यदि कोई स्टूडेंट भूगोल की अच्छी समझ विकसित कर लेता है, तो अन्य विषयों के बारे में उसकी समझ बहुत अधिक विस्तृत और गहरी हो जाती है। वह इस तथ्य को पकड़ सकता है कि ‘‘ऐसा क्यों है’’, और यह बता सकता है कि ‘‘यदि ऐसा है, तो आगे ऐसा होगा।’’ दरअसल भूगोल अपने-आपमें केवल विज्ञान ही नहीं है बल्कि यह विज्ञानों का विज्ञान है। यदि आप इस अवधारणा को ध्यान में रखकर इस विषय को पढ़ना शुरू करेंगे, तो पाएंगे कि आपके दिमाग में न जाने कितनी नई-नई खिड़कियाँ खुल रही हैं और अपने आसपास के जगत के प्रति आपकी अवधारणा कितनी बदल गई है।
(2) दर्शनशास्त्र
लोग इसे व्यंग्य में लेते हैं। कुछ लोग इससे आतंकित रहते हैं, तो कुछ लोग इसको अत्यन्त अव्यावहारिक मानते हुए इससे परहेज करते हैं। वैसे इसकी शब्दावली और कहने का तरीका कुछ होता भी ऐसा ही है कि इस विषय के प्रति कुछ इस तरह की उटपटांग धारणा बन चुकी है। लेकिन यहाँ आपको अपनी इस धारणा को तोड़कर इस विषय के साथ दोस्ती करनी ही चाहिए। इस विषय की सामान्य स्तर की जानकारी आपकी इस दोस्ती का आधार बन सकती है। आप विषय की भूलभूलैया में मत पड़िये। सबसे प्रमुख विचारकों के जो बहुत प्रमुख-प्रमुख विचार रहे हैं, स्वयं को केवल वहीं तक सीमित रखिए। आपको डिटेल्स में नहीं जाना है। केवल विचारधाराओं की उन मुख्य बातों को पकड़ना है, जो उन्हें दूसरी विचारधाराओं से अलग करती हैं और उनके जो विचार इतिहास में उनके देन मानक जाते हैं। आपके लिए इतना ही पर्याप्त होगा। आपकी यह जानकारी आपको विश्लेषण के लिए नए कोण प्रदान करेगी। तब आप किसी भी सामान्य से सामान्य घटना में भी किसी न किसी फिलासफी को देख सकेंगे और उस घटना से कोई एक अलग फिलासफी भी निकाल सकेंगे। यही तो आपकी विशिष्टता होगी।
यहाँ मैं यह भी कहना चाहूँगा कि दर्शनशास्त्र का आपका ज्ञान केवल भारत तक सीमित नहीं होना चाहिए। विश्व के जितने भी बड़े दार्शनिक हुए हैं और जो मुख्य-मुख्य फिलासफी हैं, उनका ज्ञान होना जरूरी है। साथ ही यह भी कि वर्तमान में जो नई-नई विचारधाराएँ आ रही हैं, उनके प्रति भी आपको सजग रहना चाहिए। हाँ, आपको याद रखना होगा कि फिलासफी सीधे-सीधे अपने समकालीन समाज से जुड़ी हुई होती है। इसलिए वह न केवल अपने समकालीन समाज में प्रचलित प्रवृत्तियों के आधार पर ही नई फिलासफी गढ़ता है, बल्कि यह भी बताता है कि ‘‘क्या होना चाहिए।’’
(3) समाजशास्त्र
यह बहुत ही सरल और मजेदार विषय है। इसे पढ़ने में आपको इसलिए बहुत अधिक आनन्द आएगा। क्योंकि पढ़ने के दौरान आप इस विषय को अपने आसपास देख सकते हैं और महसूस भी कर सकते हैं। जब आप जीवन और समाज की छोटी-छोटी घटनाओं को फार्मूले के रूप में पढ़ेंगे, तब पढ़ने का आपका उत्साह और भी अधिक बढ़ जाएगा। वस्तुतः यह पूरा जीवन्त समाज ही इसकी लेबोरेटरी है और आपको इसे इस रूप में ही पढ़ना चाहिए। इससे आपको लाभ यह होगा कि समाज की बिखरी हुई और भिन्न-भिन्न धाराओं एवं प्रवृत्ति के बारे में आपको बने बनाए सूत्र उपलब्ध हो जाएंगे। यह सूत्र आपके लिए उसी तरह काम करेंगे, जैसे कि गणित के फार्मूले करते हैं।
(4) इतिहास
याद करके नम्बर लाने के लिहाज से इतिहास बहुत से लोगों के अन्दर दहशत पैदा करता है। हो सकता है कि आप भी उनमें से एक हों। यदि ऐसा है, तो आपके लिए मैं एक बहुत सरल सा उपाय सुझा रहा हूँ। वह उपाय यह है कि आप याद करने के चक्कर में तनिक भी न पड़ें। इतिहास को किस्से कहानियों की तरह पढ़ जाएं। ऐसा करने मात्र से ही आप देखेंगे कि आपके अन्दर एक प्रकार का इतिहास-बोध पैदा होने लगा है। यह इतिहास-बोध आपमें एक जबर्दस्त भविष्य-दृष्टि उत्पन्न कर देगा। यह पाया गया है कि वे लेखक, विचारक और राजनेता सबसे अधिक सफल और सक्षम रहे हैं, जिनके पास इतिहास की बहुत अचछी समझ थी।
दरअसल इतिहास है क्या? इतिहास बीते हुए सम्पूर्ण समय का एक लेखा-जोखा है। समाजशास्त्र में जहाँ आप समाज का लेखा-जोखा पढ़ते हैं, वहीं इतिहास में आप समाज के साथ-साथ राजनीतिक व्यवस्था, अर्थव्यवस्था, कला, संस्कृति आदि सभी पर नजर डालते हैं। इसीलिए इतिहास को ‘सम्पूर्ण समय’ मानता हूँ। इतिहास आपको बताता है कि किन-किन परिस्थितियों और नीतियों के क्या-क्या परिणाम हुए थे। वह यह भी बताता है कि इन परिस्थितियों और नीतियों की निर्मिती किन-किन कारणों से हुई थी और उनमें से कौन-से कारण प्रबल थे और कौन-से कमजोर। वह अतीत की परिक्षाओं के परिणाम भी बताता है। इसे मैं आपके लिए एक प्रकार के अनसाल्ड पेपर की तरह मानता हूँ, जो वर्तमान को समझने में आपकी मदद करते हैं।
(5) राजनीतिशास्त्र
इसके तीन भाग होते हैं-पहला है। राजनीति के सामान्य सिद्धान्त, दूसरा है संविधान तथा तीसरा है इन दोनों पर आधारित वास्तविक राजनीतिक परिदृश्य। ये तीनों अलग-अलग हैं, लेकिन एक-दूसरे से अभिन्न रूप से जुड़े हुए भी। आपको राजनीतिशास्त्र का अध्ययन इसी दृष्टि से करना चाहिए। आप राजनीति को पसन्द करें या न करें, लेकिन आप इसके प्रभाव से मुक्त नहीं रह सकते। न चाहते हुए भी आप राजनीति में रहते ही हैं। जितनी भी नीतियाँ बनती हैं, यहाँ तक कि चाहे वे धार्मिक और सांस्कृतिक नीतियाँ ही क्यों न हों, राजनीतिक प्रभाव से परे नहीं होतीं हैं। यदि एक बार आपकी समझ में राजनीति आ जाती है, तो आप अपने समय की ढेर सारी घटनाओं, समस्याओं के केन्द्र में न केवल राजनीति की उपस्थिति को ही पहचानने में सक्षम हो जाएंगे, बल्कि उनके राजनीतिक समाधान भी सुझा सकेंगे। यह मानकर चलिए कि व्यवस्था के स्तर पर किसी भी समस्या के समाधान की मूल चाबी वहाँ के संविधान में नहीं, बल्कि वहाँ के राजनीतिक परिदृश्य में होती है। संविधान तो केवल उस राजनीति के लिए एक नियामक प्राधिकरण (रेग्यूलेटरी अथारिटी) का काम करता है।
(6) अर्थशास्त्र
यह विषय अधिकांश स्टूडेंटस् को न केवल कठिन और नीरस ही लगता है बल्कि बहुत अधिक उलझावों से भरा हुआ भी मालूम पड़ता है। लेकिन क्या सचमुच में यह ऐसा ही है? बिल्कुल भी नहीं। हाँ, यदि आप अर्थशास्त्री बनना चाह रहे हैं, तो निश्चित रूप से यह शायद सबसे चुनौतियों से भरा सफर है। लेकिन जहाँ तक विश्लेषणात्मक क्षमता विकसित करने में इसके योगदान की बात है, यह बहुत ही प्यारा और व्यावहारिक विषय है। क्या आप इससे अछूते रहते हैं? घर के बाहर कदम रखते ही आपके जीवन में अर्थशास्त्र का प्रवेश हो जाता हैं इसके अन्तर्गत आपका अर्थशास्त्र के उन मूलभूत ज्ञान को ही जानना है, जो आपके जीवन में व्यावहारिक तौर पर काम कर रहे होते हैं। इसे आप बाजार में देख सकते हैं, फैक्टरी और अपने नौकरी के स्थान में देख सकते हैं। अपने पापा के व्यवसाय में और अपने घर की नौकरानी तक में देख सकते हैं। इस संसार के अधिकांश कार्यकलापों के पीछे जो प्रेरक शक्ति काम कर रही होती है, वह अर्थशास्त्र ही है। जब आप इस विषय को इस नजरिए से पढ़ना शुरू करेंगे, तो आपको इसकी एक अलग ही छटा दिखाई देगी।
राजनीतिक व्यवस्था और अर्थ व्यवस्था का बहुत घनिष्ठ और विचित्र संबंध होता है। कहीं ये दोनों एक-दूसरे में गलबहियां डाले स्पष्ट रूप से चलते हुए दिखाई देते हैं। जैसे अमेरीका की राजनीति और अर्थव्यवस्था। लेकिन कई देशों में इनकी दोस्ती होती तो है, लेकिन दिखाई नहीं देती। जैसे भारत में, जहाँ घोषित समाजवाद है लेकिन अघोषित पूंजीवाद। ऐसे स्थानों पर या फिर विश्व स्तर पर जो अनेक तरह की मानवीय, अमानवीय और यहाँ तक कि सामाजिक और सांस्कृतिक घटनाएं भी घटती हैं, उनके केन्द्र में अर्थशास्त्र अत्यन्त प्रमुखता के साथ मौजूद रहता है लेकिन छद्म रूप में। वह दिखाई नहीं देता। उदाहरण के तौर पर विश्व सुन्दरी प्रतियोगिता का आयोजन। यूँ तो यह एक सौन्दर्य-प्रतियोगिता है। लेकिन इस सौन्दर्य की कठपुतली के सारे सूत्र अर्थशास्त्र की ऊंगलियों से बंधे होते हैं और वह इन्हें जैसा नचाना चाहता है, वैसा नचाता है। अर्थशास्त्र और राजनीति की समझ आपको अन्दर ऊँगलियों से बंधे उन महीन धागों को पहचानने की दृष्टि प्रदान करती है।
(7) मनोविज्ञान
मुझे तो लगता है कि इसका ज्ञान केवल विश्लेषणात्मक योग्यता के लिए ही नहीं,बल्कि जीवन को जीने के लिए भी होना चाहिए। हम किसी भी मनुष्य को उसके मन के विज्ञान को जाने बिना कैसे समझ सकते हैं? चाहे समाज हो या राजनीति, इतिहास हो या अर्थशास्त्र, इन सबके केन्द्र में मनुष्य ही होता है और मनुष्य के केन्द्र में होता है, उसका मनोविज्ञान। इस मनोविज्ञान की समझ आपमें इन समस्त व्यवस्थाओं को समझने की एक बहुत ही नई और अनोखी दृष्टि प्रदान करती है। उदाहरण के तौर पर जनरल डायर और हिटलर इतिहास के महत्वपूर्ण पन्ने रहे हैं। इनके कारनामों के जो भी ऐतिहासिक और राजनीतिक कारण रहे हैं, उन्हें हम जानते हैं। लेकिन इनके कारनामों के जो व्यक्तिगत कारण रहे हैं, क्या हम उन्हें भी जानते हैं? यह मनोविज्ञान के व्दारा ही सम्भव है। समाज की अनेक समस्याओं के कारण और उनके निवारण के लिए मनोविज्ञान बहुत अच्छे तथ्य प्रदान कर सकता है। यह विषय मजेदार है।
(8) भौतिक शास्त्र
घबराइए नहीं। मैं भौतिकशास्त्र के केवल मूलभूत सिद्धान्तों के बारे में कह रहा हूँ। वैसे भी यदि आप भूगोल को समझना चाह रहे हैं, तो वह फिजिक्स के मूल सिद्धान्तों को समझे बिना सम्भव नहीं है, क्योंकि प्रकृति के अवलोकन से ही भौतिकशास्त्र के सिद्धान्त स्थापित किए गए हैं।
इसका सबसे बड़ा लाभ आपको यह मिलेगा कि आपमें कार्य एवं उसके कारण के बीच संबंध स्थापित करने की क्षमता पैदा हो जाएगी। इस भौतिक जगत में जो कुछ भी होता है, उसके कुछ न कुछ एक या एक से अधिक कारण होते ही हैं। अपनी अज्ञानता के कारण हम उन्हें समझ नहीं पाते। भौतिकशास्त्र का ज्ञान हमारी उस अज्ञानता के अंधकार से हमें मुक्त करके वैज्ञानिक चेतना से सम्पन्न बनाता है।
(9) समकालीन घटनाएँ
इन विषयों के अतिरिक्त यह जरूरी है कि आपकी नजर अपनी समकालीन घटनाओं पर बनी रहे। क्या-क्या घटनाएँ हो रही हैं, क्यों हो रही हैं, उनके क्या कारण हैं, उनके क्या उपाय सुझाए जा रहे हैं, उनके क्या प्रभाव पड़ रहे हैं तथा कालान्तर में वे क्या रूप लेंगे, इन सबके प्रति आपकी सतर्कता बनी रहनी चाहिए। ऊपर मैंने अध्ययन के लिए जो मूलभूत विषय बताए हैं, उनको समझ लेने के बाद आप पाएँगे कि करेन्ट अफेयर्स के प्रति आपका दृष्टिकोण बिल्कुल भिन्न हो गया है। अब आपको वे घटनाएँ विशुद्ध रूप से घटनाएँ न लगकर कहीं न कहीं सामाजिक प्रवृत्तियाँ लगने लगी हैं। हो सकता है कि दूसरे लोग इस तरह की घटनाओं को पढ़कर चैकें, लेकिन आपको वे ही घटनाएँ काफी कुछ सामान्य लग सकती हैं, क्योंकि आपमें कार्य-कारण संबंध स्थापित करने की क्षमता आ गई है। इस प्रकार करेन्ट अफेयर्स का ज्ञान न केवल आपको आपके समय के प्रति अद्यतन ही रखेगा बल्कि उन घटनाओं की जानकारी मिलते ही आपका दिमाग स्वयं ही तत्काल उसके बारे में केलकूलेट करना शुरू कर देगा। इस प्रकार आपके न चाहने के बावजूद आप विश्लेषण करने का अभ्यास शुरू कर चुके होंगे।
इन्टरडिसीप्लीनरी एप्रोच
अब प्रश्न उठता है कि पढ़ने के बाद आप इस पढ़ाई का करेंगे क्या। मैं बताता हूँ। पहले चरण में आप इन विषयों को अलग-अलग पढ़ेंगे। एक बार सभी विषयों की पढ़ाई हो जाने के बाद द्वितीय चरण के अंतर्गत आप अब इन विषयों को एक-दूसरे से जोड़कर पढ़ना शुरू करेंगे। जब आप एक विषय को पढ़ेंगे, तब आप उसके दौरान अन्य विषयों को भी उससे जोड़ने की कोशिश कीजिए। उदाहरण के लिए यदि आप राजनीति परिदृश्य पर कुछ पढ़ रहे हैं, तो आप यह देखिए कि वह परिदृश्य संविधान के कितने अनुकूल है और राजनीति के प्रमुख सिद्धान्तों से उसका कितना तालमेल बैठता है। यदि इस अनुकूलता और तालमेल में कुछ अन्तर आ रहा है, तो फिर सोचें कि ऐसा क्यों है? हो सकता है कि इस क्यों का उत्तर आपको अर्थशास्त्र के माध्यम से मिले। इस प्रकार आप पढ़ेंगे तो किसी एक विषय को लेकिन उसके साथ अन्य विषय भी जुड़ते चले जाएंगे। इसी को कहा जाता है इन्टर डिसीप्लीनरी एप्रोच।
इसके बहुत सुन्दर और जीवन्त नमूने आपको महत्वपूर्ण अखबारों के सम्पादकीय में देखने को मिल सकते हैं। कभी आप किसी सम्पादकीय का इस आधार पर विश्लेषण करने के लिए समय निकालिए। मान लीजिए कि आप सामाजिक समस्या पर कोई सम्पादकीय पढ़ रहे हैं। पढ़ने के दौरान आप उन बिन्दुओं को नोट करते जाएं जिनका संबंध समाजशास्त्र के अतिरिक्त अन्य विषयों से हो, जैसे कि राजनीति से, अर्थशास्त्र से, मनोविज्ञान से, भूगोल से, इतिहास से आदि-आदि। ये आपको मिलेंगे और इन्हें देखने के बाद आप बहुत अच्छी तरीके से समझ जाएंगे कि (1) इन्टर डिसीप्लीनरी एप्रोज क्या होता है तथा (2) विश्लेषणात्मक क्षमता विकसित करने में अन्य विषयों का अध्ययन कितना और क्यों जरूरी होता है।
दोस्तों, इसे कितना भी विस्तार दिया जा सकता था लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया है, क्योंकि मैं इतने को ही पर्याप्त समझता हूँ। इस टॉपिक के बारे में मैं अन्त में केवल इतना ही कहना चाहूँगा कि जिस प्रकार रसायनशास्त्र में समीकरण होते हैं, उसी प्रकार समाज के भी अपने समीकरण होते हैं। रसायनशास्त्र का एक समीकरण है-2H2+O2=2H2O । यानी कि हाइड्रोजन के दो अणु और आॅक्सीजन का एक अणु आपस में मिलकर पानी के दो अणु बनाते हैं। हाइड्रोजन स्वयं में ज्वलनशील होता है और आॅक्सीजन जलने की प्रक्रिया को बढ़ाता है। लेकिन जब ये दोनों आपस में मिल जाते हैं, तो एक ऐसा पदार्थ बनता है, जो जलते हुए को बुझाता है यानी की पानी। इसका अर्थ यह हुआ कि दो अलग-अलग समान गुण वाले दो अलग-अलग तत्वों के मिलने के बाद जो यौगिक बना, उसका गुण अपने में समाहित तत्वों के गुणों से बिल्कुल भिन्न रहा। ठीक इसी तरह समाज के भी अपने समीकरण होते हैं। मैंने ऊपर जितने विषयों की बात की है, वे इस समीकरण के अक्षर और संख्या हैं। इसे एक बार जान लेने के बाद हजारों- लाखों समीकरण बनाए जा सकते हैं। ये बनते ही हैं और जब हम इस लायक हो जाएं कि हम बना सकें, तो समझ लें कि हममें विश्लेषण करने की योग्यता आ गई है।
NOTE: This article by Dr. Vijay Agrawal was first published in ‘Civil Services Chronicle’.