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You are here: Home >> Resources >> Articles (Hindi) >> मुख्य परीक्षा का मूल है विश्लेष्णात्मकता-2

मुख्य परीक्षा का मूल है विश्लेष्णात्मकता-2

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इसी पत्रिका के पिछले अंक में मैंने आपको विस्तार के साथ यह बताने और समझाने की कोशिश की थी कि ग्रेज्युएशन और पोस्ट ग्रेज्युएशन स्तर तक की आपकी शिक्षा का मूल उद्देश्य आपके अन्दर सही, व्यावहारिक और गहरी विश्लेषणात्मक क्षमता पैदा करना रहा है। मुझे विश्वास है कि पिछले अंक के उस लेख ने आपको अब तक पाई गई अपनी शिक्षा के बारे में एक बार फिर से गंभीरता के साथ सोचने के लिए प्रेरित किया होगा और आपने उस पर सोचा भी होगा। ऐसा करना अपने अन्दर विश्लेषणात्मक क्षमता विकसित करने की दिशा में उठाया गया पहला कदम सिद्ध हो सकता है।

विश्लेषणात्मक क्षमता क्यों

जैसा की आप जानते ही हैं और यदि आपने सिविल सेवा की मुख्य परीक्षा के पेपर्स देखे होंगे, तो इस बारे में आपके मन में किसी तरह का कोई सन्देह नहीं रह गया होगा कि बिना इस क्षमता के इस परीक्षा की वैतरणी को पार करना सम्भव नहीं है। थोड़े से विद्यार्थी इस परीक्षा के पेपर्स को देखकर खुशी से उछलने लगते हैं, तो ज्यादातर विद्यार्थी निराश मन के साथ यह सोचने को बाध्य हो जाते हैं कि ‘‘आखिर ऐसा क्यों है’’। उन्हें लगता है कि अभी तक दी गई परीक्षाओं में यदि उनका काम सूचनाओं से चलता रहा है, तो फिर यहाँ वे औजार काम क्यों नहीं आ रहे हैं। काश! कि ऐसा होता। लेकिन यहाँ उनसे एक गलती हो रही है। गलती यह कि वे इस तथ्य की अनदेखी कर जाते हैं कि यदि सिविल सेवा परीक्षाओं में भी सूचनाओं से काम चल जाता, तब भी उनके लिए प्रतियोगिता उतनी ही कठिन और सफलता उतनी ही संदिग्ध रहती, जितनी कि अभी है। इसके प्रमाण उनके पास पहले से ही मौजूद हैं, लेकिन वे उसे पकड़ नहीं पा रहे हैं, क्योंकि उनके पास केवल सूचनात्मक क्षमता है, विश्लेषणात्मक नहीं। अन्यथा वे अपनी इस अव्यावहारिक सोचन को इस विश्लेषणात्मक शक्ति के व्दारा दुरूस्त कर लेते कि ‘‘यदि यही सही होता तो ग्रेज्युएशन से पहले की सारी परीक्षाओं में भी मैं अव्वल आया होता। यदि ऐसा नहीं हुआ तो उसका कारण यही था कि सूचनाओं पर आधारित परीक्षाओं में भी मैं बेहतर नहीं कर सका था। जब वहाँ नहीं कर सका, तो इस बात की क्या गारंटी है कि मैं यहाँ भी कर लूँगा।’’ हाँ, यह जरूर है कि यदि सिविल सेवा परीक्षा को सूचनाओं पर आधारित कर दिया जाए, तो इससे सामान्य स्टूडेन्टस् को भले ही उतना लाभ न हो, लेकिन अच्छे स्टूडेन्टस् का नुकसान जरूर हो जाएगा, क्योंकि उन्हें अपनी प्रतिभा और क्षमता दिखाने का अवसर ही नहीं मिल पाएगा। और इस बात से तो आप सहमत होंगे ही कि देश की नौकरशाही की सर्वोच्च स्तर की परीक्षा को सर्वोच्च प्रतिभाएं चाहिए, क्योंकि यह देश का सवाल है, किसी व्यक्ति विशेष का नहीं। विश्लेषणात्मक क्षमता इसका टुल है, कसौटी है, जो प्रतिभा का मूल्यांकन करती है।

वैसे भी सामान्य रूप से यह माना ही जाना चाहिए कि सच्ची शिक्षा का उद्देश्य विद्यार्थी के दिमाग को सूचनाओं का भण्डार बना देना नहीं है। ऐसा करके हम एक प्रकार से दिमाग को कबाड़खाना ही बना देते हैं, जो वहाँ तरह-तरह की चीज़ों की मौजूदगी से सामने वाले को चमत्कृत तो कर सकती है, लेकिन प्रभावित नहीं कर सकती। सूचनाओं के कब्रगाह की अहमियत उस जादू की तरह होती है जिससे लोगों की जिन्दगी में कोई तरक्की नहीं होती। हाँ, थोड़ी देर के लिए वे जादू के चमत्कारों में खोकर खुश जरूर हो लेते हैं। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि सूचनाएं पूरी तरह अर्थहीन ही होती हैं। इसके बारे में मैं पहले चर्चा कर चुका हूँ।

दरअसल, शिक्षा का मुख्य उद्देश्य ही व्यक्ति को इंटेलेक्चुअल बनाना होता है, ताकि वह सूचनाओं और घटनाओं को मथकर उनसे उपयोगी निष्कर्ष निकाल सके। समुद्र में ही सारी चीज़ें मौजूद थीं, लेकिन उन्हें हासिल करने के लिए उसका मंथन करना पड़ा था। विश्लेषण करने का अर्थ ही है- मंथन करना।

जिस स्टूडेन्ट या व्यक्ति को मंथन करने की आदत पड़ जाती है, वही ज्ञान के अगले चरण तक पहुँचता है और वह चरण होता है विजनरी होने का, दूरदर्शी बनने का। मंथन से हम घटनाओं के कारणों को समझते हैं कि कोई घटना क्यों घटी। उसके घटने में किन-किन तत्वों का कितना-कितना योगदान था। जबकि दूरदर्शिता हममें एक भविष्य-दृष्टि पैदा करके हमें इस योग्य बना देती है कि हम यह बता सकें कि अब आगे क्या होगा। हम बता सकते हैं कि भविष्य में इन-इन घटनाओं के घटने की संभावनाएं या आशंकाएं हो सकती हैं। भविष्य का संबंध कितने सालों से होगा, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि उस व्यक्ति में मंथन की गहराई कितनी अधिक है। यह एक दिन से लेकर एक दषक, एक शताब्दी या उससे अधिक भी हो सकती है। यह शिक्षा के उद्देष्य का दूसरा चरण होता है। शिक्षा का तीसरा चरण व्यक्ति को चिन्तक बना देता है। यहाँ चिन्तक शब्द को आप ‘फिलासफर’ शब्द तक ही सीमित न करें। चिन्तक का अर्थ है, वह व्यक्ति, जो अपने चिन्तन के व्दारा कुछ भी नया ढूँढ़ने या करने की क्षमता रखता है। मेरे लिए न्यूटन भी एक चिन्तक ही थे, क्योंकि उन्होंने पेड़ से गिरते हुए सेब को देखकर उसके बारे में विचार करना शुरू कर दिया था कि ‘‘ऐसा ही क्यों होता है।’’ इस स्तर पर पहुँचने की शुरूआत सोचने से ही करनी पड़ती है। ऐसी कोई विधि नहीं है, जो व्यक्ति को वहाँ से सीधे जम्प दिलाकर इस स्थिति तक पहुँचा दे। चिन्तक की यह स्थिति ओरिजनलीटी की स्थिति है, एक क्रीएटर की स्थिति है, जिसमें व्यक्ति अपनी ओर से कुछ नया रचता है।

अब मेरा यहाँ आपसे एक छोटा-सा किन्तु अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रश्न  है। प्रश्न यह है कि आप एक सिविल सर्वेन्ट की; खासकर इतने उच्च स्तरीय सिविल सर्वेन्ट की भूमिका को समाज और राष्ट्र के संदर्भ में किस रूप में देखते हैं? क्या उसे सिर्फ ऊपर से प्राप्त आदेषों का पालन करके उसके अनुकूल नीचे आदेश पारित करके चुपचाप बैठ जाना चााहिए? यह सूचना का स्तर है। या कि आपको यह लगता है कि एक सिविल सर्वेन्ट को प्राप्त आदेश एवं निर्देशों पर अच्छी तरह विचार करके उसी के अनुकूल उसे स्थानीय जरूरतों के साँचे में ढ़ालकर लागू करना चाहिए? यह इंटलेक्चुलिटी का स्तर है। या फिर यह कि उसे यह भी देखना चाहिए कि वह अपने इन आदेशों को किस प्रकार लागू करे और कब कब लागू करे? ताकि भविष्य में उसके अच्छे परिणाम आ सकें। यह दूरदर्षिता का स्तर है।

अंतिम और अत्यन्त प्रश्न यह कि क्या इतना उच्च स्तरीय सिविल सर्वेन्ट प्राप्त आदेषों को अपने व्दारा जारी आदेषों के माध्यम से लागू करने का एक शुष्क मशीन भर होता है? या कि इससे अधिक और भी कुछ? आप जानते होंगे कि हमारी संसद और विधान सभाएं देष और राज्यों के लिए जो नीतियाँ और कानून बनाती है और उन्हें लागू करने के लिए जो नियम बनाए जाते हैं, उनमें सबसे बड़ा योगदान उच्च स्तर पर पहुँचे इन अनुभव प्राप्त सिविल सर्वेन्टस् का ही होता है। यदि आप मेरी इस बात से सहमत हैं कि किसी भी कानून और नियम का प्रभाव आने वाले समय और समाज पर पड़ता है, तो जाहिर है कि आप इस सच्चाई से भी सहमत होंगे कि एक नौकरषाह को भविष्य-दृष्टा के साथ-साथ चिन्तक भी होना चाहिए। उसे ओरिजनल होना चाहिए और उसकी यह ओरिजनिलिटी ही समाज और राष्ट्र को दी गई उसकी सही और सच्ची देन होगी।

मित्रो, मैं अपनी बात को सीधे-सीधे और संक्षिप्त में कहकर खत्म कर सकता था। लेकिन यदि मैं ऐसा नहीं कर रहा हूँ, तो इसके पीछे मेरी एक सोची-समझी रणनीति है। रणनीति यह है कि मैं दरअसल इसके माध्यम से न केवल सिविल सेवा परीक्षा के लिए ही आपमें विष्लेषणात्मक क्षमता विकसित करना चाहता हूँ, बल्कि आपके पूरे जीवन के लिए भी यह क्षमता विकसित करना चाहता हूँ। और इस बात को आप कभी न भूलें कि यही वह क्षमता होगी, जो आपके व्यक्तित्व में चार चाँद लगा देगी। सिविल सर्वेन्ट बनने के लिए आपको इन्टरव्यू का भी सामना करना है और बन जाने के बाद अपने ऊँचे अफसरों से लेकर पब्लिक का भी सामना करना है। आप इसका सही-सही तरीके से सामना कर सकें, इसमें आपका व्यक्तित्व ही आपकी सच्ची मदद कर सकेगा।

मुझे इस बात का डर है कि कहीं आप विष्लेषणात्मक क्षमता से संबंधित इतनी लम्बी-चौड़ी तकरीरों को सुनकर दहशत में न आ जाएं। हो सकता है कि शुरूआत में ऐसा हो भी रहा हो, लेकिन यकीन मानिए कि बहुत जल्दी आप इससे मुक्त हो जाएंगे। यदि विष्लेषण करने का जरा भी स्वाद आपकी दिमाग की जीभ को लग गया, तो वह इसका ऐसा एडीक्ट होगा कि फिर उसे इसके बिना चैन नहीं पड़ेगा। इसलिए घबराइए बिल्कुल भी नहीं। हर नई चीज़ शुरुआत में थोड़ी बहुत परेषानी तो पैदा करती ही है। और फिर यह चीज़, जो मैं आपको बताने जा रहा हूँ, कम से कम आपके लिए तो बिल्कुल नई है भी नहीं। तो आइए, अब देखते हैं कि दरअसल यह है क्या।

सूचनाएं दिखाई देती हैं। वे अक्षर के रूप में हमारे सामने मौजूद रहती हैं। आँखें उनको देखती हैं। दिमाग उनको पढ़कर-समझकर अपने पास रख लेता है। काम खत्म हो जाता है। इसमें कहीं कोई विषेष जद्दोजहद नहीं करनी पड़ती, क्योंकि चीज़ें सामने दिखाई देती रहती हैं।

विष्लेषणात्मक क्षमता के साथ सबसे बड़ी दिक्कत ही यह है कि वे दिखाई नहीं देतीं। जो दिखाई नहीं देता, उस पर विश्वास करना आसान नहीं होता है, क्योंकि वह वहाँ हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है। इसलिए थोड़ा रिस्क मालूम पड़ता है और आदमी रिस्क लेना नहीं चाहता। फिर यह भी है कि जो दिखाई नहीं दे रहा है, लेकिन यदि हमें लग रहा है कि वह वहाँ है, तो उसे देखने के लिए, उसे बाहर लाने के लिए मेहनत करनी पड़ेगी, जद्दोजहद करनी पड़ेगी। व्यक्ति न तो मेहनत करना चाहता है और न ही जद्दोजहद। वह तो चाहता है कि उसे बना-बनाया, पका-पकाया मिल जाए और वह खाकर अपना पेट भर ले। यह वह पहली मनोवैज्ञानिक बाधा होती है, जो हमें एनालेसिस तक पहुँचने
में अपनी टाँग अड़ाती है।

मेरा प्रष्न है कि मक्खन होता कहाँ है? प्रश्न  है कि घी कहाँ होता है और प्रष्न यह भी है कि मठा कहाँ होता है? इन तीनों का जवाब एक ही होगा कि ये सब दूध में होते हैं। तब एक प्रश्न  यह उठता है कि यदि ये तीनों दूध में ही होते हैं, तो वे दिखाई क्यों नहीं देते? इसका उत्तर यही होगा कि वे उसमें इतने अधिक घुले-मिले होते हैं कि उनका अलग से अस्तित्व दिखाई नहीं देता, बावजूद इसके कि वे उसी में होते हैं। तो प्रष्न फिर से यह उठता है कि इसे पाया कैसे जाए? उत्तर बहुत आसान है कि दूध को मथनी से मथा जाए। मथने की प्रक्रिया के दौरान दूध में मौजूद मक्खन तैरकर ऊपर आ जाएगा और दूध से मक्खन निकल जाने के बाद जो बचेगा, वह मठा होगा। अब यदि इस मक्खन को गर्म किया जाए, तो मक्खन से झाग अलग हो जाएगा और जो बचेगा वह घी रह जाएगा। कुल-मिलाकर घी पाने के लिए कितने किलोग्राम दूध को मथना पड़ेगा? हम इस गणित में नहीं पड़ते। लेकिन इससे यह तो पता लग ही जाता है कि घी इतना महंगा क्यों है। क्या ऐसा नहीं है? न जाने कितनी सूचनाओं को मथने के बाद निष्कर्ष का थोड़ा सा ही घी प्राप्त होता है, लेकिन होता बहुत कीमती है। यदि सूचनाओं से निष्कर्ष निकाल लिया जाए, तो उनकी कीमत मठे के बराबर रह जाती है। लेकिन घी भी निकलेगा तभी, जब दूध होगा। जाहिर है दोस्तों कि विष्लेषणात्मक क्षमता से जो हम निष्कर्ष प्राप्त करते हैं, वे निष्कर्ष होते तो सूचनाओं और घटनाओं में ही हैं, वे उन्हीं में संकेत के रूप में छिपे होते हैं। हमें उन्हें पकड़ना होता है। पकड़ने की यह प्रक्रिया ही विष्लेषण करने की प्रक्रिया कहलाती है।

विश्लेषणात्मक क्षमता के प्रति विष्वास रखने वाले प्रत्येक स्टूडेन्ट को यह बात अपनी गाँठ में बाँध लेनी चाहिए कि ज्ञान की जितनी भी शाखाएं होती हैं, वे सब के सब विज्ञान ही होती हैं; फिर चाहे वह समाजशास्त्र हो या इतिहास ही। इसीलिए इसे ‘सोशल साइन्स’ कहा जाता है। आपके दिमाग में जब तक यह धारणा नहीं बनेगी, तब तक आप उनका विष्लेषण करने के बारे में सोच ही नहीं सकेंगे। विष्लेषण करने का अर्थ ही यह है कि आप सूचनाओं और घटनाओं को ज्यों का त्यों नहीं ले रहें हैं। उन्हें आप ग्रांटेड नहीं मान रहे है। आपको लग रहा है कि इन सब दिखाई देने वाली चीज़ों के परे भी कई अन्य चीज़ें हैं। सामान्य सोच वाला व्यक्ति तो जैसे ही किसी घटना के बारे में सुनता है, उसके प्रति बिना सोचे-समझे ही तत्काल वैसी प्रतिक्रिया व्यक्त कर देता है, जो उसके दिमाग में ऑटोमेटिक तरीके से बनी हुई हैं। 99 प्रतिशत से अधिक लोग यही करते हैं। इस तथ्य को समझने के लिए मैं यहाँ आचार्य रजनीष के जीवन की एक घटना की चर्चा करना चाहूँगा। शायद आप इससे मेरी बात को अच्छी तरह समझ सकेंगे।

आचार्य रजनीषी (ओषो) आडम्बर और पाखंड की धज्जियाँ उड़ाने वाले विचारकों में थे। एक बार जब वे अपना प्रवचन दे रहे थे, तब एक जोषीला नौजवान बीच में ही उठकर खड़ा हो गया और उसने बड़े जोष और खरोष में भरकर ओशो से प्रश्न  किया कि ‘‘आप पाखंड का विरोध करते हैं, लेकिन आप तो स्वयं सबसे बड़े पाखंडी हैं।’’ रजनीष ने शान्त भाव से उस नौजवान से पूछा ‘‘तुम ऐसा क्यों कह रहे हो?’’ उस नौजवान ने कहा कि ‘‘आपने दाढ़ी बढ़ा रखी है। यह दाढ़ी पाखंड नहीं है तो क्या है?’’ ओशो ने हमेशा की तरह हल्के से मुस्कुराते हुए जवाब दिया, ‘‘मेरे बच्चे, मैंने दाढ़ी नहीं बढ़ा रखी, तुमने कटवा रखी है।’’ पूरी सभा में सन्नाटा छा गया। मैं इसे एक्सप्लेन नहीं करूंगा। मैं चाहूँगा कि आप स्वयं इस घटना की व्याख्या करके यह जानने की कोषिष करें। ऐसा करना उपयोगी रहेगा, और मजेदार भी।

वस्तुतः जो चीज़ दिखाई दे रही है, विष्लेषणात्मक क्षमता उससे परे देखने की एक मानसिक गतिविधि है। यह सामान्य व्यक्तियों की सोच से भिन्न होती है। साथ ही यह इस बात को प्रमाणित भी करती है कि उस मामले पर आपकी कितनी जबर्दस्त पकड़ है; उस मामले को आप अच्छी तरह जानते और समझते हैं तथा उसकी गहराई में जाकर आप सही निष्कर्ष निकाल सकते हैं। इसके बारे में बस इतना ही।
विष्लेषण के दो प्रकार

इससे पहले कि मैं अब इस विषय पर आगे लिखना शुरू करूं, यहाँ एक बात स्पष्ट करना चाहूँगा कि इस विषय पर मैं जितनी भी बातें आपसे कर रहा हूँ, वे बौद्धिक स्तर की नहीं हैं। ये बातें न तो विषुद्ध रूप से मनोविज्ञान का विषय हैं, न ही षिक्षाषास्त्र का। यह इंटलेक्चुअल डिस्कषन भी नहीं है। यह फिलासफी की तर्कषक्ति तक भी सीमित नहीं है। दरअसल, इसका पूरा स्वरूप व्यावहारिकता का है। मैंने इस बारे में जो कुछ भी अनुभव किया है, प्रयोग किए हैं और सीखा है, उन्हीं को इकट्ठा करके मैं अपनी बात आप तक पहुँचा रहा हूँ। इसलिए यदि आप मेरी बातों को किसी विषय विषेष के दायरे में देखने की कोषिष करेंगे तो आपको निराषा ही हाथ लगेगी। बेहतर होगा कि आप मेरे कहे हुए को व्यवहार में लाएं और मुझे पूरा विष्वास है कि यदि आप ऐसा करेंगे तो मेरी ये बातें आपको निराष नहीं होने देंगी।

ह्यूमन साइंस के लगभग सभी विषय में मेरा थोड़ा-बहुत ज्ञान है। मैं इनके बारे में सुनता रहता हूँ और चूँकि मेरे लिए समस्त जगत ही एक विज्ञान है, इसलिए अवसर मिलने पर देखता और उसे पढ़ता भी रहता हूँ। अपने इस समस्त ज्ञान के आधार पर मुझे लगता है कि विष्लेषणात्मकता मुख्यतः दो प्रकार की होती हैं। पहला स्तर इसका रचनात्मकता का है तथा दूसरा समीक्षात्मकता का। इसे हम थोड़ा समझ लें, क्योंकि सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी में इन दोनों का ही अपना-अपना योगदान होता है, हालांकि समीक्षात्मकता का योगदान रचनात्मकता की तुलना में थोड़ा अधिक होता है-

1. रचनात्मक समीक्षा (क्रिएटिव एनालेसिस)- जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, इसमें ज्ञान का योगदान इतना नहीं होता, जितना की रचनात्मकता का होता है। जब हम अपनी समीक्षा के लिए सूचनाओं का सहारा न लेकर या सूचनाओं का सहारा थोड़ा-सा लेकर उसे अंजाम देते हैं, तो हमारी समीक्षा रचनात्मकता के करीब पहुँचने लगती है। जाहिर है कि इस स्तर की समीक्षा में हमारी अपनी कल्पना और हमारे अपने अनुभव को अधिक स्थान मिलने लगता है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं होता कि हम केवल अपने अनुभवों और कल्पनाओं को ही उलट-पुलटकर उन्हें तर्क की कसौटी पर कसते रहते हैं। चूँकि हमारे अपने अनुभव और कल्पनाएं सूचनाओं और घटनाओं के रूप में जग जाहिर नहीं होती है इसलिए इस बात की भी पूरी सम्भावना रहती है कि उसे लोग इतना विष्वसनीय न मानें। इसलिए इस तरह की समीक्षा का प्रभाव भी अपेक्षाकृत कम होता है। लेकिन यदि इस तरह की समीक्षा करने वाले व्यक्ति का व्यक्तित्व और विष्वसनीयता बहुत ऊँचे स्तर की है, तो निष्चित रूप से ऐसी समीक्षाओं के भी अपने प्रभाव होते हैं।

उदाहरण के तौर पर आप सिविल सेवा परीक्षा के निबन्ध के पेपर को ले सकते हैं। आपको कुछ विषयों पर निबन्ध लिखने के लिए कहा जाता है। लेकिन एक सही स्टूडेन्ट के रूप में आपको निबन्ध और जनरल स्टडीज के अन्तर को जानना चाहिए। जब आप निबन्ध लिखेंगे, तो वहाँ आपको रचनात्मक समीक्षा का सहारा लेना होगा। लेकिन जब आप इसी विषय पर जनरल स्टडीज के पेपर को हल करेंगे, तो वहाँ यह पद्धति आपकी इतनी मदद नहीं कर सकेगी। उदाहरण के तौर पर एक निबंध का विषय है ‘‘शब्द दो-धारी तलवार से अधिक तीक्ष्ण होते हैं।’’ इसमें तथ्यों का योगदान काफी कम होगा। आपके अपने विचार तथा अनुभव आदि प्रमुख भूमिका निभायेंगे। ध्यान दें कि यहाँ भी आपको विष्लेषण का सहारा लेना है, क्योंकि आपको शब्दों की तीक्ष्णता को दोधारी तलवार की तुलना में अधिक तेज सिद्ध करना है।

2. आलोचनात्मक पद्धति- विष्लेषण की यह पद्धति अधिकांषतः तथ्यों पर आधारित होती है, सूचनाओं पर आधारित होती है, आकड़ों पर आधारित होती है, वक्तव्यों पर आधारित होती है और प्रमाणों पर आधारित होती है। निष्चित रूप से इसमें ज्ञान का योगदान सबसे अधिक होता है। यहाँ हमारे अपने अनुभव और कल्पना की भूमिका बहुत थोड़ी रह जाती है। हम जो भी बात कहते हैं, वे बातें सूचना के रूप में अधिकांष लोगों को मालूम रहती हैं और हम उन ज्ञात सूचनाओं का मंथन करके उसके आधार पर अपने निष्कर्ष देते हैं। इसे आप एक प्रकार से विष्लेषण की वैज्ञानिक पद्धति कह सकते हैं और निष्चित रूप से यह पद्धति अधिक विष्वसनीय होती है, दूसरों को विष्वास दिलाने के रूप में तथा निष्कर्ष निकाले जाने के रूप में भी। सिविल सर्विस परीक्षा के जनरल स्टडीज के लगभग 75 प्रतिषत प्रष्न इसी तरह के विष्लेषण की मांग करते हैं। इसे उदाहरण द्वारा समझाये जाने की जरूरत नहीं है। आप इस तथाकथित सुखद-मजेदार संकट से अच्छी तरह परिचित हैं।

NOTE: This article by Dr. Vijay Agrawal was first published in ‘Civil Services Chronicle’.

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