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You are here: Home >> Resources >> Articles (Hindi) >> बोधगम्यता की तैयारी के व्यावहारिक सूत्र

बोधगम्यता की तैयारी के व्यावहारिक सूत्र

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शुरूआत इस प्रश्न से करते हैं कि यदि CSAT नहीं तो फिर क्या? जाहिर है कि एक वैकल्पिक विषय, जैसा कि इससे पहले था। क्या आप उसके लिए तैयार हैं, क्योंकि फिलहाल तो हमारे सामने प्रारम्भिक परीक्षा के द्वितीय पेपर के ये दो ही रूप उपलब्ध हैं। भाग्यशाली हैं कि आपको मेरी तरह प्रारम्भिक परीक्षा में ऑप्शनल विषय की तैयारी के लिए जूझना नहीं पड़ रहा है। इसमें तनिक भी संदेह मत कीजिए कि ऑप्शनल पेपर की एक चौथाई मेहनत से CSAT की दुगूनी तैयारी हो जाती है। इसलिए इसे स्वीकार कीजिए, और बहुत ही खुले हृदय और प्रसन्न मन से स्वीकार कीजिए, क्योंकि स्वीकार्य की भावना दोस्ती की दिशा का ‘प्रवेश द्वारा’ होता है। और आपको CSAT से दोस्ती करनी ही पड़ेगी, भले ही आप ऐसा अनमने भाव से ही क्यों न करें।

सुखद आश्चर्य

आपको यह देखकर सुखद आश्चर्य होना चाहिए कि CSAT के पेपर में बोधगम्यता संबंधी प्रश्नों का प्रतिशत अब तक न्यूनतम 30 से लेकर अधिकतम 45 तक रहा है। कुल 80 प्रश्न पूछे जाते हैं। इनमें से सन् 2011 में 36, सन् 2012 में 37 तथा सन् 2013 में 23 प्रश्न बोधगम्यता से थे। शुरूआत के दो सालों में इनकी संख्या की अधिकता ने निश्चित तौर पर CSAT के पेपर को असंतुलित कर दिया था। तब तो यह असंतुलन और भी अधिक दिखेगा, यदि हम इसमें अंग्रेजी भाषा की बोधगम्यता पर पूछे गए क्रमशः – 9, 8 और 9 प्रश्नों को भी जोड़ लें। यह कुछ ज्यादा ही है, जरूरत से कुछ ज्यादा ही। अब ऐसा लगता है कि आने वाले वर्षों में इसे संतुलित कर लिया जाएगा। फिर भी बोधगम्यता वाले प्रश्नों की संख्या बीस से (अंग्रेजी बोधगम्यता को छोड़कर) कम शायद ही हो।

बीस यानी कि पच्चीस प्रतिशत। घबड़ाइए मत, यह आपके ही पक्ष में है। आप यदि इस अंश पर अच्छी पकड़ बना लेते हैं, तो इसका अर्थ होता है- एक चौथाई तैयारी का हो जाना। ऊपर से अंग्रेजी बोधगम्यता की तैयारी ‘बोनस’ में हो जाती है। इसका बस एक ही थोड़ा नकारात्मक पक्ष रह जाता है, और वह भी हिन्दी माध्यम के विद्यार्थियों के लिए। यह है अंग्रेजी भाषा के ज्ञान का होना। किंतु इसको लेकर बहुत परेशान होने की जरूरत नहीं है। अच्छा है कि कम से कम इसी बहाने वे इसी स्तर पर अंग्रेजी की थोड़ी-बहुत तैयारी करने लगेंगे, ताकि उन्हें मुख्य परीक्षा में अंग्रेजी के अनिवार्य पेपर से मुँहकी खानी न पड़े।

मैंने कहा है- ‘सुखद आश्चर्य’। ऐसा क्यों? आष्चर्य इसलिए, क्योंकि CSAT के कुछ सात बिन्दु हैं, और इन सात में से केवल बोधगम्यता वाले उस एक बिन्दु ने कुल पेपर का लगभग एक-तिहाई हिस्सा हथिया लिया है। अब मैं आता हूँ इस बात पर कि सुखद क्यों? जी हाँ, आप इन बिन्दुओं पर विचार कीजिए और विचार करने के बाद खुश होने से स्वयं को वंचित करने के भूल से बचिए-

  • एक बिन्दु की तैयारी से एक-तिहाई पेपर की तैयारी हो जाती है।
  • गणित की तरह या तार्किकता की तरह इसकी तैयारी के लिए आपको अलग-अलग तरह के प्रश्नों को हल करना नहीं होती। इसकी केवल एक ही चाबी है, जो इसके सभी तालों को खोलने का सामर्थ्य रखती है, बशर्ते कि आपकी वह चाबी ‘मास्टर चाबी’ हो।
  • इन प्रश्नों को हल करने में परीक्षार्थी की शैक्षणिक पृष्ठभूमि की कोई भूमिका नहीं रहती कि वह विज्ञान का विद्यार्थी रहा है, या आर्टस का। यहाँ तक कि इसका भी कोई विशेष रोल नहीं रहता कि वह फर्स्ट डिविजनर्स है, या थर्ड डिविजनर्स। ऐसा इसलिए, क्योंकि बोधगम्यता का संबंध न तो ज्ञान से होता है कि आपने कितना पढ़ और रट रखा है, और न ही इस बात से होता है कि भाषा की (अंग्रेजी के अतिरक्त) आपकी समझ कितनी अच्छी है। यानी कि यह अंश सबको एक ही तराजू पर एक जैसा तौलने वाला सर्वोत्तम पैमाना है।
  • इसकी तैयारी और प्रैक्टिस में CSAT की अन्य तैयारियों की तरह तनाव नहीं होता। यह मजेदार होता, और बहुत कुछ राहत देने वाला भी। इसके साथ वक्त गुजारना अच्छा लगता है।
  • यदि आपसे मैं यह कहूं कि ‘‘आपको इसमें शत-प्रतिशत नम्बर लाने की कोशिश करनी चाहिए, क्योंकि ऐसा हो सकता है’’, तो क्या आपको अच्छा नहीं लगेगा? आपका टारगेट तो यही होना चाहिए, भले ही ऐसा न हो पाए। किन्तु फिर भी जो भी होगा, वह पहले से तो बेहतर ही होगा और किसी भी प्रतियोगिता में सफल होने का पहला मंत्र यही होता है कि ‘आप कैसे अपने ही रिकार्ड को तोड़ते चले जाते हैं।’’

क्या इतनी सारी बातें किसी भी तथ्य का सुखद एहसास कराने के लिए पर्याप्त नहीं हैं? ध्यान रखें कि अपनी मानसिकता को सुखद एहसास के इस स्तर पर लाना CSAT के बोधगम्यता की तैयारी करने का पहला चरण है, और पहली शर्त भी। यही एहसास हमारे मस्तिष्क की ग्रहण करने की क्षमता को बढ़ाता है, उसके सोचने-समझने की क्षमता में वृद्धि करके सही निष्कर्ष तक पहुँचने के योग्य बनाता है।

मनोवैज्ञानिक चुनौतियां

निश्चित रूप से ‘कम्प्रेहेन्सन’ ज्ञान की परीक्षा तो नहीं ही है। तो फिर यह क्या है? इसका उत्तर जानना इसलिए जरूरी है, ताकि आप स्वयं को उसी के अनुकूल ढालकर इस पर फतह हासिल कर सकें। दरअसल, बोधगम्यता के प्रश्न हमारे मस्तिष्क के सामने कुछ गुणात्मक चुनौतियां प्रस्तुत करते हैं, जिन्हें मैं ‘टू एफ’ यानी कि ‘दो एफ’ कहना चहूंगा। ये दो चुनौनियां हैं-

  • फोकस, एवं
  • फास्टनेस की।

यानी कि इस बात की कि आपका अपने मस्तिष्क पर, सोचने-समझने की क्षमता पर और पढ़ी गई बातों तक ही स्वयं को केन्द्रीत रखने की क्षमता पर कितना नियंत्रण है। साथ ही यह भी कि आपका चिंतन कितनी तेज रफ्तार से एक विषय से दूसरे विषय की ओर गतिशील हो सकता है, और वह भी पूरे नियंत्रण के साथ, पूरी एकाग्रता के साथ। यह एक प्रकार से किसी पहाड़ पर, जहाँ चढ़ाई होती है, जहाँ के रास्ते इतने सकरे और सर्पीले होते हैं कि इधर-उधर की बिल्कुल भी गंजाइश नहीं होती और सामने पूरा तक का कुछ भी दिखाई नहीं देता, गाड़ी चलाने जैसा है। आपका स्टीयरिंग पर पूरा कमांड होना चाहिए और आँखें सामने की ओर बिल्कुल स्थिर। ऐसा ज्यादातर लोग कर लेते हैं। बस थोड़ी प्रैक्टिस चाहिए। लेकिन मुश्किल तब खड़ी होती है, जब ऐसे रास्ते पर गाड़ी की स्पीड साठ किलोमीटर प्रति घंटा करने को कह दिया जाए। कुल मिलाकर यही है- टू एफ- फोकस एण्ड फास्टनेस। फोकस नहीं रहेंगे, तो कार गढ्ढे में होगी, और यदि स्पीड में नहीं होंगे तो समय से पहुँच नहीं पाएंगे। पहले का संबंध प्रश्नों के गलत उत्तर देने से है, तो दूसरे का प्रश्नों के छूट जाने से।

‘फोकस’ को बिगाड़ने का काम सबसे अधिक हमारे दिमाग में मौजूद ‘जनरल नॉलेज’ करता है। परिच्छेदों की विषयवस्तु सरल होती है, और सामान्य भी। उनका संबंध सीधे-सीधे सामान्य ज्ञान से होता है। इसलिए यदि भाषा पर आपका जरा भी नियंत्रण है, तो परिच्छेद के अंश के अर्थ को समझने में परेशानी नहीं होती। इस परेशानी की शुरूआत तब होती है, जब आप उसमें पूछे गए प्रश्नों के उत्तर देने लगते हैं। उत्तर के रूप में जो विकल्प दिए जाते हैं, उनमें से कई विकल्प सही मालूम पड़ते हैं। वस्तुतः वे सही होते भी हैं, लेकिन जनरल नॉलेज की दृष्टि से, उस परिच्छेद की दृष्टि से नहीं। लेकिन आपको उत्तर देना है परिच्छेद की दृष्टि से, जिसके लिए एक ही उत्तर नीयत होता है। लेकिन हमारा दिमाग उस क्षण विशेष में परिच्छेद से हटकर ‘सामान्य ज्ञान’ की ओर चला जाता है, और यहीं हम धोखा खा जाते हैं। बस, यहीं हमारे सामने फिर से यह मनोवैज्ञानिक चुनौती आ खड़ी होती है कि हम कैसे इसे विचलित होने से रोक सकें, कैसे इसे फोकस्ड रख सकें। यह सबसे बड़ी, सबसे खतरनाक चुनौती होती है। सबसे अधिक धोखा आपको इसी रूप में मिलेगा, क्योंकि यह चुनौती इतने सूक्ष्म रूप में आती है कि ऊपरी तौर पर हम इसे पहचान नहीं पाते हैं। कृपया इस बारे में सावधान रहें, बहुत-बहुत सावधान।
तीसरी चुनौती, जिसे मैं बहुत बड़ी चुनौती मानता हूँ और जो विशेषकर हिन्दी माध्यम के विद्यार्थियों के लिए है, वह भाषा की है। यह अनुवाद के कारण है। हिन्दी में जो परिच्छेद दिए जाते हैं, वे अंग्रेजी से अनूदित होते हैं। यह अनुवाद भी बहुत कठिन और उलझाव वाला होता है। शब्दों के अर्थ पल्ले नहीं पड़ते। वाक्य लम्बे-लम्बे बना दिए जाते हैं, जिनका स्वरूप हिन्दी का नहीं होता है। इसका दुष्प्रभाव पढ़ने की स्पीड पर पड़ता है, क्योंकि सही-सही उत्तर देने के लिए आवश्यक होता है कि परिच्छेद की बारीकियों तक को समझा जाए, और कुछ समय तक उसे अपनी स्मृति में रखा भी जाए।

चुनौतियों का सामना

अब समस्या यह है कि इन तीनों मनोवैज्ञानिक चुनौतियों का सामना आप करेंगे कैसे, क्योंकि इसे करना तो पड़ेगा ही। यहाँ आपकी च्वाइस काम नहीं करेगी। मुझे इसका एक ही उपाय दिखाई देता है, और वह उपाय है- अधिक से अधिक प्रैक्टिस करने का। इस पर अनेक पुस्तकें उपलब्ध हैं। आपको चाहिए कि आप रोजाना कम से कम एक परिच्छेद को हल अवष्य करें, लेकिन पूरी तरह सजग होकर, सोच-विचार करके। आपको इसे हल ही नहीं करना है, बल्कि इस तथ्य को भी ध्यान में रखना है कि-

  • हल करने के दौरान कौन-कौन सी समस्याएं आईं।
  • आपने उन समस्याओं को कैसे हल किया।
  • जो उत्तर गलत हुए, वे क्यों गलत हुए।
  • साथ ही यह भी कि जो उत्तर सही हुए, वे क्यों सही हुए।

शुरु में आपको स्पीड पर ध्यान नहीं देना है। अभी तो आपको कार चलानी सीखनी है। इसलिए शुरुआत इत्मिनान से करें। पढ़ने में समय लगाएं, और समझने में भी। आप परिच्छेद को कई-कई बार पढ़ें। पढ़ने के बाद मन ही मन सोचें भी। फिर प्रश्नों को पढ़ें, और तब उनके उत्तर देने की कोशिश करें। इसमें भी पर्याप्त समय लगायें। जब तक पूरी तरह तसल्ली न हो जाए, तब तक उत्तर न लिखें। फिर अपने उत्तर की जाँच करें, और वह भी बने बनाए उत्तरों से मिलान करके नहीं बल्कि मूल परिच्छेद से मिलान करके। तभी आपको अपनी मनोवैज्ञानिक कमियां और कमजोरियां समझ में आ सकेंगी, जो इस दौरान होती हैं। समझ में आने के बाद ही आप उन्हें दूर कर सकेंगे। इसलिए फिलहाल स्पीड को भूल जाएं। एक बार जब आपके मस्तिष्क का तालमेल परिच्छेद के साथ बैठ जाएगा, एक बार जब आप कार चलाना सीख लेंगे, फिर स्पीड पर ध्यान दीजिएगा।

परिच्छेद के स्वरूप के बारे में कुछ

पिछले तीन सालों के CSAT के पेपर्स में दिए गए परिच्छेदों के आधार पर हम निम्न कुछ विचार बना सकते हैं-

1. कुछ परिच्छेद काफी छोटे होते हैं, लगभग 125-150 शब्दों के, तो कुछ परिच्छेद 400-425 शब्दों तक जितने बड़े भी। एक अन्य श्रेणी इन दोनों के लगभग बीच की है, जो लगभग 225 से 275 शब्दों के बीच फैले होते हैं। इस प्रकार लम्बाई की दृष्टि से हम इन्हें निम्न तीन भागों में बाँट सकते हैं-

  • लघु परिच्छेद           :    125 – 200 शब्द
  • मध्यम् परिच्छेद     :   225 – 350 शब्द
  • वृहद् परिच्छेद          :  375 – 450 शब्द।

2. यह देखा गया है कि लघु परिच्छेदों के जहाँ विषय समझ की दृष्टि से सामान्य होते हैं, वहीं उनकी भाषा भी अपेक्षाकृत सरल होती है। साथ ही उनके वाक्य भी छोटे-छोटे हेाते हैं। जैसे-जैसे परिच्छेदों का आकार बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे विषय दुर्बोध होते जाते हैं। भाषा कठिन तथा वाक्य-विन्यास लम्बे और जटिल होने लगते हैं।

3. किसी भी एक परिच्छेद से कम-से-कम दो तथा अधिक से अधिक पाँच प्रश्न तक पूछ लिए जाते हैं। जाहिर है कि प्रश्नों की इस संख्या का संबंध सीधे-सीधे परिच्छेदों की लम्बाई से जुड़ा होता है।

4. CSAT में 120 मिनट में 80 प्रश्न हल करने होते हैं। यानी कि एक प्रश्न के लिए औसतन डेढ़ मिनट का समय मिलता है। अतः किसी परिच्छेद को कितना समय दिया जाए, इसका निर्धारण इस आधार पर होगा कि उस परिच्छेद से कितने प्रष्न पूछे गए हैं।

5. परिच्छेद की विषय-वस्तु कुछ भी हो सकती है, सामान्य जीवन-दर्शन से लेकर आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, कृषि, स्वास्थ्य, शिक्षा, आदि कुछ भी।
यह निष्कर्ष निकालना भी गलत नहीं होगा कि छोटे परिच्छेदों के प्रश्नों के सही होने की संभावना वृहद परिच्छेदों के प्रश्नों के सही होने की तुलना में अधिक होती है। ऐसा परिच्छेदों में वर्णित विषयों तथा उनकी अभिव्यक्ति की सरल शैली के कारण होता है। अतः रणनीति की दृष्टि से लघु परिच्छेदों को पहले ही हल करना बेहतर होगा, लेकिन पूरी सावधानी के साथ।

व्यावहारिक चुनौतियों से मुठभेड़

‘बोधगम्यता’ के प्रष्नों को हल करने के दौरान व्यावहारिक रूप से किस-किस तरह की उलझनें खड़ी होती हैं, इसे स्पष्ट करने के लिए मैंने सन् 2013 के CSAT के पेपर में दिए गए एक परिच्छेद को चुना है। इससे आपको शायद इसकी तैयारी करने के तरीकों के बारे में और अधिक स्पष्टता आ सकेगी। यहाँ यह बताना ठीक होगा कि मैंने उदाहरण के रूप में जिस परिच्छेद को चुना है, वह न केवल अपने आकार में मध्यम् दर्जे का है, बल्कि विषय और प्रस्तुति (भाषा तथा वाक्य) की दृष्टि से भी मध्यम् श्रेणी का है। वैसे तो आकार को देखते हुए इस परिच्छेद से तीन प्रष्न पूछे जाने चाहिए थे, किंतु पूछे केवल दो ही गए थे। यानी कि इसे हल करने के लिए हमारे पास अधिकतम तीन मिनट का ही समय है।

परिच्छेद

अनेक आनुभविक अध्ययनों से पता चलता है कि कृषक जोखिम उठाने के अनिच्छुक होते हैं, यद्यपि अनेक मामलों में ऐसा मामूली रूप से पाया जाता है। यह दर्शाने के भी प्रमाण हैं कि कृषकों की जोखिम उठाने की अनिच्छुकता ऐसे फसल प्रतिरूपों और निविष्टि उपयोग में परिणत होती है, जो आय को अधिकतम करने के स्थान पर जोखिम को कम करने हेतु अभिकल्पित हैं। कृषक, कृषिगत जोखिमों को संभालने और उनका सामना करने के लिए अनेक रणनीतियाँ अपनाते हैं। इनके अंतर्गत फसल एवं जोतों का विविधीकरण, गैर-कृषि रोजगार, माल का भंडारण एवं परिवार के सदस्यों का रणनीतिक प्रवास इत्यादि पद्धतियाँ सम्मिलित हैं। बँटाई काश्तकारी से लेकर नातेदारी, विस्तारित परिवार तथा अनौपचारिक ऋण अभिकरण जैसी संस्थाएँ भी हैं। कृषकों द्वारा जोखिम उठाने में एक प्रमुख बाधा यह है कि एक ही प्रकार के जोखिम उस क्षेत्र में बड़ी संख्या में किसानों को प्रभावित कर सकते हैं। आनुभविक अध्ययन यह दिखाते हैं कि परंपरागत तरीके पर्याप्त नहीं हैं। अतः नीतिगत हस्तक्षेप आवष्यक है, विशेषकर ऐसे उपाय, जो विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में एकसमान कारगर हों।

नीतियों का उद्देष्य प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से कृषिगत जोखिमों का मुकाबला करना हो सकता है। विशेषतः जोखिम को ध्यान में रखकर बनी नीतियों के उदाहरण हैं, फसलों का बीमा, कीमत स्थिरीकरण और ऐसी किस्मों का विकास, जिनमें कीटों और बीमारियों के प्रति प्रतिरोधशक्ति हो, सिंचाई, आर्थिक सहायता प्राप्त ऋण एवं सूचना तक पहुँच ऐसी नीतियाँ, जो जोखिम को अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती हैं। विशेषतः जोखिम पर ध्यान देने वाली ऐसी कोई अकेली नीति नहीं है, जो इसे घटाने हेतु पर्याप्त हो और जिसके पार्श्व-प्रभाव न हों। जबकि ऐसी नीतियाँ जो विशेष तौर पर जोखिम से सम्बद्ध न हों, सामान्य स्थिति पर प्रभाव डालती हैं एवं जोखिमों को केवल अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती हैं। फसल बीमा पर प्रत्यक्ष रूप से कृतिषगत जोखिम को साधने के एक नीतिगत उपाय के रूप में, भारत एवं अन्य अनेक विकासषील देषों के संदर्भ में, सावधानीपूर्वक विचार करने की आवष्यकता है, क्योंकि बहुसंख्यक कृषक वर्षा-सिंचित कृषि पर निर्भर हैं और अनेक क्षेत्रों में उनकी आय अस्थिरता का मुख्य कारण उपज में अस्थिरता है।

1. कृषि में जोखिम घटाने हेतु नीतिगत हस्तक्षेप की आवष्यकता इसलिए है, क्योंकि-
(अ) कृषक जोखिम उठाने के नितान्त अनिच्छुक होते हैं।
(ब) कृषक यह नहीं जानते कि जोखिमों को किस प्रकार घटाया जाए।
(स ) कृषकों द्वारा अपनाए गए तरीके और जोखिम में सहभागिता करने वाली वर्तमान संस्थाएँ पर्याप्त नहीं हैं।
(द) बहुसंख्यक कृषक वर्षा-सिंचित कृषि पर निर्भर हैं।

2. उपर्युक्त परिछेद से निम्नलिखित प्रक्षेपणों में से कौन-सा उभर कर सामने आता है?
(अ) एक अकेली ऐसी नीति की पहचान की जा सकती है, जो बिना किसी पार्श्व-प्रभाव के जोखिम को घटा सके।
(ब) विशेषतः जोखिम को लेकर कोई ऐसी अकेली नीति नहीं हो सकती, जो कृषिगत जोखिम को घटाने हेतु पर्याप्त हो।
(स) जोखिम को अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करने वाली नीतियाँ इसका निराकरण कर सकती हैं।
(द) सरकार का नीतिगत हस्तक्षेप कृषिगत जोखिमों को पूर्ण रूप से कम कर सकता है।

परच्छिेद पर बनी धारणा

इस परिच्छेद को पढ़ने के बाद इसके बारे में कुछ इस तरह की धारणाएं बनती हैं-
1. इसका विषय भारतीय कृषि व्यवस्था है, और मुख्यतः यह कृषि व्यवस्था की जोखिम लेने वाली स्थिति से संबंधित है।

2. इसकी भाषा मध्यम श्रेणी की है। थोड़ी सावधानी बरतने पर समझ में आ जाती है। कहीं-कहीं अंग्रेजी का सहारा लेने पर तथ्य और भी अधिक स्पष्ट हो जाते हैं, जैसे कि ‘पार्श्व-प्रभाव’ को समझने के लिए अंग्रेजी का ‘side effects’ शब्द।

3. इसमें लगभग 350 शब्द हैं। ठीक से पढ़ने पर इसमें सवा से डेढ मिनट (कुल का लगभग आधा) लगते हैं।

सही उत्तर तक पहुँचने की बाधाएं

इस परिच्छेद से दो प्रश्न पूछे गए हैं। इसमें एक अच्छी बात यह है कि ये दोनों प्रश्न बिल्कुल सीधे-सीधे स्वरूप वाले हैं। यानी कि इनमें कूट (ब्वकम) का चक्कर नहीं है, जो विकल्पों को भ्रमित कर देते हैं। ऐसा शायद समय की गणना को ध्यान में रखकर किया गया होगा।
आपकी सुविधा के लिए मैं इसकी व्याख्या परिच्छेद पर पूछे गए दोनों प्रश्नों को अलग-अलग करके करना चाहूंगा। इससे आप इसकी जटिलताओं, भूलभुलैया तथा मनोवैज्ञानिक संकटों से अच्छी तरह परिचित हो सकेंगे।

प्रश्न क्रमांक एक

निम्न कुछ विन्दुओं का ध्यान से अवलोकन कीजिए-

1. इस प्रश्न के जो चार विकल्प दिए गए हैं, उससे संबंधित तथ्य परिच्छेद में मौजूद हैं। यानी कि इनमें से किसी भी विकल्प को सीधे-सीधे खारिज नहीं किया जा सकता।

2. प्रश्न को पढ़िए, लेकिन ध्यान से। इस प्रश्न के दो मुख्य भाग हैे। पहला- कृषि क्षेत्र में जोखिम, तथा दूसरा- जोखिम को कम करने के लिए नीतिगत हस्तक्षेप। गौर कीजिए कि हस्तक्षेप नहीं, बल्कि नीतिगत हस्तक्षेप।

3. यदि इसी प्रश्न को बिना परिच्छेद के सीधे-सीधे जनरल स्टडीज़ के पेपर में पूछ लिया जाए, तो ये चारों विकल्प सही होंगे। इसका अर्थ यह हुआ कि ये सभी विकल्प आपके दिमाग में घुसपैठ करके अपना-अपना हस्तक्षेप करेंगे। आपको सावधान रहना है, क्योंकि आपको उस विकल्प की तलाश है, जो इस परिच्छेद में पहले से ही है। यानी कि इसे हल करने के लिए बाहर से ज्ञान को नहीं लाना है। बल्कि जो ज्ञान पहले से ही दिया हुआ है, उसे पहचानना है, उसे पकड़ना है।

4. अब हम चारों विकल्पों का विश्लेषण करते हैं-

  • विकल्प ‘ए’ इनमें से सबसे कमजोर और थोथा है। ‘अनिच्छा’ को नीति से दूर नहीं किया जा सकता।
  • विकल्प ‘बी’ का संबंध किसानों की जोखिम संबंधी अज्ञानता से है। इसके लिए नीति की नहीं, बल्कि शिक्षा एवं सूचना की जरूरत होगी।
  • विकल्प ‘सी’ इनमें सर्वाधिक प्रतिनिधि एवं ठोस विकल्प मालूम पड़ता है, क्योंकि संस्थाओं और नीतियों में सीधा और घनिष्ठ संबंध होता है। साथ ही यह विकल्प परिच्छेद के प्रथम पैरा के अंत में स्पष्ट रूप से दिया हुआ भी है। वैसे भी सम्पूर्ण परिच्छेद को पढ़ने के बाद जो मुख्य तथ्य उभर कर आता है, वह नीति एवं संस्थाओं से ही जुड़ा हुआ है।
  • अंतिम विकल्प ‘डी’ वैसे तो कृषि एवं जोखिम के संदर्भ में महत्वपूर्ण है, किन्तु नीतिगत हस्तक्षेप के संदर्भ में नहीं।

प्रश्न क्रमांक-2

इस प्रश्न का संबंध सम्पूर्ण परिच्छेद के मूल मन्तव्य से है। यूं कह लें कि परिच्छेद के ‘इम्प्रेशन’ से है। इसके भी हम चारों विकल्पों की जाँच करते हैं।

  • परिच्छेद में अनेक प्रकार के जोखिम गिनाए गए हैं। ऐसी स्थिति में भला कोई एक अकेली नीति इसके लिए कैसे कारगर हो सकती है। अतः विकल्प ‘ए’ काफी हल्का उत्तर है।
  • चूंकि जोखिम कई तरह के हैं, इसलिए उसके उपाय भी समग्र होंगे, समेकित होंगे। इसी तथ्य को विकल्प ‘बी’ में अलग तरीके से कहा गया है। अतः यह विकल्प सर्वाधिक उपयुक्त ठहरता है।
  • एक तो विकल्प ‘सी’ का वक्तव्य सामान्य ज्ञान की दृष्टि से ही गलत है। साथ ही परिच्छेद के दूसरे पैराग्राफ के आरम्भ में ही ‘प्रत्यक्ष’ एवं ‘परोक्ष’ रूप से जोखिमों का मुकाबला करने की बात कही गई है। अतः यह विकल्प पूरी तरह गलत है।
  • चौथा विकल्प भी निष्चित रूप से सही होने का सशक्त दावेदार है। इस विकल्प का उल्लेख इस परिच्छेद से पूछे गए पहले प्रश्न में ज्यों का ज्यों है। किन्तु जहाँ तक परिच्छेद के सम्पूर्ण इम्प्रेशन की बात है, विकल्प ‘बी’ अधिक सशक्त मालूम पड़ता है। हाँ, यह बात जरूर है कि यह तथ्य तभी पकड़ में आ सकता है, यदि आपने परिच्छेद को केवल अच्छी तरह पढ़ा ही नही है, बल्कि उसे अच्छी तरह समझ भी लिया है।

यहाँ आपको लग सकता है कि क्या परीक्षा हॉल में ये सारी कवायदें करके सही उत्तर तक पहुँचने का समय होता है? जाहिर है कि ‘नहीं’। तो फिर इसका मतलब ही क्या हुआ? इसका मतलब है, और सच यह है कि इसका ही मतलब है। जब आप सतर्क होकर इस तरह के विश्लेषण के साथ पै्रक्टिस करेंगे, तो आपके मस्तिष्क के पास धीरे-धीरे ऐसी क्षमता अपने-आप ही आ जाएगी कि वह फटाफट यह काम कर लेगा। इसके अतिरिक्त अन्य कोई तकनीक है भी नहीं।

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