‘मानित वन’ की प्रकृति और विस्तार पर स्पष्टता की आवश्यकता
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हाल ही में सरकार ने 1980 के वन संरक्षण अधिनियम में संशोधन का प्रयास किया है। इस पर उच्चतम न्यायालय ने रोक लगा दी है। अधिनियम व संशोधन के प्रयास से जुड़े कुछ बिंदु –
- सर्वप्रथम, यह संशोधन वन-भूमि को गैर वानिकी उपयोग में लाने के लिए प्रस्तावित है।
- सरकार के सूत्रों से 1951-75 के बीच लगभग 4 करोड़ हेक्टेयर वन भूमि को गैर वानिकी कार्यों में ले लिया गया है।
- अधिनियम के प्रावधानों के तहत केंद्र, एक नियामक तंत्र का पालन किए बिना वन-भूमि को किसी उद्देश्य के लिए इस्तेमाल में नहीं ले सकता है।
- केंद्र ने अपनी उपलब्धि के रूप में बताया है कि 1981-2022 तक वन-भूमि के गैर वानिकी वार्षिक विचलन में लगभग 22,000 हेक्टेयर की कमी आई है।
- कानून के प्रावधान बड़े पैमाने पर भारत वन अधिनिमय, या अन्य राज्य कानूनों द्वारा मान्यता प्राप्त वन क्षेत्रों पर लागू होते हैं।
- लेकिन तमिलनाडु में गोरावर्मन चिरूमुलाद मामले में न्यायालय ने संरक्षण के योग्य वन क्षेत्रों के बारे में विस्तृत दृष्टिकोण अपनाया है। इसमें कहा गया है कि वनों के स्वामित्व का वर्गीकरण किए बिना ही उनकी रक्षा करनी होगी।
- इस निर्णय से ‘मानित वनों’ या उन इलाकों की अवधारणा सामने आई, जिन्हें सरकारी या राजस्व रिकार्ड में वर्गीकृत नहीं किया गया है। राज्यों को इनकी पहचान करने के लिए भी कहा गया था। निर्णय के 28 वर्षों के बाद भी कुछ ही राज्यों ने प्रयास किया है।
केंद्र का संशोधन किस दिशा में है –
- केंद्र ने संशोधन का प्रयास अधिनियम में स्पष्टता लाने के लिए किया है, क्योंकि दर्ज वन-भूमि के ऐसे बड़े हिस्से थे, जिन्हें पहले ही राज्य सरकार की अनुमति से गैर-वानिकी उपयोग में लाया जा चुका था।
- केंद्र का यह भी कहना है कि महत्वपूर्ण पारिस्थितिक लाभों के बावजूद लोग निजी वनों या बागों को लगाने से बचते हैं, क्योंकि उन्हें डर है कि अगर उस भूमि को ‘वन’ के रूप में वर्गीकृत किया गया, तो उनका स्वामित्व चला जाएगा।
- भारत के नेट जीरो लक्ष्य में 2.5 अरब – 3 अरब टन का कार्बन सिंक बनाने की आवश्यकता है। इस हेतु वन कानूनों को गतिशील बनाना होगा।
- सरकार ने नियमों के दायरे से ‘डीम्ड फॉरेस्ट’ को हटाने का प्रयास किया है (यानि कि जो वन पहले से सुरक्षा के दायरे में दर्ज नही हैं, उन्हें बाहर रखने का प्रयास किया है)।
अब राज्यों को अप्रैल तक ‘डीम्ड वनों’ या वन माने जाने योग्य क्षेत्रों का आकलन करके उसे केंद्र के पास भेजना है। केंद्र सरकार इसे इकट्ठा करके सार्वजनिक करेगी। इसके बाद न्यायालय अपना अंतिम निर्णय देगा। केंद्र का अनुमान है कि वृक्षारोपण के निजी प्रयासों की अपर्याप्तता के कारण कार्बन सिंक का लक्ष्य पूरा नहीं हो पा रहा है। अब जमीनी वास्तविकता का निष्पक्ष मूल्यांकन करके ही इस बहस को आगे बढ़ाया जा सकता है।
‘द हिदू’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधरित। 21 फरवरी, 2024
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