क्या राज्य सरकारों को अनुसूचित जाति/जनजाति में वंचित और कमजोर तबके को प्राथमिकता पर आरक्षण देने के लिए उप-वर्गीकरण का अधिकार है?
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हाल ही में उच्चतम न्यायालय के समक्ष यह महत्वपूर्ण मुद्दा आया है कि क्या पंजाब अनुसूचित जाति और पिछडा वर्ग (सेवाओं में आरक्षण) अधिनियम 2006 में राज्य के वाल्मीकि और मजहबी सिखों को अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित कुल सीटों में से 50% से अधिक ‘प्रथम वरीयता‘ आरक्षण प्रदान करना वैध है? इस मामले में 2004 के ईवी चिन्नया बनाम आंध्र प्रदेश सरकार मामले को आधार बनाया जा रहा है। कुछ बिंदु –
- पंजाब सरकार की दलील है कि चिन्नया मामले में अनुसूचित जाति को समरूप वर्ग की तरह देखा जाना गलत है।
- आरक्षण का उद्देश्य समुदायों को पीढ़ीगत और प्रणालीगत बाधाओं से उबरने में मदद करना है। इसके लिए आरक्षित वर्गों का उप-वर्गीकरण किया जाना चाहिए।
- इस हेतु पारिवारिक और व्यक्तिगत आय, धन, शिक्षा, ग्रामीण या शहरी और लिंग जैसे बहुआयामी मानदंड बनाए जाने की आवश्यकता है।
- इस माध्यम से एक ऐसी कुशल चयन प्रणाली तैयार होनी चाहिए, जिससे आरक्षण का लाभ केवल समुदायों को ही नहीं, बल्कि आखिरी जरूरतमंद व्यक्ति तक पहुंच सके।
कुल मिलाकर न्यायालय के समक्ष मुद्दा यह है कि आरक्षण को केवल सैद्धांतिक रूप से वितरित नहीं किया जा सकता है। इसके लिए पारदर्शिता जरूरी है। तभी यह प्रभावी बन सकता है। किसी गरीब और पिछड़े ब्राहम्ण की जगह किसी धनी और अग्रणी दलित को आरक्षण का लाभ दिए जाने का कोई अर्थ नहीं है। फिलहाल, शीर्ष न्यायालय ने इस विषय पर अपना निर्णय सुरक्षित रखा है। आशा है कि न्यायालय समूहों को आरक्षण दिए जाने के बजाय व्यक्तियों को दिए जाने की अनुशंसा कर सके।
‘द इकॉनॉमिक टाइम्स’ में प्रकाशित लेख पर आधारित। 14 फरवरी, 2024