राज्य सरकार के अभिभाषण में राज्यपाल की असहमति के मायने
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भारत में राज्यपाल का पद एक संवैधानिक पद है। लेकिन राज्यपाल की नियुक्ति केंद्र सरकार की सलाह पर राष्ट्रपति करते हैं। इस कारण से राज्यपाल की तटस्थता और निष्पक्षता पर सवाल खड़े होते हैं। हाल ही में तमिलनाडु के राज्यपाल ने सत्तारूढ़ दल द्वारा तैयार संबोधन को विधानसभा में पढ़ने से मना कर दिया। इस पर कुछ बिंदु –
- राज्यपाल का कहना था कि सरकार ने जो अभिभाषण तैयार किया है, उसमें भ्रामक तथ्य और दावे हैं। इन्हें पढ़कर वे राज्यपाल के अभिभाषण को एक ‘संवैधानिक उपहास’ नहीं बनने देना चाहते हैं। जबकि संसदीय लोकतंत्र में सरकार द्वारा तैयार अभिभाषण को पढ़ने से इंकार करना अपने आप में हास्यास्पद है।
- सरकार तो चुनी हुई पार्टियों से चलती है। अतः वे अपने नीतिगत वक्तव्यों में अपने दल की उपलब्धियों का ब्योरा ही देंगी।
- अभिभाषण की सामग्री का मूल्यांकन करना विपक्षी दल और मतदताओं का काम है। राज्यपाल को इस मामले में तटस्थ रहते हुए अपनी गरिमा बनाए रखनी चाहिए।
- राज्यपाल ने अभिभाषण में आपत्तिजनक तथ्यों का कोई ब्योरा नहीं दिया। अगर उनको पूरे अभिभाषण में केंद्र और उसकी नीतियों पर की गई कोई टिप्पणी आलोचनात्मक लगी भी, तो यह उसे पढ़ने की अस्वीकृति का आधार नहीं होना चाहिए था। संवैधानिक रूप से यह गलत है।
संवैधानिक पदाधिकारियों का ऐसा आचरण विधानसभा की गरिमा के लिए अपमानजनक है। यह भारत की संवैधानिक व्यवस्था की एक दुर्भाग्यपूर्ण विशेषता है कि बहुत से प्रतिष्ठित वरिष्ठजन गवर्नर पद पर आने को उत्सुक तो रहते हैं, लेकिन यहाँ आते ही वे राजनीतिक मंच में अपने प्रवेश की तैयारी करने लगते हैं। यही कारण है कि वे विरोधी राज्य सरकारों के कामकाज में बाधा डालकर केंद्र के एजेंट बन जाते हैं। इस स्थिति में बदलाव आना चाहिए।
‘द हिंदू’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 13 फरवरी, 2024