कृषि नीति में परिवर्तन की मांग करता मानसून
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गत मानसून में हर महीने वर्षा का पैटर्न तेजी से बदलता गया है। अगर जुलाई-सितंबर में यह लाँग पीरिएड ऐवरेज या एलपी, का 113% था, तो अगस्त में सिर्फ 64% था। जलवायु परिवर्तन का एक प्रभाव भारी वर्षापात की घटनाओं की आवृत्तियों और तीव्रता में वृद्धि है। आईपीसीसी ने अनुमान लगाया था कि ग्लोबल वार्मिंग के प्रत्येक 1º से. के कारण एक साथ बहुत अधिक वर्षा की घटनाएं 7% तक बढ़ जाएंगी।
यह भारत की कृषि नीति के सबसे महत्वपूर्ण पहलू में बदलाव की मांग करता है। अभी तक इस नीति का आधार देश के लोगों के लिए खाद्य आपूर्ति सुनिश्चित करना रहा है। यही कारण है कि गेंहू और चावल जैसी फसलों को प्रोत्साहन दिया जाता रहा है। इस प्रवृत्ति का नतीजा यह है कि अब हमारी कृषि नीति उभरते जलवायु जोखिमों के साथ तालमेल से बाहर है।
कुछ बिंदु –
- चावल की फसल बहुत पानी लेती है। इसकी पूर्ति ट्यूबवेल से की जाती है। इससे जल-संकट बढ़ता है। किसानों को मुफ्त बिजली दी जाती है, जिससे बिजली सुधारों में बाधा आती है। इस गतिरोध से बाहर निकलने का तरीका किसानों को धान और गेंहू के बजाय बाजरा जैसे मोटे अनाज की ओर प्रोत्साहित करना है।
- संयुक्त राष्ट्र ने मोटे अनाज के पोषण और पर्यावरणीय लाभों के कारण 2023 को बाजरा वर्ष (मिलेट ईयर) घोषित किया है।
- बाजरे या सभी मोटे अनाज को पानी की कम जरूरत होती है। वे जलवायु के प्रति अधिक लचीले होते हैं।
- भारत विश्व में मोटे अनाज का सबसे बड़ा उत्पादक है, और सरकार इसकी खेती को प्रोत्साहित करती है।
- बावजूद इसके, पिछले एक दशक में मोटे अनाज की खेती के क्षेत्र में लगातार गिरावट आई है। 2022-23 में यह 2.32 करोड़ हेक्टेयर था। यह चावल की खेती के क्षेत्र का बमुश्किल आधा हिस्सा था।
- इस प्रवृत्ति को उलटने के लिए, सरकार को मोटे अनाज की खरीद को प्राथमिकता देने वाली एक संशोधित नीति बनानी होगी।
- किसान कीमत और मांग दोनों पर प्रतिक्रिया करते हैं। अभी मोटे अनाज का न्यूनतम समर्थन मूल्य पर्याप्त खरीद द्वारा समर्थित नहीं है।
भारत की जलवायु अनुकूलन रणनीति ऐसी हो, जो किसानों के लिए मोटे अनाज की खेती के आर्थिक जोखिमों को कम कर सके। तभी किसान इसकी खेती के लिए प्रोत्साहित होंगे।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 2 अक्टूबर, 2023