23-09-2023 (Important News Clippings)

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23 Sep 2023
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Date:23-09-23

दुनिया के संगठन कितने प्रभावी बचे हुए हैं

संपादकीय

जी-20 की शिखर बैठक क्या खत्म हुई, देशों के बीच शब्द- बाण शुरू हो गए। जी-20 का समापन इस आशा के साथ हुआ था सभी राष्ट्राध्यक्ष, प्रधानमंत्री और प्रतिनिधि ब्राजील में अगले साल कुछ आगे बढ़ते हुए मिलेंगे। वैश्विक संस्था और इसके तमाम आनुषंगिक संगठनों के रहते हुए क्षेत्रीय, मल्टी-लेटरल, द्विपक्षीय संगठनों या करारों की क्यों जरूरत पड़ती है? अगर भारत ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) में है तो फिर उसके ठीक विपरीत क्वाड ( जापान, भारत, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया) के गठजोड़ में शामिल होने की क्यों जरूरत है? रूस पर तमाम प्रतिबंध बेअसर रहे। यही कारण था कि रूस पर डिप्लोमैटिक भाषा में कुछ ऐसे शब्द लाए गए, जिनसे यह पता नहीं चलता कि आक्रांता कौन है और उसका शिकार कौन । जब बात स्पष्ट न कहनी हो तो उसे दार्शनिक और सर्वसमावेश की भावना प्रधान भाषा में व्यक्त किया जाता है। तभी तो दिल्ली घोषणा में दुनिया के सभी देशों से एक-दूसरे की सीमाई संप्रभुता सम्मान करने की बात कही गई। फ्रांस ने इसका औचित्य बताते हुए कहा, ‘रूस का नाम क्यों लिखना है, सभी जानते हैं कि हमलावर कौन है’। दुनिया को रूस के तेल और यूक्रेन के अनाज की जरूरत है। लेकिन विश्व शांति के लिए गांधीवादी दर्शन जरूरी है।


Date:23-09-23

कारीगरों-शिल्पकारों को मिला सहारा

अरविंद कुमार मिश्रा, ( लेखक लोक नीति विश्लेषक हैं )

एक समय था, जब मिट्टी से बनी अनेक वस्तुओं के लिए लोग कुम्हारों पर निर्भर थे। धीरे-धीरे मिट्टी के बर्तनों की जगह स्टील और प्लास्टिक के बर्तनों ने ले ली। कुम्हारों के जिन परिवारों को गांव में ही रोजगार मिला था, उनके बच्चे आजीविका के लिए शहर पलायन कर गए। यही हाल बढ़ई, लोहार आदि का हुआ। 21वीं सदी भले ही प्रगति की नई चकाचौंध लेकर आई हो, लेकिन देश की आत्मनिर्भरता की धुरी रहे शिल्पकारों और कारीगरों को इसका दंश झेलना पड़ा। भारतीय अर्थव्यवस्था का आधार रहे इस वर्ग की प्रधानमंत्री मोदी ने सुध ली है। स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से उन्होंने पीएम विश्वकर्मा योजना शुरू करने की घोषणा की। इस घोषणा के 48 घंटे के भीतर केंद्रीय कैबिनेट ने योजना को मंजूरी दे दी। 17 सितंबर को विश्वकर्मा जयंती के मौके पर पीएम के हाथों शुभारंभ के साथ यह योजना क्रियान्वयन के स्तर आ गई है।

पीएम विश्वकर्मा योजना के अंतर्गत ग्रामीण एवं शहरी भारत के 18 पारंपरिक व्यवसायों को नया जीवन दिया जाएगा। इनमें कुम्हार, बढ़ई, लोहार, सुनार, दर्जी, मोची, नाई, मूर्तिकार आदि के साथ नाव बनाने वाले कारीगर भी शामिल हैं। ये वे उद्यम हैं जो एक विशेष तरह के हुनर और भारतीय ज्ञान परंपरा पर आधारित रहे हैं। सदियों से यह कारीगरी पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती रही है। विश्वकर्मा योजना के अंतर्गत 30 लाख परिवारों को आर्थिक सहायता प्रदान की जाएगी। इसके लिए 13 हजार करोड़ रुपये आवंटित हुए हैं। प्रत्येक परिवार से एक व्यक्ति को आर्थिक सहायता मिलेगी। नागरिक सेवा केंद्रों के जरिये कारीगरों और शिल्पकारों का पंजीयन होगा। उन्हें पीएम विश्वकर्मा प्रमाण पत्र और एक पहचान पत्र दिया जाएगा। पीएम विश्वकर्मा योजना के तीन प्रमुख आयाम हैं। पहला, आर्थिक सहयोग। दूसरा, कौशल एवं दक्षता संवर्धन तथा तीसरा विपणन व्यवस्था। इस योजना के तहत पहली किस्त में एक लाख रुपये का कर्ज दिया जाएगा, जिसे 18 महीने के भीतर चुकाना होगा। यदि यह कर्ज चुका दिया गया तो दूसरी किस्त में दो लाख रुपये का लोन दिया जाएगा। इसे 30 किस्तों में चुकाना होगा। पारंपरिक स्वरोजगार वालों के लिए जरूरी उपकरण, उत्पादों के रखरखाव, कच्चे माल की उपलब्धता और डिजिटल भुगतान की कमी बड़ा संकट रही है। विश्वकर्मा योजना से मिलने वाले आर्थिक प्रोत्साहन से ऐसे लोग अपने व्यवसाय को संस्थागत रूप दे सकेंगे। योजना के हितग्राहियों की पहचान ग्राम पंचायत, जिला और राज्य स्तर पर होगी। प्रशिक्षण अवधि में लोग 500 रुपये प्रतिदिन मानदेय के हकदार होंगे। प्रशिक्षण के दौरान उन्हें 15 हजार रुपये तक के आधुनिक उपकरण दिए जाएंगे। प्रशिक्षण के दौरान 12 अलग-अलग भाषाओं में उपलब्ध कराई जाने वाली टूलकिट में आधुनिक प्रौद्योगिकी और बाजार की जानकारी मिलेगी।

शिल्पकारों और दस्तकारों के सिमटने की एक बड़ी वजह उनके उत्पादों की कमजोर विपणन व्यवस्था रही। विश्वकर्मा योजना कारीगरों और शिल्पकारों के लिए टिकाऊ बाजार और विपणन तंत्र मुहैया कराने पर जोर देती है। हुनर हाट, हस्तशिल्प एवं उपहार मेलों के साथ एक जिला-एक उत्पाद योजना भी उनके उत्पादों को नया जीवन देगी। यदि उन्हें ओपेन नेटवर्क डेवलपमेंट कार्पोरेशन जैसे देसी ई-कामर्स मंच पर जगह मिलती है तो वे बाजार की प्रतिस्पर्धा में भी खड़े हो सकेंगे। सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम मंत्रालय द्वारा चलाई जा रही जीरो डिफेक्ट, जीरो इफेक्ट योजना से स्थानीय उत्पादों की संबद्धता इन कारीगरों के उत्पादों की गुणवत्ता भी बढ़ाएगी, जिसके समग्र लाभ देखने को मिलेंगे।

कुछ वर्ष पहले उत्तर प्रदेश की योगी सरकार द्वारा शुरू विश्वकर्मा श्रम सम्मान योजना से 1.40 लाख शिल्पियों को प्रशिक्षित किया जा चुका है। मध्य प्रदेश सरकार चमड़ा उद्योग से जुड़े कारीगरों के लिए नेशनल फुटवियर डिजाइनिंग इंस्टीट्यूट के साथ भागीदारी करने जा रही है। केंद्र सरकार पीएम विश्वकर्मा योजना के माध्यम से विनिर्माण गतिविधियों से संबद्ध एक बड़े वर्ग को एमएसएमई से जोड़ना चाहती है। देश के पारंपरिक उद्योगों को प्रोत्साहन का सीधा असर घरेलू विनिर्माण पर पड़ेगा। स्थानीय स्वरोजगार खत्म होने का सबसे अधिक लाभ चीन जैसे देशों को हुआ, जिसकी वस्तुओं से हमारे बाजार पट गए। विश्वकर्मा योजना स्थानीय कौशल को नई ऊर्जा देकर स्वदेशी उत्पादों की आपूर्ति और खपत बढ़ाएगी। मेक इन इंडिया से लेकर वोकल फार लोकल जैसे अभियान का मूल उद्देश्य यही रहा है। आधुनिक प्रौद्योगिकी की वजह से देश की श्रमबल संरचना में तेजी से बदलाव हो रहा है। ऐसे में तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनने का लक्ष्य घरेलू उत्पादन बढ़ाने से ही संभव है।

पीएम विश्वकर्मा योजना में शामिल व्यवसाय मुख्य रूप से अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग द्वारा संचालित हैं। इस योजना से श्रमशक्ति में महिलाओं की भागीदारी भी बढ़ेगी। स्वरोजगार पर आधारित एक बड़े वर्ग तक प्रौद्योगिकी लाभ पहुंचने से कुटीर उद्योग की औद्योगिक उत्पादन में हिस्सेदारी बढ़ती है। आर्थिक विषमता दूर करने के साथ यह सामाजिक समरसता को भी मजबूती देगी।
अब तक आर्थिक प्रोत्साहन चयनित उद्योगों के लिए ही आरक्षित माने जाते थे। पहली बार सरकार पुश्तैनी कारोबार के लिए समग्र आर्थिक प्रोत्साहन लेकर आई है। इसी कड़ी में रेहड़ी-पटरी वालों के लिए छह हजार करोड़ रुपये प्रदान किए जा चुके हैं। हर घर शौचालय, पीएम आवास योजना, उज्ज्वला, हर घर नल जल योजना से लेकर जनधन का वास्तविक लाभार्थी कमजोर वर्ग ही रहा है। उज्जवला योजना के 45 प्रतिशत लाभार्थी दलित और आदिवासी हैं। स्पष्ट है कि इस तबके का आर्थिक सशक्तीकरण उन्हें सामाजिक और राजनीतिक रूप से भी सशक्त बनाएगा।


Date:23-09-23

निर्यात की सफलता के लिए एमएसएमई की मजबूती

राहुल आहलूवालिया

सूक्ष्म लघु और मझोले उपक्रम (एमएसएमई) को अक्सर भारतीय अर्थव्यवस्था का पावर हाउस कहकर पुकारा जाता है। कुछ अनुमानों के मुताबिक वे देश के सकल घरेलू उत्पाद में 27 फीसदी का योगदान करते हैं और रोजगार में उनका योगदान 1.1 करोड़ का है। बहरहाल, थोड़ा गहराई में जाएं तो एक अलग तस्वीर उभरती है। एमएसएमई भारत के नियामकीय ढांचे की अदृश्य बाधाओं के एक लक्षण का प्रदर्शन करता है। इनमें से 85 फीसदी 10 वर्ष से अधिक पुराने हैं लेकिन अभी भी उनमें कर्मचारियों की संख्या 100 से कम है। यानी अर्थव्यवस्था में उनका योगदान बहुत अधिक नहीं है। दोनों में से कौन सा कथानक सही है? ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों सही हैं। हमारे यहां बड़ी तादाद में एमएसएमई हैं लेकिन वे फलने-फूलने के लिए संघर्ष कर रही हैं क्योंकि छोटे पैमाने पर होने के कारण उनके सामने कई चुनौतियां हैं। जब भी वे बड़े पैमाने पर काम करने का प्रयास करते हैं तो नियामकीय बाधाएं राह रोक लेती हैं। हम उन्हें दुनिया में अग्रणी कैसे बना सकते हैं?

सबसे पहले हमें समझना होगा कि एमएसएमई के लिए सबसे बड़ा अवसर कहां है और कौन सी बात उन्हें उस अवसर का लाभ लेने से रोक रही है? कुछ उद्योग एमएसएमई के लिए स्वाभाविक तौर पर उचित प्रतीत होते हैं, मसलन वे उद्योग जहां बहुत अधिक श्रम लगता है और निवेश की आवश्यकता कम होती है। उदाहरण के लिए लकड़ी से बनने वाले उत्पाद, आयुर्वेद और हर्बल सप्लीमेंट, खिलौने, हथकरघा वस्त्र, हस्तकला, चमड़े के उत्पाद और आभूषण आदि। बहरहाल इन उद्योगों के लिए भारत का घरेलू बाजार वैश्विक बाजार के केवल दो फीसदी के बराबर है।उदाहरण के लिए ​खिलौनों के भारतीय बाजार का आकार एक अरब डॉलर के करीब है जबकि वैश्विक बाजार 300 अरब डॉलर का है। रेडीमेड वस्त्रों का भारतीय बाजार करीब 55 अरब डॉलर का है जबकि वैश्विक बाजार एक लाख करोड़ डॉलर का है।

दुनिया में अपनी सही जगह हासिल करने के लिए हमें वैश्विक व्यापार में कम से कम 10 फीसदी हिस्सेदारी का लक्ष्य रखना चाहिए। दुनिया की कुल श्रम योग्य आबादी का 20 फीसदी हमारे देश में है।

आज वैश्विक वस्तु निर्यात में भारत दो फीसदी का हिस्सेदार है। अगर हम सरकारी पोर्टल के आंकड़ों के हिसाब से देखें तो भारतीय निर्यात में एमएसएमई की हिस्सेदारी 6 फीसदी है। इनमें एक फीसदी से भी कम एमएसएमई निर्यात से जुड़े हैं। आश्चर्य नहीं कि एमएसएमई क्षेत्र में काम कर रहे 11 करोड़ लोग संघर्षरत हैं।

छोटे पैमाने पर काम करने के कारण निर्यात की उनकी क्षमता प्रभावित हुई है। किसी छोटे उपक्रम के लिए विदेश में ग्राहक तलाश करना ही मुश्किल है। उसके बाद लॉजिस्टिक्स, वित्तीय तथा अनुपालन की जटिलताएं भी वस्तु निर्यात की राह को बाधित करती हैं। इस दौरान कारोबार के संचालन की समस्या तो रहती ही है। अगर बड़े पैमाने पर काम की सुरक्षा नहीं मिली तो सफलता मिलना मुश्किल है। ऐसे में अधिकांश निर्यातक बड़ी कंपनियां हैं।

बहरहाल ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्मों के उभार का अर्थ यह है कि अब हम उस दुनिया में नहीं हैं। ये प्लेटफॉर्म ग्राहकों वाले छोटे कारोबारों की बराबरी कर सकते हैं और लॉजिस्टिक्स और अनुपालन के मोर्चे पर भी बेहतर हैं। जबकि एमएसएमई का ध्यान अपने काम को बेहतर तरीके से करने पर है। ऐसा करने से एमएसएमई सही मायनों में विश्व स्तर पर प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं। बहरहाल भारत का मौजूदा ई-कॉमर्स निर्यात महज दो अरब डॉलर यानी कुल वस्तु निर्यात का 0.5 फीसदी है। तुलनात्मक रूप से देखे तो चीन अपने कुल निर्यात में आठ फीसदी ई-कॉमर्स के जरिये करता है। 2030 तक एक लाख करोड़ डॉलर के निर्यात लक्ष्य तक पहुंचने के लिए ई-कॉमर्स और एमएसएमई को 100 अरब डॉलर का योगदान करना होगा।

वहां तक पहुंचना आसान नहीं है लेकिन इस दिशा में चार कदम हैं- तीन सुधार और ए​क क्रियान्वयन संबंधी उपाय। इससे काफी मदद मिल सकती है। पहला, हमें निर्यातकों और उत्पाद मालिकों को अलग-अलग होने की इजाजत देनी होगी। फिलहाल ऐसा संभव नहीं है। ऐसा करने से एग्रीगेटर्स को छोटे कारोबारियों के साथ काम करने में आसानी होगी और वे उनकी ओर से बड़े पैमाने पर अनुपालन का काम भी संभाल सकेंगे।

दूसरा, हमें निर्यात के वित्तीय नियमन के नियम कायदों को सुसंगत बनाना होगा। मौजूदा नियम उस समय बनाए गए थे जब हम विदेशी विनिमय को लेकर चिंतित रहते थे और एक-एक डॉलर पर नियंत्रण रखना चाहते थे। आज हमारा देश सुरक्षित है। हम मुक्त व्यापार की दिशा में काफी आगे बढ़े हैं। इस दिशा में आगे बढ़ते हैं। ये नियम और व्यवस्थाएं एमएसएमई पर अनावश्यक बोझ डालती हैं। उनके हर लेनदेन पर अनुपालन का महंगा बोझ डालती हैं। इतना ही नहीं वे पहले ही देश से बाहर हो चुकी वस्तुओं की कीमत को सीमित करके भारतीय उत्पादकों को भी नुकसान पहुंचाती हैं। उदाहरण के लिए अमेरिका के किसी भंडारगृह में रखा कालीन मांग कम होने पर भी घोषित मूल्य के 75 फीसदी से नीचे और मांग अधिक होने पर 125 से अधिक कीमत पर ही बेचा जा सकता है।

तीसरा, हमें एक ई-कॉमर्स निर्यात के लिए एक ग्रीन चैनल बनाना होगा ताकि सीमा पर मंजूरी तेज की जा सके। चीन 2014 से ही इस रुख को लागू कर रहा है और परिणामस्वरूप उसे ई-कॉमर्स निर्यात में काफी सफलता मिली है। आखिर में, हमें ऐसे ट्रेड पोर्टल का इस्तेमाल करना होगा जहां निर्यात से जुड़ी सभी सूचनाएं एक स्थान पर और एकल सुसंगत व्यवस्था के अधीन हों। फिलहाल निर्यातक और खासकर एमएसएमई के पास सूचनाओं का कोई विश्वसनीय स्रोत नहीं है और अनुपालन प्रक्रिया के लिए उन्हें सरकार के साथ कई स्तरों पर बातचीत करनी होती है। जी20 बैठक के बाद एक पोर्टल बनाने की घोषणा की गई ताकि सूचनाओं को व्यवस्थित करने के लिए अनुपालन की सभी प्रक्रियाओं को पोर्टल पर एकजुट करना जरूरी है।

ये जरूरी सुधार अनुशंसाएं हैं जिनकी राजनीतिक अर्थव्यवस्था को कोई खास कीमत नहीं चुकानी है। इस समय जबकि हम व्यापक सुधारों की बाट जोह रहे हैं, हमें एकजुट होकर ऐसे उपाय अपनाने होंगे जो हमारे विशाल एमएसएमई क्षेत्र को लाभ पहुंचा सकें। वास्तविक चुनौती मानसिकता में बदलाव की है। सरकार को भारतीय उद्यमियों पर विश्वास करना होगा न कि उन्हें शंका की दृष्टि से देखा जाना चाहिए। बहरहाल, अगर हम यह बदलाव कर सके तो ये सुधार एमएसएमई क्षेत्र के लिए बड़ा बदलाव लाने वाले साबित हो सकते हैं।


Date:23-09-23

बचत पर संकट

संपादकीय

किसी देश की अर्थव्यवस्था इस पैमाने पर भी आंकी जाती है कि उसकी घरेलू बचत, प्रति व्यक्ति आय और क्रयशक्ति की स्थिति क्या है। मगर हमारे यहां घरेलू बचत लगातार गिरावट की ओर है। मौजूदा वित्तवर्ष में यह पिछले पांच दशक में सबसे निचले स्तर पर पहुंच गई है। भारतीय स्टेट बैंक की रपट के मुताबिक पिछले वित्तवर्ष में परिवारों की शुद्ध वित्तीय बचत में करीब पचपन फीसद की गिरावट आई और यह सकल घरेलू उत्पाद के 5.1 फीसद पर पहुंच गई। गौरतलब है कि वित्तवर्ष 2020-21 में यह जीडीपी के 11.5 फीसद पर थी, जबकि महामारी से पहले 2019-20 में यह आंकड़ा 7.6 फीसद था। वित्त मंत्रालय ने घरेलू बचत में गिरावट पर सफाई देते हुए कहा है कि लोग अब आवास और वाहन जैसी भौतिक संपत्तियों में अधिक निवेश कर रहे हैं। इसका असर घरेलू बचत पर पड़ा है। मंत्रालय ने भरोसा दिलाया है कि संकट जैसी कोई बात नहीं है। सरकार ने यह भी कहा है कि पिछले दो साल में परिवारों को दिए गए खुदरा ऋण का 55 फीसद आवास, शिक्षा और वाहन पर खर्च किया गया है।

परिवारों के स्तर पर वित्तवर्ष 2020-21 में 22.8 लाख करोड़ की शुद्ध वित्तीय परिसंपत्ति जोड़ी गई थी। 2021-22 में लगभग सत्रह लाख करोड़ और वित्तवर्ष 2022-23 में 13.8 लाख करोड़ रुपए की वित्तीय संपत्तियां बढ़ी हैं। इसका मतलब है कि लोगों ने एक साल पहले और उससे पहले के साल की तुलना में इस साल कम वित्तीय संपत्तियां जोड़ी हैं। सरकार के अनुसार ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि वे अब कर्ज लेकर घर और वाहन जैसी भौतिक संपत्तियां खरीद रहे हैं। आंकड़ों के मुताबिक पिछले दो साल में आवास और वाहन ऋण में दोहरे अंक में वृद्धि हुई है। अर्थशास्त्रियों का कहना है कि महामारी के बाद से लोग काफी सचेत हुए हैं। वे जोखिम वाले निवेश से बच रहे हैं। दूसरी बात, बचत खातों पर ब्याज दर बहुत आकर्षक नहीं है। ऐसे में लोग प्रतिभूतियों आदि में ज्यादा निवेश कर रहे हैं। यह भी घरेलू बचत कम होने का एक कारण है। एसबीआइ के मुख्य आर्थिक सलाहकार का भी कहना है कि शायद ब्याज दरें कम होने का विपरीत प्रभाव घरेलू बचत पर पड़ा है। आम लोगों का रुझान भौतिक संपत्तियों की तरफ बढ़ा है।

सरकार चाहे जो तर्क दे, पर घरेलू बचत का लगातार गिरना कोई अच्छा संकेत नहीं कहा जा सकता। घरेलू बचत सामान्य सरकारी वित्त और गैर- वित्तीय कंपनियों के लिए कोष जुटाने का सबसे महत्त्वपूर्ण जरिया होती है। देश की कुल बचत में महत्त्वपूर्ण हिस्सेदारी रखने वाली घरेलू बचत का लगातार गिरना निम्न और मध्यवर्ग ही नहीं, पूरी अर्थव्यवस्था के लिए चिंता की बात है। सरकार को मंदी के जोखिम से बचने के लिए राष्ट्रीय बचत दर को बेहतर रखना ही होगा। इसके पक्ष में अर्थशास्त्री स्पष्ट कहते हैं कि वर्ष 2008 की वैश्विक मंदी का असर भारत पर इसलिए भी कम पड़ा था कि भारतीयों की घरेलू बचत मजबूत स्थिति में थी। देश में घरेलू बचत घटने से ऐसे लोगों का आर्थिक प्रबंधन भी चरमरा रहा है, जो शादी-ब्याह, सामाजिक रीति- रिवाज, बच्चों की पढ़ाई-लिखाई और त्योहारों आदि पर खर्च के लिए अपनी छोटी बचतों पर ही निर्भर होते हैं। सरकार को आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा जरूरतों के परिप्रेक्ष्य में बचत योजनाओं पर ब्याज दरों में वृद्धि करनी चाहिए। इसमें कोई दो राय नहीं कि बचत प्रोत्साहन से देश की अर्थव्यवस्था को बल मिलेगा।


Date:23-09-23

पितृसत्ता पर करेगा चोट

डॉ. अपराजिता, ( लेखिका बी. डी. कॉलेज, पाटिलपुत्र यूनिर्वसटिी में राजनीति विज्ञान की असि. प्रोफेसर हैं )

हिंदू धर्म के अनुसार किसी भी काम की शुरुआत करने से पहले भगवान श्री गणेश का नाम लिया जाता है, और तभी वह काम सफल हो पता है। ऐसे में गणेश चतुर्थी के अवसर पर मंगलवार, 19 सितम्बर, 2023 को कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल द्वारा 128वां संविधान संशोधन ‘नारी शक्ति वंदन विधेयक, 2023’ का पेश करना मात्र संयोग नहीं माना जाएगा। नए संसद भवन में कामकाज के पहले दिन बहुप्रतीक्षित महिला आरक्षण बिल मोदी सरकार द्वारा लाया गया। न केवल लाया गया बल्कि दोनों सदनों से यह पास भी हो गया।

यह बिल लोक सभा और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत सीटों पर आरक्षण प्रदान करेगा, जिसके अंदर अनुसूचित जाति/जनजाति और एंग्लो इंडियन के लिए उप-आरक्षण की भी प्रस्ताव है। संसद में अपने संबोधन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा, ‘शायद भगवान ने इसके लिए मुझे चुना है।’ अब कुछ सवाल उठाए जा सकते हैं कि क्या यह पहल मोदी सरकार का 2024 लोक सभा चुनाव से पहले मास्टर स्ट्रोक मानी जाएगी? क्या यह कदम भाजपा को अगले चुनाव में फायदा पहुंचाएगा? क्या यह मोदी सरकार का महिला मतदाताओं को लुभाने के लिए राजनीतिक जुमला भर है? क्या इस बिल को लाने का श्रेय सिर्फ मोदी सरकार को जाता है? क्या इस बिल का असर चुनाव के नतीजों पर देखने को मिलेगा? क्या यह बिल संसद और विधानसभाओं की तस्वीर बदलने की ताकत रखता है? ऐसे कई सवाल हैं, जिनका उत्तर सिर्फ समय दे सकता है पर कुछ मुद्दों पर प्रकाश डालना जरूरी है, जो हम सबको इन सवालों के जवाबों तक ले जाने में मददगार साबित होंगे।

इस समय अगर दोनों सदनों, राज्य सभा और लोक सभा, में देखा जाए तो संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व सिर्फ 14 प्रतिशत है। यह बिल 27 साल पुराना है, और संसद में पहली बार देवेगौड़ा सरकार के समय पेश किया गया था। आखिरी बार 2010 में राज्य सभा में लाया गया पर लोक सभा में पारित न होने पर रद्द कर दिया गया था। सपा, राजद और बसपा जैसी पार्टयिों के विरोध की वजह से यह बिल कभी भी पारित नहीं हो पाया और रद्द कर दिया गया। इस प्रकार से राजनीतिक दलों की ऐसी विविध राय ने आरक्षण विधेयक की प्रक्रिया में हमेशा बाधा डाली है। हालांकि वर्तमान समय में इस बिल को लाने का श्रेय सरकार और विपक्ष, दोनों लेना चाहते हैं। कांग्रेस सांसद अधीर रंजन ने जब राजीव गांधी को बिल को संसद में लाने का श्रेय देना चाहा तो गृह मंत्री अमित शाह और कानून मंत्री अर्जुन मेघवाल ने इसे खारिज कर दिया। कांग्रेस के जयराम रमेश और सीपीएम की नेता वृंदा करात मोदी सरकार के इस कदम को चुनावी जुमला बता रहे हैं। उनका कहना है कि जनगणना और परिसीमन के प्रावधानों को इस बिल से जोड़ने का मतलब है कि यह बिल 2024 लोक सभा चुनाव से पहले लागू नहीं हो पाएगा। आम आदमी पार्टी इसे ‘बेवकूफ बनाओ’ बिल बता रही है। दूसरा पक्ष यह है कि मोदी सरकार की यह ऐतिहासिक उपलब्धि मानी जाएगी और नए सदन को इतिहास में दर्ज कराने में सफल साबित होगी।

सत्ताईस साल पुराना इस बिल, जो कई कारणों से पारित नहीं किया जा सका, को अगर मोदी सरकार लाने में सफल हुई है, तो सरकार की इस उपलब्धि को नकारा नहीं जा सकता। यह बिल महिलाओं को उनका अधिकार दिलाने में कारगर साबित हो सकता है। यह कदम मोदी सरकार की दूरदर्शिता का सबूत देता है। अगर इस बिल की महत्ता को देखा जाए तो यह देश की आधी आबादी के भविष्य को प्रभावित करता है। 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में महिलाओं की संख्या करीब 48.5 प्रतिशत है, जो पूरी जनसंख्या की करीब आधी है। देश में बेरोजगारी और बढ़ती महगाई की वजह से सत्ता विरोधी हवाएं चलने लगी हैं। ऐसे में इस बिल को लाना आधी आबादी को सुकून देने का काम करेगा और विरोधी भावनाओं को खत्म करने में मदद करेगा। मोदी सरकार का यह कदम महिलाओं को सशक्त करेगा और उनकी राजनीतिक भागीदारी को बढ़ाएगा। यकीनन यह बिल महिला वोटरों को लुभाने के लिए महत्त्वपूर्ण कदम है। अब सवाल उठता है कि महिला वोटरों को लुभाना क्यों जरूरी है? यहां पर कुछ आंकड़ों को देखना जरूरी है। मध्य प्रदेश का उदाहरण लिया जाए तो मध्य प्रदेश में कुल 5.39 करोड़ लोग मतदान करने की शक्ति का प्रयोग करते हैं, जिनमें 48.20 फीसद महिला मतदाता हैं। मध्य प्रदेश में 15 विधानसभा सीटों पर भी महिलाओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका और महत्त्व सामने आया है।

इन आंकड़ों से पता चलता है कि जिसको भी महिला समर्थन मिल जाए, उसकी जीत चुनाव में निश्चित हो जाती है। इसी तरह राजस्थान के बात करें तो 2013 और 2018 के विधानसभा चुनाव में महिलाओं की भागीदारी पुरुषों के मुकाबले ज्यादा देखने को मिलती है। राजस्थान के 2018 चुनाव में कांग्रेस और बीजेपी की जीत में सिर्फ पांच फीसदी अंतर रहा और इसमें महिला मतदाताओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। भारत में ऐसे 13 राज्य और केंद्रशासित प्रदेश हैं, जिनमें महिला मतदाताओं की संख्या पुरु ष मतदाताओं से ज्यादा देखी गई है जैसे अरु णाचल प्रदेश, आंध्र प्रदेश, बिहार, दमन एंड दीव, मिजोरम, मेघालय, गोवा, पुडुचेरी, केरल, तमिलनाडु इत्यादि। ये सारे राज्य लोक सभा की करीब 26 फीसद सीटों को दर्शाते हैं। बीजेपी ने काफी चतुराई से महिला वोटरों की ताकत को 2014 लोक सभा चुनाव के बाद ही समझ लिया था।

वोटिंग पैटर्न को देखा जाए तो पता चलता है कि भारत में महिला मतदाताओं की भागीदारी हर लोक सभा चुनाव के साथ बढ़ी है। 2004 में 22 फीसद, 2014 में 29 फीसद और 2019 में 36 फीसद महिलाओं ने मताधिकार का इस्तेमाल किया। इतिहास में पहली बार 2019 के लोक सभा चुनाव में महिला मतदाताओं की भागीदारी पुरु ष मतदाताओं की तुलना में 0.17 फीसद ज्यादा थी। बीजेपी ने महिला मतदाताओं की शक्ति को पहचान लिया और ऐसी विभिन्न योजनाओं को लेकर आई जिसका असर सीधा महिला आबादी पर पड़ता है। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि बीजेपी इस बिल को 2024 के इलेक्शन में नैरेटिव की तरह उपयोग कर सकती है, और 2029 में रियाइसी फल की तरह। ऐसा भी माना जा रहा है कि यह बिल बीजेपी सरकार के लिए राजनीतिक खाद की तरह काम करेगा। वक्त के साथ देखना दिलचस्प होगा कि महिला आरक्षण बिल किस तरह देश की आधी आबादी का भविष्य तय करता है।


Date:23-09-23

अपना हक मांग रही हैं महिलाएं, भीख नहीं

सुषमा स्वराज, ( सांसद व वरिष्ठ राजनेता, लोकसभा में दिए गए भाषण का अंश )

विधेयक तो यह संसद बहुत पारित करती है। हमारा काम ही बिल बनाना और पारित करना है, लेकिन कुछ विधेयक ऐसे होते हैं,जो मील के पत्थर बन जाते हैं। जो एक वर्ग विशेष के जीवन-दिशा को बदलकर रख देते हैं। …73वें और 74वें संशोधन ने महिलाओं के लिए क्रांतिकारी परिवर्तन किया, जिसमें नगर निगमों, नगरपालिकाओं, ग्राम पंचायतों में 33 फीसदी के आरक्षण की व्यवस्था की गई है और अब 81वां संशोधन विधेयक भी लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 फीसदी सीटों का आरक्षण कर रहा है। …मैं तहे दिल से इसका स्वागत करती हूं, लेकिन यह बिल अपने साथ एक प्रश्न लेकर आया है। वह प्रश्न यह है कि आखिर इस आरक्षण की जरूरत क्यों पड़ी?

…हमारा देश उन अग्रणी देशों में है, जहां पुरुषों के साथ बराबर का मत देने का अधिकार संविधान के समय से मिला हुआ है। भारत उन अग्रणी देशों में से है, जहां महिला शासन के सर्वोच्च शिखर पर आसीन हुई। एक-दो वर्ष के लिए नहीं, बल्कि 11 वर्ष तक उन्होंने शासन संभाला है, लेकिन यह दुर्भाग्य की बात है कि एक तरफ महिला प्रधानमंत्री रहीं, पर दूसरी तरफ, आम महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी नगण्य रही। …इसकी जिम्मेदारी आखिर किस पर है? अगर मैं बिना हिचकिचाहट के कहना चाहूं, तो इसकी जिम्मेदारी केवल पुरुष वर्चस्व मानसिकता पर है। …यदि पुरुषों ने महिलाओं को उनका न्यायोचित अधिकार वैसे दे दिया होता, तो आज इस आरक्षण की आवश्यकता नहीं पड़ती, लेकिन दुर्भाग्य और शर्म की बात है कि आजादी के बाद से आज तक महिलाओं के राजनीतिक प्रतिनिधित्व में उत्तरोत्तर कमी आई है। … 543 सदस्यों का यह सदन और 36 महिला सांसद? प्रतिशत निकालिए, साढ़े छह फीसदी की भागीदारी बनती है। …क्या यह दुख की बात नहीं है, क्या यह शर्म की बात नहीं है? क्या मैं पूछ सकती हूं कि नेतृत्व क्षमता केवल पुरुषों की बपौती है? क्या राजसत्ता पर एकाधिकार केवल पुरुष का है?… हर राजनीतिक दल में पुरुष वर्चस्व मानसिकता है, इसीलिए आज आरक्षण की मांग करने की जरूरत पड़ी। …हम रहमो-करम की भीख नहीं मांग रहे हैं।

… ईश्वर ने सिंह जैसा प्राणी बनाया, जो जंगल का राजा कहलाया, लेकिन रोज का शिकार सिंहनी करती है, अपने शावकों को शिकार का प्रशिक्षण भी सिंहनी देती है और ईश्वर ने उसके माध्यम से यह दिखा दिया कि मादा नर से कमजोर नहीं है, शारीरिक रूप से भी कमजोर नहीं है। …झुंड में चलते हुए हाथियों का नेतृत्व कभी हाथी नहीं करता, हमेशा बूढ़ी हथिनी करती है। ईश्वर ने उसे नेतृत्व की क्षमता दी है। …मादा न शारीरिक रूप से कमजोर है, न नेतृत्व की क्षमता से विहीन है, लेकिन उनके नर उन पर अंकुश नहीं लगा सके, इसलिए वह प्रकृति प्रदत्त गुण के अनुसार आचरण करती है और हमारे यहां कहा जाता है, तुम शारीरिक रूप से कमजोर हो, तुम मानसिक रूप से कमजोर हो।

…हिंदू दर्शन में तो जब देवताओं ने भी अपने विभाग बांटे, तो उन्होंने अपने प्रशासन को चलाने के लिए सारे मुख्य विभाग देवियों को दिए। …देवताओं ने अपने विभागों का वितरण करते हुए शिक्षा सरस्वती को दी, वित्त लक्ष्मी को दिया और रक्षा दुर्गा को दी। …यह हमारी सोच की ही विकृति का परिणाम है कि आज हमको अपना हक भी मांगना पड़ रहा है और मुझे तो इस समय जो सदन का दृश्य दिखाई दे रहा है, उससे लगता है कि पता नहीं, आपके इतने उत्साहपूर्ण योगदान के बाद भी यह बिल पास हो सकेगा या नहीं, क्योंकि यह संविधान संशोधन विधेयक है, इसके लिए 50 फीसदी उपस्थिति चाहिए…। 50 फीसदी की उपस्थिति मुझे अभी दिखाई नहीं दे रही और जिस तरह की चर्चा मैंने सेंट्रल हॉल और लॉबी में सुनी है, अगर वह सच है, तो यह साजिश की गई है कि 50 फीसदी उपस्थिति न हो।

…मैं चुनौती देकर कहती हूं, आज जो महिलाएं नगरपालिका अध्यक्ष बनी हुई हैं, जो नगर निगमों की मेयर बनी हुई हैं, आप सर्वे कराकर देखिए, वे पुरुषों से ज्यादा प्रभावी काम कर रही हैं और मैं आपको बता सकती हूं कि कहीं-कहीं वे विकास का पर्याय बन गई हैं। …लाखों महिलाएं जीतकर आई हैं। उसी चरण को आगे बढ़ाते हुए यदि यह विधेयक पास होता है, तो एक तिहाई महिलाएं संसद की शोभा बढ़ाएंगी और राज्यों की विधानसभाओं में चुनकर जाएंगी।


Date:23-09-23

आरक्षण के लिए इतना तेज दौड़ना ठीक नहीं

जॉर्ज फर्नांडिस, ( सांसद व वरिष्ठ राजनेता, लोकसभा में दिए गए भाषण का अंश )

कल जब यह विधेयक प्रस्तुत किया गया, तो सुना है कि प्रधानमंत्री जी ने स्वयं कल इसे प्रस्तुत किया। अब पता नहीं कि उनके नाम पर ऑर्डर पेपर लिखा हुआ था या कानून मंत्री के नाम पर लिखा हुआ था, क्योंकि विधि मंत्री जी की तरफ से ही बिल पेश होना चाहिए था। अब अगर प्रधानमंत्री जी ने बहुत उत्साहित होकर कानून मंत्री जी की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली, तो मुझे इस पर कुछ नहीं कहना है। हम यह मानते हैं कि यह जो यहां पर विधेयक आया है, यह एक ऐतिहासिक विधेयक है। इस विधेयक पर सदन में गंभीरतापूर्वक बहस होनी चाहिए थी। इसलिए नहीं कि इस सदन में इस विधेयक के बारे में किसी भी दल की कोई अलग राय है। हर दल के घोषणापत्र में किसी न किसी रूप में यह कल्पना व्यक्त हो चुकी है, पर घोषणापत्रों में यह चीज छपकर आना एक बात है और पार्टियों की तरफ से अपनी-अपनी राय पूरे विस्तार में सदन में दर्ज होना, अलग चीज है।

महोदय, मैंने कहा कि यह एक ऐतिहासिक विधेयक है और ऐतिहासिक विधेयक का यह मतलब नहीं कि इस सदन में यह विधेयक इस क्षण अगर पास न होता हो, तो फिर इतिहास को यहां खत्म ही हो जाना है…। अब इस विधेयक में देखिए, आप बार-बार 81वां संशोधन कह रहे हैं और इसमें भी 81वां संशोधन ही लिखा है। …81वां के स्थान पर 79वां प्रतिस्थापित किया जाए। …यानी कौन सा संशोधन है, यह भी इनकी कैबिनेट को मालूम नहीं था, जब प्रधानमंत्री जी यहां पर खड़े होकर पढ़ने लगे। …इस सदन के साथ इस प्रकार का मजाक नहीं होना चाहिए।…

मैं समझता हूं कि इतनी तेजी से प्रधानमंत्री को दौड़ना नहीं चाहिए कि तीन-चार सांविधानिक संशोधनों को छोड़कर आप सीधे 81वें पर पहुंच जाएं। आप कहें कि हम बहुत जल्दी में हैं, क्योंकि समय हमारे पास बहुत कम है। अध्यक्ष जी, हम इस मुद्दे को इसलिए उठा रहे हैं, क्योंकि इसमें मुझे एक प्रकार की लापरवाही दिखाई दे रही है, इसमें मुझे किसी प्रकार की गंभीरता दिखाई नहीं दे रही है। आप कहें कि इस बिल को पास करना है, जल्दी करो, हाउस एडजोर्न हो रहा है, तत्काल पास करो और फिर उत्तर प्रदेश में जाकर कहो कि हम महिलाओं को रिजर्वेशन देने का कानून बनाकर आए हैं, महिलाओं को सब कुछ दे रहे हैं। मगर इसमें कितना झूठ है, वह इसी बिल से मालूम होता है। …यह वर्तमान लोकसभा या विधानसभा में लोक प्रतिनिधित्व को प्रभावित नहीं करेगा। …इसका मतलब यह हुआ कि पांच साल तक आप महिलाओं को इस सदन में आने देना नहीं चाहते। …इतनी जल्दी किसलिए है? उत्तर प्रदेश के लिए?

…आपके सारे समर्थक और आपके साथ जुड़ी हुई 13 पार्टियां कह रही हैं कि पांच साल हमारी सरकार चलनी है, इसलिए हम नहीं समझ पा रहे कि यह जल्दबाजी का आग्रह किसलिए है? अगर यह आज शाम 5 बजे तक पास नहीं होता है, तो आसमान टूटने वाला है, इतनी जल्दी किसलिए? यह आपका तरीका क्या है? … हम चाहते हैं कि इस विधेयक पर गंभीरतापूर्वक सदन में बहस होनी चाहिए। मेरी समझ में नहीं आता कि इस सदन में जितने भी राजनीतिक दलों के लोग बैठे हैं, वे इस बहस से क्यों भाग रहे हैं? यह एक ऐतिहासिक कदम है। महिलाओं को इस देश में कितने साल इसके लिए लड़ना पड़ा और केवल महिलाएं ही नहीं लड़ीं। राजनीतिक दल इन चीजों पर अपने-अपने ढंग से प्रयास करते रहे, लेकिन सत्ता में बैठे लोगों में इस चीज के बारे में जो भी सोच रही, उसके चलते ऐसा विधेयक आने में देर हुई है। इस विधेयक को सत्र के अंतिम दिन पारित करके हम दुनिया को नहीं बता पाएंगे कि हिन्दुस्तान की महिलाओं को ऐसे विधेयक का निर्माण करने के लिए लड़ाई लड़नी पड़ी है।…

यह इतिहास बनाने वाला कानून है…। आज से बीस साल बाद हममें से बहुत लोग इस दुनिया में भी नहीं रहेंगे, लेकिन किसी दिन हिन्दुस्तान की महिला मुक्ति के आंदोलन का इतिहास लिखने के लिए जब कोई खड़ा होगा, तो वह इस सदन की तरफ भी देखेगा और इस सदन में इस मसले को पारित करते हुए सदस्यों ने क्या-क्या सोचा था, क्या-क्या कहा था, … ये सारी चीजें, हम चाहते हैं कि इस सदन के रिकॉर्ड में दर्ज होनी चाहिए…। विधेयक पास होना चाहिए, पर जिस तरह प्रधानमंत्री चाहते हैं और जिस नीयत से चाहते हैं, उस नीयत से नहीं। …इस विधेयक की बहस को समाप्त किया जाए और नए सिरे से विधेयक को सदन में लाने के लिए सरकारी पक्ष को कहा जाए।


Date:23-09-23

इतने नद और नदियां हैं, पर कितनी उनकी इज्जत है

दिनेश मिश्र, ( जल विशेषज्ञ )

सितंबर माह का चौथा रविवार नदियों को समर्पित है। इस दिन विश्व नदी दिवस मनाया जाता है। विश्वस्य मातर: सर्वा: का संदेश देते हुए महाभारत में एक श्लोक है, जो युधिष्ठिर को संबोधित है। इसका अर्थ है, यहां सभी नदियां संपूर्ण विश्व की माताएं हैं और वे सब की सब पुण्य फल देने वाली हैं, यानी हमारे देश में नदियों को माता कहने की परंपरा इतनी पुरानी तो है ही। वाल्मीकि रामायण में भी भगवान राम ने 23 बार सरयू को प्रणाम किया है।

भारत में नदियां केवल माता के रूप में प्रकट नहीं हुई हैं, वे पिता और बाबा भी हैं। ब्रह्मपुत्र और सोनभद्र विराट स्वरूप वाले नद हैं, तो अजय, दामोदर आदि छोटे नद हैं। गर्व की बात है कि हमारे पास बड़ी संख्या में नदी और नद मौजूद हैं, मगर हम उनकी कितनी इज्जत करते हैं?

नदियों की व्याख्या हमारे पूर्वजों ने बडे़ मनोयोग से की है। तालाबों या बडे़ सरोवरों से निकलने वाली नदियों को उन्होंने सरोजा कहा, तो पहाड़ों से आने वाली नदियों को गिरिजा। इसी तरह, कई धाराओं में बहने वाली नदियां मुक्त-वेणी कही गईं, जो महिलाओं की मुक्त केशराशि (खुले बालों) की ओर इशारा करती हैं। यदि नदी अपनी धारा नहीं बदलती और एक चुने हुए रास्ते पर ही बहती है, तो उसकी तुलना सुघर चोटी से करते हुए बद्ध-वेणी कहा गया। इसी तरह, अस्थिर, धारा बदलने वाली तथा उछल-कूद मचाने वाली चंचला नदियों को कन्या अथवा अविवाहिता माना गया। बिहार की कोसी भी कन्या नदी है, जो पिछले दो-ढाई सौ वर्षों में करीब 120 किलोमीटर पश्चिम खिसक आई है। जो नदियां अपार जलराशि के आ जाने पर भी धीर-गंभीर भाव से अपने रास्ते पर चलती रहती हैं, उनको विवाहित माना गया, उदाहरण के लिए गंगा। आधे रास्ते चलकर गायब हो जाने वाली नदियों को मध्ये-गुप्ता कहा गया, जैसे सरस्वती। कुछ नदियां भुतही भी होती हैं, जिनकी विशेषता होती है कि वे किसी क्षेत्र पर भूत की तरह हमला करती हैं और इसके पहले कि लोग अपनी सुरक्षा का कुछ इंतजाम कर लें, वे गायब हो जाती हैं। बिहार की भुतही-बलान इसी श्रेणी की नदी है।

नदियां प्रकृति का अंग होने के नाते ईश्वर की कृति हैं। उनके साथ छेड़छाड़ करने से पहले हमें यह देख लेना चाहिए कि हमारा मुकाबला किससे है। नदियों से हमारा व्यवहार मातृवत होना चाहिए, तभी वे कल्याणकारी होंगी। हमारी समस्या यह है कि माता के स्थान पर हमने उनको संसाधन बना दिया, जिससे उनके दोहन की प्रवृत्ति बढ़ी, जबकि उनसे हमारी आस्था जुड़ी हुई है। हमारा कोई भी मांगलिक कार्य नदियों के आह्वान से शुरू होता है, जिसमें गंगा, यमुना, गोदावरी, सरस्वती, नर्मदा, सिंधु, कावेरी का नाम लिया जाता है।

क्या कभी हमने सोचा है कि गंगा दशहरा, छठ, भाई-दूज, मकर संक्रांति अथवा ग्रहण के समय आज भी लोग नदी की ओर बिना किसी निमंत्रण या आयोजन के खिंचे चले आते हैं? इस स्वत:स्फूर्त ऊर्जा का उपयोग क्या हम थोड़े से प्रयास से नदी या यूं कहें कि जल-स्रोत के संरक्षण की ओर मोड़ नहीं सकते? नदियां या ऐसे जल-स्रोत समाप्त हो जाएं, तो ये उत्सव भी समाप्त हो जाएंगे। हमारी नदी-केंद्रित संस्कृति व कृषि का क्या होगा? यह कल्पना ही भयानक है। समय रहते अगर हम नहीं चेतते हैं, तो हमें गंभीर परिणाम भुगतने की तैयारी करके रखनी होगी।

बेलगाम शहरीकरण ने नदियों सेे उनके क्षेत्र छीनकर उन्हें सिकुड़ने को बाध्य कर दिया है। और, जब नदियां बदला लेती हैं, तब कोई युक्ति काम नहीं आती। ऐसा हमने इस साल कई राज्यों में देखा है। आशा है, हमारे योजनाकारों को यह बात समझ में आ जाएगी।

नदियों के प्रवाह को अक्षुण्ण और कल्याणकारी बनाए रखने के लिए यह लोक शिक्षण अत्यंत आवश्यक है कि नदियों को प्रदूषित होने से बचाया जाए। यह काम समाज के हर तबके को समझना और करना पड़ेगा कि नदियां परोपकार के लिए बहती हैं और इस काम में बाधा डालना गलत है। अब जरूरी हो गया है कि विपरीत आचरण करने वाले लोगों से सख्त कानून के माध्यम से निपटा जाए। यह मामला केवल लाभ-लागत अनुपात का नहीं है। योजनाएं बनती हैं, तो उसके फलाफल पर भी नजर होनी चाहिए और उसके कथित उद्देश्यों की पूर्ति की जिम्मेवारी भी तय होनी चाहिए। शिक्षण की जरूरत व्यवस्था को भी है। कहीं न कहीं से इसकी सार्थक शुरुआत करनी ही पड़ेगी और यह जितना जल्दी हो, उतना ही बेहतर होगा।


 

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