14-06-2023 (Important News Clippings)
To Download Click Here.
Date:14-06-23
Data And Us
CERT-In’s CoWin report should be made public. Credibility key for India’s impressive digital infra
TOI Editorials
Personal data from the CoWin portal, repository of information on Covid-19 vaccine beneficiaries, was alleged to have been illegally accessed. Media reports said a bot (a software programme that performs repetitive tasks) was displaying personal information. The bot is now inactive and GOI has said CoWin’s safe. It also asked its emergency response unit CERT-In to look into the issue and submit a report. It’s the right move. Separately, Rajeev Chandrasekhar, minister of state in the electronics and IT ministry, made two points on social media.
One, it doesn’t appear that CoWin has been directly breached. Two, the data accessed by the bot seems to have been populated by previously stolen data. To unpack these developments, let us consider a unique aspect of digital data. It can be used concurrently by both the legitimate owner and someone who has unauthorised access to it. Data theft merely requires illegal duplication. These events also need to be placed in the context of India’s ongoing effort to build digital public goods (DPGs) in the health sector, modelled on the lines of Aadhaar and UPI.
Health DPGs such as Ayushman Bharat Digital Mission aim to create an online platform to facilitate interoperability of health data. Another DPG, Unified Healthcare Interface, aims to allow healthcare service providers to interact. CoWin was repurposed to boost UHI. While we wait for CERT-In to submit its report, it’s worth keeping in mind that India’s ambitious and potentially transformative DPGs in the healthcare sector need to learn from the success on the payments side. UPI’s success has a lot to do with credibility. It’s the most precious resource in building DPGs because it requires users to have implicit trust in a platform’s safety.
India’s DPG architecture is designed as a federated system which allows interoperability between autonomous units. It confers many benefits but like all systems it’s vulnerable to breaches. In the interest of systemic stability, it’s important that CERT-In’s findings be placed in the public domain. Confidence building is also necessary because as the next step GOI wants transition to India Digital Ecosystem Architecture 2. 0. For citizens, a benefit of this system is that they can optimise on digital IDs. For that to happen, they need to feel more confident. One way to bring that about is to introduce a robust personal data protection law.
पुराने को ही प्यार करेंगे तो नए और इनोवेटिव कैसे बनेंगे?
चेतन भगत, ( अंग्रेजी के उपन्यासकार )
हाल में ओपनएआई के को-फाउंडर और चैटजीपीटी के रचयिता सैम आल्टमैन भारत आए थे। यहां उनसे पूछा गया कि इस बात की क्या सम्भावनाएं हैं कि कोई भारतीय स्टार्टअप अपना एआई आधारित प्लेटफॉर्म एक करोड़ डॉलर की पूंजी से स्थापित करे? सैम ने साफ शब्दों में कहा कि बेहतर होगा अगर आप लोग इस दिशा में कोशिशें न करें। सैम की टिप्पणी पर हंगामा हुआ और इस आशय के लेख प्रकाशित किए गए कि सैम का कहना है भारतीय कम्पनियों को एआई के क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा की कोशिश भी नहीं करना चाहिए। हम भारतीयों को अपने पर बहुत गर्व है, लेकिन हमारी भावनाएं भी कुछ ज्यादा ही जल्दी आहत हो जाती हैं। इसके बाद अनेक टेक कम्पनियों के सीईओ और सीनियर कर्मचारियों ने ट्विटर और लिंक्डइन पर इस आशय की पोस्ट लगाईं कि वे चैलेंज एक्सेप्ट करते हैं और दिखा देना चाहते हैं कि हम यह कर सकते हैं। बाद में सैम ने स्पष्ट किया कि वो ये कहना चाह रहे थे कि आप एक करोड़ डॉलर की छोटी पूंजी लेकर प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते।
सैम की टिप्पणी ने हमारी दुखती रग जरूर छेड़ दी है। हम अपनी मल्टी-बिलियन डॉलर की सॉफ्टवेयर सर्विस इंडस्ट्री और हमारे उद्यमियों के बारे में चाहे जो सोचें, एक बात पर कम ही चर्चा की जाती है और वो यह कि हम इनोवेशन नहीं कर पाते हैं। इसका यह मतलब नहीं कि भारतीय कम्पनियों में गुणवत्ता नहीं है। सेल्स और टर्नओवर के मामले में हम बड़े ब्रांड बना सकते हैं और नई ऊंचाइयों को छू सकते हैं। भारतीय फाउंडर्स और प्रमोटर्स की गिनती दुनिया के सबसे अमीर लोगों की सूची में की जा सकती है और भारतीय कर्मचारी भी बहुत मेहनती होते हैं। इसके बावजूद हमें इस कड़वी सच्चाई को स्वीकारना होगा, जिसकी तरफ सैम एक इशारा कर गए हैं- हम इनोवेशन में प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते। बहुत सारी भारतीय कम्पनियों के सीईओ इनोवेशन के बारे में लम्बी स्पीच देना जानते हैं। लेकिन अगर आप कर्मचारियों से पूछें तो वो आपको बताएंगे कि भारत में सामान्यतया इनोवेशन को हतोत्साहित किया जाता है।
ऐसा क्यों है? पांच बिंदुओं से समझें :
1. इनोवेशन कहीं से भी आ सकता है, जबकि भारतीय संस्कृति बड़ों-बुजुर्गों के प्रति आदर-सम्मान के इर्द-गिर्द निर्मित की गई है। हमारे यहां नए विचारों से ज्यादा महत्व वर्षों के अनुभव को दिया जाता है। घर पर मां-पिता से सवाल पूछना ठीक नहीं समझा जाता और कम्पनियों में बॉस से। जूनियर के पास बेहतर विचार हों तो भारतीय बॉस असुरक्षित महसूस करने लगते हैं। देर-सबेर जूनियर्स भी समझ जाते हैं कि ज्यादा इनोवेटिव होना ठीक नहीं।
2. एक समाज के रूप में भी हम अतीत की विरासत, पुरातन ग्रंथों में निहित ज्ञान, प्राचीन संतों की वाणी आदि को महत्व देते हैं। हम यह मानकर चलते हैं कि जो पुराना है, वह बेहतर होगा। जबकि अगर हम नए को बुरा समझेंगे तो एक इनोवेटिव समाज कैसे बना सकेंगे?
3. भारतीय ज्यादा वैज्ञानिक सोच रखना पसंद नहीं करते, जबकि इनोवेशन के लिए जरूरी है हर चीज पर प्रश्न उठाने वाली मानसिकता। हम नए विज्ञान को लेकर संशय से भरे रहते हैं, अलबत्ता हमें उसके लाभ उठाने से ऐतराज नहीं, जैसे कि स्मार्टफोन या आधुनिक चिकित्सा। हम अपने बच्चों को विज्ञान की पढ़ाई के लिए प्रोत्साहित जरूर करते हैं, लेकिन केवल इसलिए ताकि वे अच्छी नौकरियां पा सकें। लेकिन एक समाज के रूप में हमारी साइंटिफिक होने में कोई रुचि नहीं, क्योंकि ‘हमारी प्राचीन संस्कृति को पहले ही सबकुछ पता था’ और ‘पश्चिमी विज्ञान के पास वैसे भी सारे उत्तर नहीं हैं।’
4. जब कॉपी-पेस्ट कर सकते हों तो इनोवेट क्यों करें? स्टार्टअप फंडिंग अधिकतर ऐसी कम्पनियों को जाती है, जो किसी सफल पश्चिमी स्टार्टअप का क्लोन हों। किसी ऐसे स्टार्टअप के लिए पैसा जुटाना सरल है, जो अपने जैसी किसी पश्चिमी कम्पनी की सफलता का हवाला दे सके। हम चाहते हैं कि कॉपी-पेस्ट वेंचर्स में पूंजी लगाएं। हम किसी अमेरिकी टेक कम्पनी की सफलतापूर्वक नकल करने को ही अपनी उपलब्धि मान बैठते हैं।
5. हम स्वतंत्र देश जरूर हैं, लेकिन क्या हम तमाम प्रकार के विचारों को अनुमति देते हैं? इनोवेटिव समाज तो वे ही होते हैं, जो वैचारिक रूप से स्वतंत्र समाज हों। इनोवेटिव बनने के लिए माइंडसेट-शिफ्ट, इगो-शिफ्ट, कल्चरल-शिफ्ट आदि की जरूरत होगी। यह एक लम्बी यात्रा है, पर इसकी शुरुआत इसी से करें कि कम से कम सैम की बातों से हर्ट न हो जाएं। हम पुराने और अतीत से जितना प्यार करते हैं, नए और भविष्य से भी उतना ही प्यार करना हमारे लिए जरूरी है।
Date:14-06-23
डिजिटल जोखिम
संपादकीय
कोविन डेटाबेस से कथित तौर पर डेटा का लीक होना इस बात का एक और संकेत है कि देश के डिजिटल सार्वजनिक बुनियादी ढांचे में कमजोरी बरकरार है। यह इस बात की ओर भी इशारा है कि हमें नागरिकों के व्यक्तिगत डेटा के संरक्षण के लिए तकनीकी-विधिक रुख में सुधार करना होगा। सरकार के मुताबिक एक टेलीग्राम बॉट के माध्यम से वितरित की जा रही सूचनाएं पूर्व में हुए डेटा लीक से निकली हो सकती हैं। ऐसे में चिंता इस एक लीक से कहीं अधिक व्यापक है और नुकसान कहीं अधिक हो सकता है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निजता को मूल अधिकार घोषित किए छह वर्ष बीत चुके हैं जबकि सेवानिवृत्त न्यायाधीश बी एन कृष्णा की अध्यक्षता वाली समिति द्वारा व्यक्तिगत डेटा संरक्षण के विधान का पहला मसौदा तैयार किए हुए भी पांच वर्ष का समय बीत चुका है। परंतु इस क्षेत्र में नीतिगत निर्वात बना हुआ है क्योंकि देश में अभी भी डेटा संरक्षण और निजता को लेकर कानून नहीं है। हमारे यहां साइबर सुरक्षा को लेकर भी कोई कानून नहीं है।
ऐसी घटनाएं भविष्य में भी होती रहेंगी क्योंकि सरकारी नीति डिजिटलीकरण को तो बढ़ावा दे रही है लेकिन डिजिटल सेवाओं का इस्तेमाल कर रहे नागरिकों की रक्षा के लिए कानूनी प्रावधान अनुपस्थित हैं। डिजिटल इंडिया नीति विविध सेवाओं को लक्ष्य बनाती है जिसमें डिजिटल माध्यम से दी जाने वाली सरकारी और निजी क्षेत्र की सेवाएं शामिल हैं। डिजिटल भुगतानों के माध्यम से नकदी के कम से कम इस्तेमाल वाली कैशलेस अर्थव्यवस्था तैयार करने पर भी जोर है। यह काफी हद तक आधार पर निर्भर है जिसकी मदद से उपयोगकर्ता की पहचान की जाती है। ग्राहक को जानने पर भी यह निर्भर है। देश में 70 करोड़ से अधिक लोग स्मार्टफोन इस्तेमाल करते हैं और सरकारी तथा निजी सेवाओं के डिजिटल इस्तेमाल की व्यवस्था इन्हीं इंटरफेस पर आधारित है। इन उपयोगकर्ताओं में से कई तकनीक को लेकर उतने सक्षम नहीं हैं। ऐसे में विभिन्न सेवाओं के तहत डेटा की सुरक्षा अलग-अलग हो सकती है।
बीते दो वर्षों में भारतीय संस्थानों की फाइलों को बाधित करके फिरौती मांगने वाले रैनसमवेयर के हमलों में तेजी आई है। ऐसा ताजा हमला अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान पर हुआ था। रेलवे टिकट डेटाबेस से भी लीक हो चुका है। क्रेडिट कार्ड डेटाबेस से भी जानकारी लीक हो चुकी है। सेवाप्रदाताओं की संख्या और डिजिटल सेवाओं का इस्तेमाल करने वाले लोगों की तादाद बढ़ने के साथ ही डेटा लीक की घटनाएं भी बढ़ेंगी। बार-बार जब लीक की ऐसी घटनाएं हुई हैं तो सरकार ने जोर देकर कहा कि आधार सुरक्षित है। यहां एक बात भुला दी जाती है कि आधार का इस्तेमाल कई सेवाओं के प्रमाणन के लिए होता है और जरूरी नहीं कि वे सभी सुरक्षित हों। अगर टेलीफोन नंबर, आधार नंबर, पता, बैंक खाता, क्रेडिट कार्ड का ब्योरा या लोगों के यूपीआई पते लीक होते हैं तो लोग उतने ही खतरे में होंगे जितना कि आधार से जानकारी लीक होने पर। इन लीक हुए डेटा के माध्यम से कई तरह के अपराध किए जा सकते हैं।
यह सही है कि डिजिटल इंडिया नीति सुविधा प्रदान करती है और उसने विविध सेवाओं को बहुत आसान बनाया है। कई कारोबार इनके सहारे चल रहे हैं। बैंकिंग, निवेश और बीमा कारोबार में सुदृढ़ीकरण आया है। कोविन और आरोग्य सेतु को इसी पर निर्मित किया गया है। बहरहाल, पूरी अर्थव्यवस्था और नागरिकों के व्यक्तिगत डेटा को बिना कानूनी समर्थन के तकनीक संचालित क्षेत्र के हवाले कर देना ठीक नहीं। नीति निर्माताओं को डेटा संरक्षण और साइबर सुरक्षा कानून लाने को प्राथमिकता देनी चाहिए। इसके साथ ही डेटा लीक की घटनाओं की जांच करके खामियों को दूर किया जाना चाहिए।
Date:14-06-23
विरासत का संरक्षण
संपादकीय
लोक सभा अध्यक्ष ओम बिरला ने विविधता को भारतीय मूल्यों का आधार बताया। उन्होंने कहा, हमें अपनी विरासत को संरक्षित करने के साथ ही विकास के नये आयाम स्थापित करने की भी जरूरत है । बिरला संसद भवन में संसदीय लोकतंत्र शोध व प्रशिक्षण संस्थान द्वारा आयोजित कार्यक्रम में विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूहों के सदस्यों को संबोधित कर रहे थे । बिरला ने प्रकृति, परंपरा व संस्कृति के ज्ञान की जनजातीय विरासत पर विचार रखे। उनका यह कहना कि प्राचीनकाल से ही वनवासियों ने प्रकृति के साथ तालमेल से रहने का अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया है, आधुनिक दुनिया को उनसे बहुत कुछ सीखना है, अपने समाज को याद दिलाने के लिए कोई नई बात नहीं है। हालांकि शहरी जीवन में लोग आधुनिक संसाधनों और सुविधाओं के इतने आदी हो चुके हैं कि उन्हें प्राकृतिक चीजों व माहौल का अहसास ही नहीं रहा। यह बात शहरों व महानगरों में रहने वालों पर ही नहीं लागू होती, बल्कि आदिवासी व पिछड़े इलाकों के वाशिंदों में भी इन चीजों के प्रति आकर्षण बढ़ता जा रहा है। अपने वक्तव्य में आदिवासियों की कला और शिल्प की मांग सारी दुनिया में होने की भी बात बिरला ने की। जैसा कि हम देखते हैं, विश्व बाजार हमारी कला व शिल्प के प्रति गजब का आकर्षण है। पर्यटकों को ये खूब आकर्षित करते हैं। अपने संबोधन में उन्होंने यह भी कहा कि देश के विभिन्न संस्थानों, निकायों व शासन को इन्हें सुदृढ़ करने में योगदान करना चाहिए। सच है कि सरकारों ने अपने विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से इन्हें बड़ा मंच देने के प्रयास किए हैं मगर अभी भी हमारी धरोहरों, कलाओं व लोककृतियों को संभालने की आवश्यकता है। स्थानीय लोग, जनजातियां, आदिवासियों ने पीढ़ियों से जो विरासतें संभाल रखी हैं, उन्हें दुनिया के समक्ष लाने के प्रयास जरूरी हैं। अभी भी इन लोगों के पास इतना कुछ है, जिसे विश्व पटल पर लाने की जरूरत है । कलाप्रेमियों का बड़ा वर्ग इस विरासत के प्रति विशेष लगाव रखता है। हालांकि अपने यहां सरकारी कार्यक्रमों की फेहरिस्त तो बनती जाती है, मगर असल जगह तक पहुंचते-पहुंचते दम तोड़ देती है । लालफीताशाही, सुस्ती, लापरवाही व अपनी जिम्मेदारियों के प्रति अरुचि रखने वालों के लिए यह सिर्फ फ़ाइलों में कागजों का अंबार लगाने व खानापूर्ति का काम रह जाता है। जरूरी है अपनी धरोहरों, कलाओं, संस्कृति व परंपराओं के प्रति लगाव व रुचि हो ताकि हम उनके संरक्षण के साथ गर्व भी कर सकें ।