10-02-2023 (Important News Clippings)
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Date:10-02-23
Sage stance
Price stability is a must for a durable economic recovery
Editorial
The Reserve Bank of India’s decision to raise its benchmark policy rate yet again, albeit by a smaller quarter percentage point, reflects a welcome resolve in staying committed to ensuring durable price stability. Given that the Monetary Policy Committee’s primary mandate is to steer retail inflation towards a 4% target, and that core price gains have stayed stuck above or almost at 6% for 20 months, the rate setting panel voted by a 4-2 majority to continue tightening policy. Governor Shaktikanta Das emphasised the significance of the MPC’s unwavering focus on inflation when he noted that medium-term growth prospects would be best strengthened by ‘keeping inflation expectations anchored and breaking the persistence of core inflation’. That inflation remains the key risk to the growth outlook, notwithstanding the easing in the headline print for retail price gains over November and December, was stressed by the MPC. The panel pointed to the deflation in vegetable prices in end 2022 and cautioned that this trend could likely dissipate as summer approaches and prices harden. Commodity prices are also expected to see upward pressure globally, given the lifting of most COVID-related restrictions, particularly in China. Specifically, the recent uptrend in Brent futures and the intensifying Ukraine conflict forebodes the possibility that oil costs may well upset the RBI’s assumption of an average price of $95 per barrel for India’s crude basket.
The MPC’s decision to raise rates by a marginally smaller 25 basis points (bps) this time following its December decision to temper the tightening to 35 bps after three straight half percentage point increases, shows it is cognisant of the growth-retarding challenges that rising credit costs could pose to the ongoing post-pandemic recovery. Still, the fact that the Indian economy has proved more resilient, underpinned by a rebound in domestic demand especially for contact-intensive services and discretionary spending, has provided a degree of comfort to monetary policymakers. This was manifest in their upgrades to the GDP growth forecasts for the first two quarters of the coming fiscal year. While the RBI raised its growth outlook for Q1 FY24 to 7.8%, a sizeable 70 bps up from its projection in December, it lifted its Q2 projection by 30 bps to 6.2%. Mr. Das’s unequivocal assertion that monetary policy must be “tailored to ensuring a durable disinflation” rightly echoes a recent blogpost by three IMF economists who warned that central banks need to stay resolute as any ‘premature loosening’ of policy risks a sharp resurgence in price gains that could leave countries susceptible to further shocks. Ultimately, price stability is and must remain the bedrock for a durable economic recovery.
विदेशी निवेशकों का भरोसा फिर से पाना चुनौती होगी
विराग गुप्ता, ( लेखक और वकील )
संसद में सियासी बयानबाजी, स्टॉक मार्केट में रिकवरी और लचर पीआईएल से अदाणी विवाद से जुड़े विस्फोटक मुद्दे दफन नहीं होंगे। शार्ट सेलिंग करने वाली सटोरिया फर्म हिंडनबर्ग की नीयत, टाइमिंग और बड़ा मुनाफा कमाने का मकसद साफ है। लेकिन पुरानी हकीकत है कि बड़े अपराधों से जुड़े मामलों का खुलासा दुर्जन शक्तियों द्वारा ही होता है। इसलिए इस मामले में रिपोर्ट भेजने वाले की बजाय संगीन आरोप और सवाल ज्यादा अहम हैं। इस विवाद से जुड़े चार पहलुओं को मथने पर शुरू में बेचैन करने वाला विष निकलेगा। लेकिन देशवासियों के हित में यह राष्ट्रमंथन बेहद जरूरी है।
एक फीसदी की गलत थ्योरी
एलआईसी और कई बैंकों के अनुसार अदाणी में उनका निवेश एक फीसदी से भी कम है। फाइनेंशियल टाइम्स की रिपोर्ट को मानें तो अदाणी समूह भारत की जीडीपी में एक फीसदी वजन रखता है। लेकिन इस साल के बजट में कल्याणकारी योजनाओं के लिए आवंटित रकम के आंकड़ों से पूरे मामले को बेहतर तरीके से समझा जा सकता है। 82 करोड़ लोगों को फ्री राशन, शिक्षा, स्वास्थ्य, मनरेगा, जल जीवन मिशन, आंगनबाड़ी, प्रधानमंत्री आवास योजना, महिला एवं बाल विकास, मेट्रो रेल का नेटवर्क, स्वच्छ भारत अभियान और ई-कोर्ट जैसी अहम मदों के लिए बजट में लगभग 6.86 लाख करोड़ आवंटित हुआ है। इसलिए हिंडनबर्ग रिपोर्ट के बाद अदाणी के शेयर्स और पूंजी में 10 लाख करोड़ से ज्यादा की गिरावट को एक फीसदी फार्मूले से खारिज करना गलत है।
देश पर हमला और ग्रोथ स्टोरी
जब अदाणी समूह ने ही रिपोर्ट को देश पर हमला बताया है, तो सरकार बहस से मुंह क्यों मोड़ रही है? एक खबर के अनुसार अदाणी मामले से वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत की रैंक फिसलकर पांचवें से छठे स्थान पर आ गई है। इतिहास के पन्नों से हर्षद मेहता, केतन पारिख, विजय माल्या और नीरव मोदी जैसे कारोबारियों की कुंडली खंगालकर अदाणी के बचाव का नैरेटिव बनाना गलत है। कारोबारियों के साथ पक्ष-विपक्ष सभी के नेताओं की दुरभिसंधि रहती है। अदाणी से जुड़े हिस्सों को संसद की कार्यवाही से भले ही हटा दिया हो लेकिन सोशल मीडिया में चल रहे कयासों पर रोक कैसे लगेगी? हिंडनबर्ग रिपोर्ट में क्रोनी कैपिटिलज्म से जुड़े कई मुद्दों को उठाया गया है। उन पर संजीदगी से मंथन और कॉर्पोरेट गवर्नेंस में सुधार के बाद ही भारत की ग्रोथ स्टोरी पर दुनिया का भरोसा बढ़ेगा।
सुप्रीम कोर्ट की कथित क्लीन चिट
अदाणी समूह ने शुरुआती बचाव में सुप्रीम कोर्ट की क्लीन चिट की दुहाई दी थी। यह बयान कानून की कसौटी पर हास्यास्पद ही माना जाएगा। कुछेक मामलों में सुप्रीम कोर्ट से मिली राहत को अदाणी ग्रुप के कैरेक्टर सर्टिफिकेट के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए। लखनऊ की विशेष अदालत ने भ्रष्टाचार के खिलाफ जंगी फैसला देते हुए 100 रु. की घूस के 30 साल पुराने मामले में 82 साल के बूढ़े व्यक्ति को एक साल की सजा सुनाई है। दूसरी तरफ खरबों डाॅलर से जुड़े मामले में सीनियर वकील साल्वे ने लचर न्यायिक सिस्टम की दुहाई देते हुए हिंडनबर्ग के खिलाफ कार्रवाई से इंकार कर दिया। अब इस मामले में हिंडनबर्ग पर दायर पीआईएल बेतुकी होने के साथ मामले को भटकाने की कोशिश हो सकती है।
रेगुलेटर्स की साख बहाल होना जरूरी
कोरोनाकाल में 82 करोड़ लोग सरकारी राशन पर निर्भर थे, जिससे आर्थिक असमानता बढ़ गई। लॉकडाउन के दो साल के अंधेरे दौर में अदाणी समूह की वैल्यू में कई गुना उछाल हिंडनबर्ग के उठाए गए सवालों को वैधता प्रदान करता है। विपक्षी दल जेपीसी की तो भाजपा सांसद डॉ. स्वामी अदाणी की सम्पत्तियों के राष्ट्रीयकरण की मांग कर रहे हैं। सरकारी चुप्पी के बावजूद पूरे मामले की आंतरिक जांच की घोषणा करके अदाणी ने स्थिति में सुधार करने की कोशिश की है। लेकिन इस रिपोर्ट में धोखाधड़ी, कर चोरी, बेनामी कम्पनियाँं, टैक्स हैवन, हवाला और नेताओं के साथ दुरभिसंधि के आरोप हैं। चाहे जेपीसी हो या जजों की मॉनिटरिंग, प्रभावी जांच के लिए सीबीआई, ईडी, डीआरआई, आरबीआई, इनकम टैक्स और एनआईए जैसी एजेंसियों को ही पूरी भूमिका निभानी होगी। तथ्यपरक जवाब के बगैर अदाणी को दी गई क्लीन चिट से अर्थव्यवस्था पर विदेशी निवेशकों का भरोसा वापस लाना मुश्किल होगा।
संदेह से परे हों न्यायिक नियुक्तियां
डा. एके वर्मा, ( लेखक सेंटर फार द स्टडी आफ सोसायटी एंड पालिटिक्स के निदेशक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं )
न्यायिक नियुक्तियों पर विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कलेजियम व्यवस्था बनाने और संसद द्वारा पारित राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग यानी एनजेएसी के गठन को गैर-संवैधानिक घोषित करने के मुद्दे पर विवाद और विमर्श दोनों जारी हैं। उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ और लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने न्यायपालिका को न्यायिक लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन न करने की सलाह दी है तो कानून मंत्री ने न्यायिक प्रक्रिया को पारदर्शी एवं उत्तरदायित्वपूर्ण बनाने के लिए सुप्रीम कोर्ट कलेजियम में केंद्र सरकार और उच्च न्यायालय कलेजियमों में राज्य सरकारों के प्रतिनिधियों को शामिल करने के लिए पत्र भेजा। इससे कार्यपालिका और न्यायपालिका के मध्य विवाद का संकेत गया, लेकिन इसे इन संस्थाओं के बीच संवाद के रूप में भी देखा जाना चाहिए। न्यायमूर्ति एमसी छागला जब मुंबई उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश थे तो उस दौरान वह तत्कालीन मुख्यमंत्री मोरारजी देसाई के साथ न्यायिक नियुक्तियों पर सैद्धांतिक असहमति के बावजूद प्रतिमाह चाय या रात्रि भोज पर संवाद करते थे। आज उस परंपरा को पुनर्जीवित क्यों नहीं किया जा सकता?
स्वतंत्रता तथा योग्यता के आधार पर निष्पक्ष न्यायिक नियुक्तियों को लेकर देश में सर्वसम्मति है। संविधान निर्माताओं की ऐसी कोई मंशा नहीं थी न्यायिक नियुक्तियों में किसी एक संवैधानिक संस्था का एकाधिकार हो। डा. आंबेडकर कल्पना ही नहीं कर सकते थे कि न्यायपालिका ही न्यायाधीशों की नियुक्ति करेगी और जनता को बताएगी भी नहीं कि किस आधार पर उनका चयन हुआ और क्यों कुछ को अस्वीकृत किया गया? कलेजियम प्रणाली से जिस तरह नियुक्तियां हो रही हैं, उससे जनता के मन में शंकाएं उत्पन्न हो रही हैं। संभव है कि वे शंकाएं निर्मूल हों, किंतु पारदर्शिता के अभाव में उन्हें बल मिलता है। कई उदाहरण भी हैं। जैसे त्रिपुरा उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश अकील कुरैशी का प्रतिवेदन न करना और कलकत्ता उच्च न्यायालय में न्यायाधीश सौमित्र सेन की नियुक्ति करना। सेन पर वित्तीय अनियमितताओं के कारण राज्यसभा ने महाभियोग प्रस्ताव पारित किया था। ऐसे निर्णय कलेजियम पर प्रश्नचिह्न खड़े करते हैं।
एनजेएसी संविधान संशोधन के उपरांत अस्तित्व में आया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उसे असंवैधानिक बताकर खारिज कर दिया। जबकि एनजेएसी में अध्यक्ष का दायित्व स्वयं मुख्य न्यायाधीश को दिया गया था, जिसमें दो वरिष्ठतम न्यायाधीश, कानून मंत्री और दो अन्य ख्यातिप्राप्त जनों का प्रविधान था, जिनका चयन एक समिति करती जिसमें प्रधानमंत्री, नेता-प्रतिपक्ष और स्वयं मुख्य न्यायाधीश होते। एनजेएसी को निरस्त करने के न्यायपालिका के जो भी तर्क हों, लेकिन जनता को आज तक यह समझ नहीं आया कि किस लोकतांत्रिक सिद्धांत के अंतर्गत न्यायाधीश ही न्यायाधीशों की नियुक्तियां करते हैं। विश्व में ऐसा कोई उदाहरण नहीं। अमेरिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा होती है, लेकिन उसके पहले सीनेट की समिति संभावितों के गंभीर साक्षात्कार लेती है। पूरी पड़ताल के आधार पर ही सीनेट नियुक्ति को स्वीकृत या अस्वीकृत करती है। इंग्लैंड में आयोग द्वारा परीक्षा और साक्षात्कार की प्रक्रिया के द्वारा न्यायाधीशों की नियुक्तियों का प्रतिवेदन होता है और प्रधानमंत्री के परामर्श पर महारानी-महाराज नियुक्ति करते हैं। लोकतंत्र में जनता और संविधान सर्वोच्च है, न कि न्यायपालिका। हमारे संविधान निर्माताओं ने यद्यपि न्यायपालिका को संसद के कानूनों पर ‘न्यायिक पुनर्निरीक्षण’ का अधिकार दिया, मगर ‘न्यायिक सर्वोच्चता’ के सिद्धांत को अस्वीकार कर व्यवस्थापिका एवं न्यायपालिका में संतुलन स्थापित किया था। अतः उन्होंने ‘विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया, न कि ‘विधि की सम्यक प्रक्रिया’ के आधार पर न्यायपालिका को ‘न्यायिक-पुनर्निरीक्षण’ का अधिकार दिया। हालांकि, 1973 में ‘केशवानंद भारती मामले ने पूरा परिदृश्य बदल दिया। संविधान के मूल ढांचे के सिद्धांत का प्रतिपादन कर सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायिक-सर्वोच्चता की ओर कदम बढ़ाए। अब सर्वोच्च न्यायालय संसद द्वारा बनाए किसी भी कानून को इस आधार पर निरस्त कर सकता है कि वह संविधान के मूल ढांचे के विरुद्ध है। एनजेएसी के साथ भी उसने यही किया। उच्चतम न्यायालय ने न्यायिक सर्वोच्चता की दिशा में दूसरा कदम 1993 में तब बढ़ाया जब न्यायिक नियुक्तियों में वर्षों की स्थापित प्रक्रिया, जिसमें राष्ट्रपति देश के मुख्य न्यायाधीश और कुछ अन्य न्यायाधीशों से परामर्श कर न्यायाधीशों की नियुक्ति करते थे, को पलट दिया। उस पारंपरिक व्यवस्था में राष्ट्रपति परामर्श को मानने को बाध्य नहीं थे, लेकिन नई व्यवस्था में मुख्य न्यायाधीश के परामर्श को राष्ट्रपति पर बाध्यकारी बना दिया गया। इसी से कलेजियम व्यवस्था का जन्म हुआ।
अक्सर जनता के मन में न्यायिक नियुक्तियों को लेकर संशय होता है, किंतु न्यायपालिका के प्रति आदर भाव के चलते वह कोई प्रश्न नहीं उठाती। ऐसे में न्यायपालिका को विचार करना चाहिए कि कहीं जनता का यह विश्वास टूट न जाए। संसद और कार्यपालिका तो जनता के प्रति उत्तरदायी है, लेकिन न्यायपालिका किसके प्रति उत्तरदायी है? जनता किससे पूछे कि लंबित मुकदमों की संख्या घटाने के लिए न्यायपालिका ने क्या किया? ‘विलंबित न्याय वस्तुतः न्याय से वंचित करना है’– इस सिद्धांत की उपेक्षा क्यों की जा रही है? क्यों नियुक्तियों में पारदर्शिता का अभाव है? प्रश्न यह भी है कि लोकतंत्र में न्यायिक नियुक्तियों में जनता द्वारा निर्वाचित सरकार की भूमिका क्यों न हो? स्मरण रहे कि केवल न्यायपालिका ही ऐसी संस्था है जिसके चयन में जनता की प्रत्यक्ष भूमिका न होने के बावजूद उसकी आस्था बनी हुई है, लेकिन यदि उसके गठन में जनप्रतिनिधियों की भूमिका भी समाप्त हो जाएगी तो जनता न्यायपालिका से पूर्णतः कट जाएगी। यह लोकतंत्र के लिए हितकर नहीं होगा। एक स्वतंत्र, निष्पक्ष, उत्तरदायी, पारदर्शी एवं जनोन्मुखी न्यायपालिका लोकतंत्र में अपरिहार्य है।
Date:10-02-23
महंगाई पर लगाम
संपादकीय
महंगाई पर लगाम कसने के मकसद से भारतीय रिजर्व बैंक ने एक बार फिर रेपो दरों में पच्चीस आधार अंक की बढ़ोतरी कर दी है। इस तरह अब रेपो दर साढ़े छह फीसद पर पहुंच गई है। इस बढ़ोतरी का अनुमान पहले से ही लगाया जा रहा था। पिछले दस महीनों में यह छठवीं बढ़ोतरी है। इस दौरान रेपो दर में ढाई सौ अंक की बढ़ोतरी की जा चुकी है। हालांकि कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि अब रिजर्व बैंक बढ़ोतरी को लेकर अपने हाथ रोक लेगा। मगर रिजर्व बैंक के रुख से ऐसा नहीं लग रहा कि वह महंगाई को लेकर आश्वस्त है, इसलिए उसने इस पर कोई स्पष्ट टिप्पणी नहीं की है। रेपो दरों में बढ़ोतरी का मतलब होता है कि इस दर पर सारे बैंक भारतीय रिजर्व बैंक से कर्ज लेते और फिर उससे अपना कारोबार करते हैं। जाहिर है, बैंक अपनी ब्याज दरें इससे कुछ ऊंची ही रखते हैं। इस तरह बैंकों से घर, वाहन, कारोबार आदि के लिए कर्ज लेने वालों पर ब्याज का बोझ बढ़ता है। मगर दूसरी तरफ उन लोगों को लाभ भी मिलता है, जिन्होंने अपने गाढ़े वक्त के लिए बैंकों में निवेश कर रखा या पैसे जमा कर रखे हैं।
रेपो दर में बढ़ोतरी का असर महंगाई पर पड़ता है। उसे रोकने में मदद मिलती है। पिछली बढ़ोतरियों का स्पष्ट प्रभाव भी नजर आ रहा है। फिर अंतरराष्ट्रीय बाजार में ब्याज दरों में बढ़ोतरी को देखते हुए भी भारतीय रिजर्व बैंक को अपनी दरों में बढ़ोतरी करना मजबूरी थी। अमेरिकी फेडरल ने महंगाई के मद्देनजर लगातार अपनी दरें ऊंची की हैं। इसका नतीजा यह भी देखने को मिला कि बहुत सारे विदेशी निवेशकों ने भारत के बाजार से अपना पैसा निकाल कर वहां लगाना शुरू कर दिया। इसके चलते डालर के मुकाबले रुपए की कीमत गिरती गई। रिजर्व बैंक के रेपो दर में बढ़ोतरी से उन निवेशकों को रोकने में मदद मिलेगी। फिर ब्याज दरें ऊंची होने की वजह से बाजार में पूंजी का अनियंत्रित प्रवाह रुकता है। मगर इससे महंगाई पर वास्तव में कितना असर पड़ेगा, दावा करना मुश्किल है। खुद रिजर्व बैंक ने माना है कि चालू वित्त वर्ष की चौथी तिमाही में महंगाई साढ़े पांच फीसद पर सिमट जाएगी, पर अगले वित्त वर्ष में फिर इसके बढ़ने की संभावना है। इसलिए एकमात्र रेपो दरों में बढ़ोतरी, महंगाई रोकने का कारगर उपाय साबित होगा, दावा नहीं किया जा सकता।
दरअसल, भारत में महंगाई बढ़ने की कई वजहें होती हैं। जिस साल मानसून अच्छा नहीं रहता या अनियंत्रित रहता है, उस साल कृषि उपज खराब होती है और खानेपीने की चीजों की कीमतें एकदम से बढ़ जाती हैं। फसलें अच्छी होती हैं, तो कीमतें नीचे आ जाती हैं। चालू वित्त वर्ष की तीसरी तिमाही में महंगाई घटने के पीछे मुख्य वजह यही मानी गई। फिलहाल औद्योगिक क्षेत्र में अपेक्षित गति नहीं लौट पाई है। निर्यात का रुख नीचे की तरफ है। कई देशों के साथ व्यापार घाटा लगातार बढ़ रहा है। रोजगार के नए अवसर पैदा नहीं हो पा रहे, जिसकी वजह से लोगों की क्रय शक्ति नहीं बढ़ पा रही। तेल की कीमतें अब भी काबू से बाहर हैं। ऐसे में महंगाई की दर अब लोगों की सहन क्षमता से अधिक है। फिर रेपो दरों में बढ़ोतरी का उपाय आजमाने से औद्योगिक और व्यापारिक गतिविधियों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, जिसका सीधा असर देश की विकास दर पर पड़ता है। यानी इस तरह संतुलन बिठाना मुश्किल रहेगा।
गुब्बारे से तनाव
संपादकीय
जासूसी गुब्बारे तनाव का विषय बन गए हैं, तो इसके पीछे न केवल कुछ देशों का अविश्वास, बल्कि वह दुश्मनी भी है, जो बढ़ती चली जा रही है। अमेरिका में उड़ता पाया गया चीनी गुब्बारा चर्चा के केंद्र में है और चर्चा तनाव की ओर बढ़ रही है। अब एक अमेरिकी रिपोर्ट आई है, जिसमें बताया गया है कि चीन ने भारत और जापान सहित कई देशों को निशाना बनाते हुए जासूसी गुब्बारों का संचालन किया है। अमेरिकी सेना के लड़ाकू जेट ने देश में संवेदनशील प्रतिष्ठानों पर तैर रहे एक चीनी जासूसी या निगरानी गुब्बारे को मार गिराया था। हालांकि, ऐसा कोई गुब्बारा भारत में चर्चा में नहीं आया है। क्या भारतीय सुरक्षा एजेंसियों को ऐसे गुब्बारों की सूचना है? अमेरिकी रिपोर्ट बताती है कि जासूसी गुब्बारे कई वर्षों से चीन के दक्षिणी तट से दूर हैनान प्रांत से संचालित होते आए हैं। जापान, भारत, वियतनाम, ताइवान और फिलीपींस सहित चीन उन तमाम देशों की जासूसी करता है, जो उसकी नजर में उभरती सामरिक ताकत हैं। क्या अमेरिकी आरोपों में सच्चाई है? क्या अमेरिकी आरोप चीन पर स्वाभाविक ही चिपक नहीं जा रहे हैं?
अमेरिकी अधिकारियों ने कहा है कि इन जासूसी गुब्बारों को आंशिक रूप से पीएलए (पीपुल्स लिबरेशन आर्मी) की वायु सेना द्वारा संचालित किया जा रहा है और इन्हें पांच महाद्वीपों में देखा गया है। चीन दूसरे देशों की संप्रभुता का उल्लंघन कर रहा है। हालांकि, यह भी गौर करने वाली बात है कि ऐसे उल्लंघन किसी न किसी प्रकार से अमेरिका भी दशकों तक करता रहा है। अब ऐसी जासूसी को चीन भी अपना अधिकार मानने लगा हो, तो अचरज नहीं। विशेषज्ञ जानते हैं, चीन ने अमेरिका से ही सर्वाधिक सीखा है और अब भी अमेरिका में ही ऐसी विशेषताएं हैं, जिनसे प्रभावित होकर चीन सुधार के लिए प्रेरित हो सकता है। अगर यह मान लिया जाए कि पिछले सप्ताह अमेरिका में चार से ज्यादा गुब्बारे देखे गए हैं, तो अन्य देशों में कितने देखे गए हैं, यह महत्वपूर्ण सवाल है। चीन का दावा है कि गुब्बारा शोध का हिस्सा था और गलती से भटककर अमेरिका पहुंच गया। वास्तव में, चीन ने दुनिया को अविश्वास के इतने मौके दिए हैं कि उस पर सहज विश्वास करना मुश्किल है।
आज दुनिया जिस मुकाम पर है, वहां बड़ी शक्तियों को ज्यादा समझदारी का परिचय देना चाहिए। युद्ध की मानसिकता से जल्द से जल्द निकल आना चाहिए। अमेरिकी विदेश मंत्री एंटोनी ब्लिंकन की बीजिंग की तय यात्रा स्थगित हो गई। चीन का गुब्बारा फोड़ दिया गया, तो चीन ने भी पूरे बचकानेपन के साथ प्रतिक्रिया दी कि वह भी ऐसा ही करेगा। गुब्बारे कभी युद्ध लड़ने की क्षमता की निशानी हुआ करते थे, लेकिन अब जासूसी का माध्यम बन गए हैं। अंतरराष्ट्रीय कानून तो स्पष्ट है, गुब्बारे अपने देश की थल सीमा पार नहीं कर सकते और जल सीमा में लगभग 22 किलोमीटर दूर ही जा सकते हैं। समस्या संप्रभु हवाई क्षेत्र की ऊपरी सीमा के पार है। सैन्य विमान 13.7 किलोमीटर से ज्यादा की ऊंचाई पर उड़ते हैं, जबकि सुपरसोनिक जेट 18 किलोमीटर की ऊंचाई पर उड़ते हैं, खबर यह है कि चीनी गुब्बारा भी 18 किलोमीटर से ज्यादा की ऊंचाई पर देखा गया है। मतलब, गुब्बारे से जुड़ी विकसित तकनीक इस स्तर पर पहुंच गई है कि अंतरराष्ट्रीय कानूनों को संशोधित करने की जरूरत महसूस होने लगी है। बहरहाल, चीन चाहे, तो अपने अपनी कथित सकारात्मक शोध के बारे में दुनिया को बताकर आश्वस्त कर सकता है।