धार्मिक विवादों का क्या समाधान हो ?
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हाल ही में वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद के भीतर शिवलिंग की मौजूदगी ने पूरे मुद्दे को और भी विवादास्पद बना दिया है। इस विवाद के शुरूआती चरण में ही, हमें एक बड़ा सबक सीखने की जरूरत है। वह यह कि धार्मिक विवाद अंतहीन हो सकते हैं, और समाधान के बाद भी तनाव बना रह सकता है। इसका अर्थ है कि न्यायालय के बाहर समझौते के माध्यम से स्थायी समाधान खोजा जाना चाहिए।
तथ्य यह है कि रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मामला 1940 के दशक के उत्तरार्ध में शुरू हुआ था। इस विवाद को अंतिम रूप देने में लगभग सात दशक लग गए। यही कारण है कि इस प्रकार के मामलों में न्यायालय भी शामिल नहीं होना चाहते हैं। अयोध्या मामले में भी दो न्यायाधीशों ने कोर्ट से बाहर समझौते की बात कही थी। बाद में अनिच्छा से ही पांच जजों की पीठ ने मामले का निर्णय किया। इस निर्णय से हिंदुओं को राम मंदिर तो मिल गया, लेकिन हिंदू-मुस्लिम रिश्ते पहले से ज्यादा तनावग्रस्त रहने लगे हैं। कुल मिलाकर प्रत्येक कानूनी समझौता, विवादों का एक और द्वार खोलता है।
- अयोध्या मामले का समाधान हुआ, लेकिन नवम्बर 2019 में काशी और मथुरा पर कानूनी लड़ाई शुरू हो गई।
- अहमदाबाद की जामा मस्जिद को मंदिर के अवशेषों पर बना हुआ मानकर हिंदू उस पर अधिकार जमा रहे हैं।
- कर्नाटक के गुरू दत्तात्रेय पीठ पर हिंदू-मुस्लिम दोनों ही अपना दावा कर रहे हैं।
यदि वास्तविक समाधान समुदाय आधारित राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और स्थानीय वार्ताओं और समझौतों में है, तो अगला सवाल यह उठता है कि कौन पहल कर सकता है? क्योंकि सभी राजनीतिक दलों के पास अपने स्वयं के वोट बैंक हैं, जिनकी उन्हें चिंता करनी है। दूसरी ओर धर्मनिरपेक्ष इतिहासकार और बुद्धिजीवी भी इस प्रकार के मुद्दों पर धड़ों में विभाजित हैं।
संभावित समाधान क्या हो सकते हैं ?
- संघ परिवार तथा मुस्लिम धार्मिक संगठन दोनों ही समुदायों के पूर्व न्यायाधीश और सिविल सेवक एक अच्छी शुरूआत कर सकते हैं, बशर्ते कि वे सेवानिवृत्ति के बाद किसी प्रकार के राजनीतिक जुड़ाव न रखते हों।
- राष्ट्रीय स्तर पर एक संवाद शुरू किया जा सकता है, जो अपनी प्रगति के साथ ही वातावरण को ठीक करे और बेहतर अंतर सामुदायिक संबंधों के लिए एजेंडा निर्धारित करे। इसके बिना भारत का अगले दशक में मध्यम आय वाले देश का दर्जा प्राप्त करने का स्वप्न धरा का धरा ही रह जाएगा।
- एक ऐसा स्थायी आयोग बनाया जा सकता है, जो इतिहास, सत्य और समझौते पर काम करे। इसे निष्पक्ष, ईमानदार और विश्वसनीय न्यायाधीश और बुद्धिजीवी संचालित करें। इस सर्वसम्मति के आधार पर इतिहास की पुस्तकों को फिर से लिखा जा सकता है।
- अंतर-सामुदायिक मुद्दों से निपटने के तरीके पर न्यायिक सहमति होनी चाहिए। आवश्यक प्रथाओं, धर्मनिरपेक्षता और बुनियादी मानवाधिकारों के उल्लंघन से जुड़े धार्मिक मामलों में आखिर संविधान कहाँ तक हस्तक्षेप कर सकता है।
- मंदिरों को अपने अधिकार में लेने की सरकार की प्रवृत्ति, संविधान की भावना से परे है। मंदिरों को भक्तों को ही सौप दिया जाना चाहिए। संभवतः एक विशेष कानून के साथ उन्हें नियंत्रित किया जा सकता है।
सामुदायिक स्तर पर हमें संवाद और समझौता करने की जरूरत है। विधायी और कानूनी स्तरों पर इस बात की स्पष्टता होनी चाहिए कि कानून की सीमा कहाँ तक है, और धार्मिक अधिकारों की कहाँ तक। तभी समाधान की आशा की जा सकती है।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित आर जगन्नाथ के लेख पर आधारित। 14 सितम्बर, 2022