राष्ट्रभाषा को लेकर विवाद क्यों ?

Afeias
18 Jul 2022
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भारत में राष्ट्रभाषा का विवाद थमने का नाम ही नहीं ले रहा है। समय-समय पर कोई न कोई इस पर टिप्पणी कर देता है, और पुराना विवाद फिर से उभर आता है। हाल ही में अभिनेता अजय देवगन ने कहा कि ‘हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा और मातृभाषा थी, है और हमेशा रहेगी।’ उत्तर प्रदेश के एक मंत्री ने भी राष्ट्रभाषा के संबंध में एक विवादित बयान दिया है, और कहा है कि ‘हिंदुस्तान में उन लोगों के लिए जगह नहीं है, जो हिंदी नहीं बोलते। उन्हें यह देश छोड़कर कहीं और चले जाना चाहिए।’ सवाल यह है कि देश के 78 करोड़ गैर हिंदी भाषी कहां चले जाएं ?

सैद्वांतिक रूप से राष्ट्रभाषा का विचार अच्छा कहा जा सकता है। लेकिन भारत जैसे बहुभाषी देश पर इसे थोपना, विनाशकारी हो सकता है। दो देशों के उदाहरण से इसे समझा जा सकता है। जब पाकिस्तान बनाए तो जिन्ना ने उर्दू को राष्ट्रभाषा घोषित कर दिया। उस समय 55% पाकिस्तानियों की मातृभाषा बांग्ला थी। केवल 7% ही उर्दू समझते थे। गर्वित बंगालियों के बीच जल्द ही आक्रोश पैदा हो गया। इसने अंततः पाकिस्तान को तोड़ दिया, और बांग्लादेश का जन्म हुआ।

इसी प्रकार श्रीलंका के राष्ट्रपति भंडारनायके ने 1950 के दशक में तमिल अल्पसंख्यकों को मताधिकार से वंचित करते हुए ‘सिंहला ओनली एक्ट’ लागू किया था। इसके बाद दंगे हुए। गृहयुद्ध हुआ। कभी एक आदर्श दक्षिण एशियाई देश रहे श्रीलंका को घुटनों पर लाया गया था।

भारत भाग्यशाली रहा है। हिन्दी राष्ट्रवादियों ने हिंदी को थोपने का बार-बार प्रयास किया, लेकिन असफल रहे। पिछले 75 वर्षों में भारत ने राष्ट्रभाषा के बिना काफी अच्छे से काम चलााया है। इसी प्रकार से स्विट्जरलैंड है, जो बहुभाषी राष्ट्र है। इसकी कोई राष्ट्रीय भाषा नहीं है। इसकी प्रति व्यक्ति आय सबसे अधिक है। यह हैप्पीनेस इंडेक्स में भी उच्च स्थान रखता है।

एक सफल राष्ट्र के लिए किसी राष्ट्रभाषा की आवश्यकता नहीं होती है। लेकिन भारत में हिंदी राष्ट्र की चाहत, पिछले 75 वर्षों से शासन करने वाले अभिजात वर्ग की भाषा के रूप में अंग्रेजी के प्रति गहरी नाराजगी को भी दर्शाती है। भारत में अंग्रेजी मात्र एक भाषा नहीं है, बल्कि जाति बन गई है। हालांकि, तीन परिवर्तन इस तर्क को कम शक्तिशाली बनाते हैं –

1. धीरे-धीरे अंग्रेजी एक भारतीय भाषा ही बन गई है, जैसे क्रिकेट एक भारतीय खेल बन गया है। 2011 की जनगणना में 13 करोड़ अंग्रेजी भाषी लोगों के साथ अंग्रेजी, अब हिंदी के बाद भारत में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है।

2. हिंदी, भारत में सबसे तेजी से बढ़ती हुई भाषा है। बॉलीवुड की बदौलत यह तेजी से फैल रही है। यदि अंग्रेजी हमारे लिए अवसर की भाषा है, तो हिंदी हमारे मनोरंजन की भाषा है।

3. तीसरा परिवर्तन, भाषा के मामले में नये वर्ग का उदय है। यह वर्ग युवा है, और उपनिवेशवादी मानसिकता से मुक्त है।

भाषाई शुद्धतावादी इस हिंग्लिश या तमिल मिक्स अंग्रेजी को अस्वीकार करते हैं। लेकिन यह आम भारतीयों के लिए आसानी से स्वीकार्य है। इसमें भारतीय अंग्रेजी की रचना है; एक ऐसी भाषा, जो एक दिन राष्ट्रीय भाषा बनने की आकांक्षा रखती है।

भारत की भाषा नीति को अतीत पर नहीं, भविष्य पर ध्यान देना चाहिए। इसे पुराने नेताओं को संतुष्ट करने की कोशिश करने की बजाय, युवाओं के लिए अवसर पैदा करने में मदद करनी चाहिए। इस मामले में नई शिक्षा नीति सही है, जो बच्चों को उनकी मातृभाषा में शिक्षा देने की सिफारिश करती है। हालांकि बच्चों को प्रारंभिक शिक्षा में अंग्रेजी भी सिखाई जानी चाहिए।

दुनिया की हर मां जानती है कि वैश्विक अवसर की भाषा अंग्रेजी है। यही कारण है कि देश के सरकारी स्कूल खाली हो रहे हैं। बच्चे स्वाभाविक रूप से बहुभाषी होते हैं, और आसानी से भाषाएं सीख लेते हैं। प्रौद्योगिकी के माध्यम से भाषाओं को सीखना और भी आसान हो गया है। इसे आसान, सस्ता और मजेदार बना दिया गया है। तो, हिंदी को गैर-हिंदी भाषी लोगों के गले से नीचे उतारने की कोशिश क्यों की जा रही है। यह पहले से ही सबसे तेजी से बढ़ती भारतीय भाषा है। हिंदी, इंग्लिश, हिंग्लिश अपने दम पर ही फैल रही हैं।

अगर भारत ने अभी तक राष्ट्रभाषा के बिना काम चलाया है, तो कुछ ऐसा ठीक करने का प्रयत्न क्यों करें, जो टूटा ही नहीं है। हमारे देश में अशांति या गृहयुद्ध के खतरे को आमंत्रण क्यों देना ? यदि हम अतीत की गलतियों से नहीं सीखेगें, तो उन्हें दोहराते रहेंगे।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित गुरचरण दास के लेख पर आधारित। 13 जून, 2022