
जीएम फसल किस्म पर निर्णायक हस्तक्षेप किया जाए
Date:14-10-21
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भारतीय कृषि में उत्पादकता को बढ़ावा देने के लिए तैयार अनुसंधान एवं विकास, समग्र कृषि नीति का एक प्रमुख तत्व है। इसी नीति के चलते ही इसे सार्वजनिक धन से पोषित किया जाता है।
हरित क्रांति के प्रारंभिक चरण से ही, परिषद् ने 5,334 उन्नत फसल किस्मों का विकास किया है। ये फसलें खाद्य सुरक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण रही हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण विकास 1990 के दशक के मध्य में आनुवांशिक रूप से संशोधित जीएम फसलों का आगमन था।
2002 में जब जेनेटिक इंजीनियरिंग मूल्यांकन समिति ने बी टी कपास की खेती को मंजूरी दी थी, तब जीएम फसलों को अंगीकार करने वाले शुरूआती देशों में भारत था।
जीएम फसल से परहेज क्यों-
1) प्रौद्योगिकी का ही विरोध किया जाने लगा। ऐसी आशंका उत्पन्न होने लगी कि इस प्रौद्योगिकी से उत्पन्न फसलों के सेवन से स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।
2) केंद्र और राज्य सरकारें भी अनेक प्रकार के संशय से बच नहीं पाईं।
फिर भी भारत में जीएम फसल का बाजार है। जीएम फसलों के प्रसार को रोका नहीं जा सका है। इसके कई कारण हैं-
- भारत सोयाबीन तेल का सबसे बड़ा आयातक है। लगभग 3.3 करोड़ टन सोयाबीन तेल का सालाना आयात जीएम किस्म से ही संभव हो रहा है।
- संकट में फंसे किसान भी नियामकीय मंजूरी का इंतजार किए बिना अवैध रूप से बी टी बैगन की खेती कर रहे हैं, जो कि लाभप्रद है।
अनुसंधान परिषद् और अन्य संस्थानों ने जीएम फसल किस्म में अनुसंधान पर बहुत धन लगाया है। इसके बावजूद दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा विकसित बीटी बैंगन और सरसों के लिए आवेदन, वर्षों से सरकारी फाइलों में अटके हुए हैं। जी एम से भारत को व्यापक लाभ हो सकता है। सरकार को इस पर सक्रियता दिखाते हुए नियमन के अवरोधों पर तत्काल कार्रवाई करनी चाहिए। यह मामला भारत की खाद्य सुरक्षा को रेखांकित करता है।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 1 अक्टूबर, 2021