समाजवाद कहिए या और कुछ

Afeias
17 Apr 2020
A+ A-

Date:17-04-20

To Download Click Here.

24-25 मार्च की मध्यरात्रि से देश के नागरिकों, विशेषकर दिहाड़ी पर जीने वाले मजदूरों के लिए एक घनघोर चिंता की स्थिति बनी हुई है। उन्हें लग रहा है कि वे कोविड़-19 के विरूद्ध लड़े जा रहे 21 दिवसीय लॉकडाउन युद्ध से कैसे पार पाएंगे। युद्ध की परंपरा में राष्ट्र की रक्षा के लिए पैदल सैनिकों का ही सबसे ज्यादा बलिदान दिया जाता है।

जब भी अर्थव्यवस्थाएं विकट संकट के दौर से गुजरती हैं; तीन प्रकार के हितधारकों को आर्थिक हानि होती है। एक, वे लोग प्रभावित होते हैं, जो थोड़ा कमाते हैं और जिनकी जीविका अनिश्चित होती है। दूसरे, लघु और अनौपचारिक उद्यम से जुड़े लोग हैं। इन पर देश की अधिकांश जनता अपनी आजीविका के लिए निर्भर होती है। तीसरे स्तर पर बड़े-बड़े कार्पोरेशन और स्टॉक मार्केट के निवेशक होते हैं।

ये सब एक जटिल तंत्र का हिस्सा हैं। सबको एक-दूसरे की आवश्यकता होती है। तंत्र को ठीक करने और सबके लिए लाभ के अवसर पैदा करने हेतु कार्पोरेट और सम्पत्ति कर को कम करके निवेश को आकर्षित करना चाहिए। पूंजीवाद की एक धारणा लाभ वाले कौशल का उपयोग स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी सार्वजनिक सेवाओं में खर्च करने पर चलती है। इस दृष्टिकोण से देखने पर सरकार कोई समाधान नहीं, बल्कि समस्या है।

तीस वर्ष पूर्व, फ्रांसिस फुकुयामा ने 1992 की अपनी पुस्तक में घोषणा कर दी थी कि इतिहास का अंत हो चुका है। इस पुस्तक का नाम ‘द एण्ड ऑफ हिस्ट्री एण्ड द लास्ट मैन’ था। 1989 में बर्लिन वॉल के गिरने, और दो वर्ष बाद सोवियत संघ के बिखरते ही फुकुयामा ने कहा था कि विचारधाराओं से जुड़ा युद्ध समाप्त हो चुका है। साम्यवादी और उन्हीं के विस्तार के रूप में देखे जाने वाले समाजवादी विचार को पूंजीवादी अर्थव्यवस्था ने मात दे दी थी। दूसरी ओर, प्रजातंत्र ने अधिनायकवादी सरकार का पत्ता साफ कर दिया था।

1991 के पश्चात्, वैश्वीकरण का बोलबाला हो गया। देशों के बीच की वित्तीय और व्यापारिक दीवारों को तोड़ दिया गया। अब पूंजी का निवेश और उसे वापस निकालने की स्वतंत्रता हो गई। चुनी हुई सरकारों का पूंजी पर पहले जैसा नियंत्रण नहीं रह गया था।

वित्त और व्यापार की जड़ें फैल रही थीं। इससे नागरिकों के जीवन में भी बिखराव आने लगा। वै नैतिक, धार्मिक और राष्ट्रीय जड़ों के लिए भावनात्मक और राजनैतिक सुरक्षा ढूंढने लगे थे। अब सत्तावादी शासकों ने एक बार फिर से कमान संभालने की कोशिश की। लोगों के जीवन को बेतहर बनाने का दिलासा देकर वे चुनाव जीतने लगे। तब ऐसा लगने लगा कि उदारवादी प्रजातंत्र की जीत को दर्ज करने की घोषणा करना एक जल्दबाजी होगी।

2008 की आर्थिक मंदी के बाद वैश्विक अर्थव्यवस्था के नियमों की शक्ति पर प्रश्न उठने लगे। हालांकि इससे कोई फर्क नहीं पड़ा। बड़े बैंक और कंपनियां, लोगों के धन के सहारे से बचकर मंदी से बाहर निकल गईं। बिजनेस में टिके रहने के लिए उन्हें अनुदान और ऋण दिया गया। इस धन से अंततः निर्धनों का भला करना था। परन्तु कंपनियों ने इस धन का उपयोग अपनी बैलेंस शीट को संभालने में किया। रोजगार के अवसर बढ़ाने के लिए निवेश करने के बजाय, उन्होंने शेयर खरीदे। इससे निवेशकों और प्रमुख कार्यकारियों की सम्पत्ति बढ़ी। हाल ही में अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा कोविड-19 से लड़ने के लिए 2 खरब डॉलर के पैकेज की घोषणा करके संपत्ति के रूख को कमजोर वर्ग की ओर मोड़ा है।

कोरोना वायरस के संक्रमण के कुछ वर्ष पहले से ही भारतीय अर्थव्यवस्था ढुलमुल स्थिति में चल रही है। सरकार को समाजवादी होने का बिल्ला चिपकने पर निवेशकों के बिदकने का डर है। अतः प्रधानमंत्री ने उच्च वर्ग को प्रोत्साहित किया है। कार्पोरेट टैक्स घटाकर वित्तमंत्री ने कार्पोरेट जगत को एक प्रकार का आश्वासन दिया है। इसके बावजूद निवेशक नहीं बढ़े हैं। कार्पोरेशन का कहना है कि मांग ही कमजोर है। जब तक नागरिकों के पास सुरक्षित आय नहीं होगी, वे व्यय क्यों और कैसे करेंगे। अतः रोजगार के अवसर बढ़ाकर आय में बढ़ोत्तरी करना बहुत जरूरी है।

कोरोना संकट में भारत द्वारा घोषित राहत पैकेज, प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के अंतर्गत उठाया गया एक समाजवादी कदम है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली, मनरेगा, उज्जवला, जन-धन योजना, प्रधानमंत्री किसान योजना आदि के द्वारा इस राशि को जरूरतमंदों तक पहुंचाया जाएगा।

फिर भी जैसे कोविड-19 के खिलाफ संघर्ष अभी समाप्त नहीं हुआ है, वैसे ही गरीबी के विरूद्ध भी संघर्ष चल रहा है। अपने नागरिकों के लिए पूर्ण स्वराज्य प्राप्त करने के लिए भारत को अभी एक लंबा रास्ता तय करना है। समावेशी और धारणीय विकास का रास्ता ‘बिल्ड-अप’ दृष्टिकोण से ही होकर जाता है। इसे समाजवाद भी कहा जा सकता है। शेक्सपीयर ने भी कुछ ऐसा ही कहा था कि ‘गुलाब को चाहे कोई भी नाम दे दो, उसकी सुगंध तो वैसी ही मोहक रहेगी।

‘द इकॉनॉमिक टाइम्स’ में प्रकाशित अरूण मायरा के लेख पर आधारित। 28 मार्च, 2020